उमेश चतुर्वेदी-
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की फर्स्ट सेक्रेटरी स्नेहा दूबे अपना काम कर रही थीं..सरकारी अधिकारियों को सेवा नियमावली के तहत काम करना होता है..अगर अधिकारी या कर्मचारी विदेश विभाग, खुफिया विभाग और सेना जैसे संवेदनशील विभागों में काम कर रहा हो तो उसकी सेवा नियमावली कुछ ज्यादा ही कठोर हो जाती है..
अब सवाल यह है कि क्या एंकर को यह पता नहीं था..
जहां तक टेलीविजन को मैंने जिया है…मुझे पता है कि एंकर का ज्यादा दोष इस मामले में नहीं है..वह एंकर दिल्ली विश्वविद्यालय की पढ़ी-लिखी हैं..उनके पति भी अधिकारी हैं..पुलिस जैसे संवेदनशील सेवा में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं, इसलिए यह आसानी से स्वीकार्य नहीं है कि एंकर को स्नेहा दूबे की सेवा नियमावली की जानकारी नहीं होगी..
तो सवाल यह है कि फिर उन्होंने यह गलती क्यों की..
राष्ट्रवादी होने का आरोप लगाकर उन्हें ट्रोल करना हो तो कीजिए..अगर आप ऐसा करते हैं और आप टेलीविजन की दुनिया को नहीं जानते तो बात अलग है…सोशल मीडिया के अनसोशल होने के दौर में यह तो चलन ही बन गया है..
लेकिन अगर आप टेलीविजन की दुनिया को जानते हैं..खासतौर पर खबरिया चैनलों को जानते हैं, फिर भी ट्रोल कर रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि आप असल समस्या को अनदेखा कर रहे हैं…
खबरिया टेलीविजन में लंबा समय गुजारने के बाद मैं जानता हूं कि क्या होता है और किस तरह की संस्कृति वहां विकसित की गई.. इसके खिलाफ सवाल उठाने की कीमत मैं आजतक चुका रहा हूं..
जब हिंदी के खबरिया चैनल विकसित हो रहे थे..तब उसकी अगुआई एक बौद्धिक किस्म के व्यक्ति कर रहे थे..इसके अलावा तीन और संपादकों का एक गैंग काम कर रहा था..
दिलचस्प यह है कि बौद्धिक चेहरा के रूप में एक दौर में स्थापित और अब आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष भी उसी गैंग का एक्सटेंशन काउंटर रहे हैं…
आज के खबरिया चैनलों के चलन, रिपोर्टिंग के तरीके आदि को उन्होंने ही विकसित किया है और हर नए चैनल ने इसे भी खबरिया चैनल का भगवद्गीता मान लिया है.. जिसमें कभी एलियन गाय उठा के ले जाता था..कभी बिना ड्राइवर की कार चलती थी..कभी आगरा में नागिन खेत में बने मचान पर सो रहे अपने प्रेमी से मिलने आती थी..तो कभी ऐसा ही कुछ होता था..
तब इस गैंग के संपादकों के लिए हुस्न जरूरी होता था…इन शब्दों को भरी मीटिंग में प्रयोग किया जाता था..हम भी रहे हैं ऐसी मीटिंगों में..
एक संपादक की कथित जनपक्षधरता पर प्रगतिशील खेमा लहालोट होता रहता है..लेकिन एक दौर में इस व्यक्ति को सिर्फ दलाल और बेहतर परसनैलिटी वाले कुपढ़ अच्छे लगते थे..लिखने, पढ़ने और जानने को यह गैंग टीवी पत्रकारिता के लिए अनुचित मानता था..दुर्भाग्य यह कि इन दिनों कभी-कभी अखबार में नजर वाला वह बौद्धिक संपादक भी ऐसी ही सोच रखता था..
इन संपादकों के समूह ने जो चलन शुरू किया..उसका ही साइड इफेक्ट है न्यूयार्क की घटना..
किसी तरह बाइट लाना..किसी के मुंह में लोला डाल देना और उससे जबरदस्ती कुछ भी उगलवा लेना…इस पत्रकारिता को इसी गैंग ने विकसित किया है..चूंकि यह गैंग सुनियोजित ढंग से काम करता था..इसीलिए जिसने भी इसका विरोध किया..वह टेलीविजन की दुनिया से बाहर है..जिसने अपना लिया..वह अर्श पर है..
कुछ तो ऐसे भी हैं..जो संपादकों के गैंग के इस चलन को भूतो न भविष्यति के तौर पर प्रचारित करते हैं…
कुछ ऐसे भी हैं..जो इन संपादकों का गुणगान – मैं कृत कृत्य भयऊं गोसाईं- की तर्ज पर करते नहीं थकते..
तो मित्रों…एंकर की ट्रोलिंग करने का हक सामान्य दर्शकों का ही है..आप टीवी के कथित मसीहाओं के गुणग्राहक हैं..तो आपको तो यह हक कतई नहीं है…आप ताली पीटीए..आपने अपनी आर्थिक सुरक्षा कर ली है..उसे बचाते रहिए..