इन दिनों हिन्दुस्तान के दफ्तर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है, क्योंकि यहां हर समय एक अजीब अनावश्यक तनावभारा माहौल यहां के मुखिया संपादक गैरजरूरी तरीके से बनाए हुए हैं। पिछले दिनों लगभग सभी लोगों से मबूरन मजीठिया न देने वाले कागज पर दस्तखत कराके भी इनके दिल को ठंडक नहीं मिली। कोई इन संपादकों से पूछे कि क्या पैसा इनके जेब से जा रहा है और ये भी तो नौकर हैं, ये क्यों भूल जाते हैं। और क्या ये अपनी मिल रह तनख्वाह से संतुष्ट हैं? कभी नहीं चाहते कि इनकी तनख्वाह बढ़े?
इस हिन्दुस्तान अख़बार का इतिहास रहा है कि यहां हमेशा पहले के सभी संपादक सभी अपने तहत काम करने वाले प्यून से लेकर कार्यकारी संपादक और अन्य संपादकों के हित के लिए मालिक से उसकी भलाई और उसको अधिक पैसा दिलाने में आगे रहे हैं, पर ये शशिशेखर नाम के प्राणी अजीब हैं, जो सिर्फ और सिर्फ अपना ही फायदा पूरी तरह से कंपनी से बटोरने में लगे हैं। पता नहीं क्यों, जबकि बातें इनकी बड़ी-बड़ी और नैतिकता व न्याय से लबरेज होती हैं पर काम पूरे तरह से सभी को दुःख पहुंचाने, शोषण करने वाले हैं।
क्या इन्हें कभी एकांत में बैठकर भगवान से भी डर नहीं लगता या उस हालत को नहीं सोचते जब ये कुरसी पर नहीं रहेंगे, तब इनकी हैसियत क्या होगी। इनके अन्याय का आलम बहुत ज्यादा बढता जा रहा है। किसी भी सहयोगी को, या संपादक, उपसंपादक, वरिष्ठ को सबके सामने बूढा कहकर बेइ्जत करने में हमेशा आगे रहते हैं। हैरानी की बात और हंसने की बात कि कभी अपने गिरेबान में झांकें या किसी अपने खास से पता कर लें कि क्या ये खुद बूढ़े नहीं हैं। ये खुद भी तो बूढ़े हैं।
आजकल इनकी पूरी कोशिश और ताकत इसमें लगी है कि नोएडा से हिन्दी हिन्दुस्तान वापस दिल्ली न शिफ्ट हो। क्योंकि यहां रहने में इन्हें शायद ढेरों लाभ हैं, जो दिल्ली में शायद न हों। पर ये सब ये ठीक नहीं कर रहे। शायद ऐसा करने में ये अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। कम से कम इनको ये तो सोचना चाहिए कि मैं कितना और कब तक अन्याय करता रहूंगा इन बेचारे मजबूर कर्मचारियों पर। इस उम्र में उनको तो सबका भला करके अपनी ख्याति अच्छे संपादकों के रूप में फैलाने की कोशिश करनी चाहिए। सिर्फ अच्छा न्याय से भरा बातें लिखने और अन्याय के खिलाफ खबरें छापने से कुछ नहीं, जब तक कि आपकी कथनी और करनी में इतना बड़ा अंतर हो। समय है कुछ अच्छा और न्यायपूर्ण करने का।
एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
lkc
September 12, 2015 at 5:29 pm
इसमे निराश होने वाली कोई बात नहीं है. आपलोग भी अमर उजाला नॉएडा कि तरह ऊपर बैठे लोगो को मुह तोड़ जवाब देना सीखा दो. यहाँ जेल मे मिले मोबाइल और तम्बाकू की खबर पर समीक्षक ने अपनी प्रतिक्रिया भेजते हुए खबर की हैडिंग लिखने वाले को गलत ठहरा दिया. फिर क्या था. एक मामूली से उप संपादक ने इस खबर पर समीक्षक की फाड़ दी. उसे ही दोबारा मेल भेजकर गलत साबित कर दिया. जबकि बताया जाता है कि उप संपादक रेजिडेंट एडिटर का बहुत खास है. रेजिडेंट एडिटर ने ही उसे दोबारा नौकरी पर बुलाया है. इसलिए उसकी समीक्षक पर ऊँगली उठाने की हिम्मत हुई. हलाकि ये अमर उजाला ग्रुप के लिए बेहद शर्मनाक है कि एक अदना सा उप संपादक खुद कि गलती को ढकते हुए वरिष्ठ पर उंगली उठा दी जो पुरे ग्रुप की खबरों पर नज़र रख रहा है.. दरअसल रेजिडेंट एडिटर खुद बोल नहीं पाते इसलिए अपने खास को ही आगे कर दिया और खुद को सुरक्षित कर लिया.
amit
September 13, 2015 at 5:46 am
हिंदी दिवस के अवसर पर अगर समीक्षक की हिंदी सुधार दी गई तो क्या बुरा है. समीक्षक भी तो गलती कर सकता है. वैसे भी संपादक के तलवे चाटने वाले की हिंदी तो कोई गलत कह ही नहीं सकता. शशि शेखर जैसे यहाँ भी विद्वान बैठे है. जो अपने ऊपर वालो की एक कर रहे है. इस तरह कई उप संपादक अगर एक जुट हो जाये तो इन विद्वानो की असलियत सामने आ जाएगी. जैसे मजीठिआ के लिए सब एक जुट होकर लड़ रहे है. आखिर संस्थानों की हालत ख़राब हो गए .
amit
September 13, 2015 at 5:55 am
ये कोई पहला केस नहीं है जब समीक्षक ने अपनी गलत तरह से प्रतिक्रिया दी हो. उसको जितनी समझ है वह उतना ही राजुल जी को गुमराह कर रहा है. और आपको बता दे की समीक्षक और कोई नहीं बल्कि एक वरिष्ठ सहयोगी योगेश नारायण दिक्सित है. जिनको काम के नाम पर समीक्षा करने दी गयी है. किसी तरह नौकरी तो चले. जो दफ्तर आते जाते अपने आका के कमरे मे पैर छूने जाते है. इनसे क्या हिंदी और हैडिंग की उम्मीद कर सकते है.
sharma
September 13, 2015 at 6:09 am
उप संपादक महाशय अगर आपको ज्यादा हिंदी सुधारने का शौक है तो किसी स्कूल मे मास्टर बन जाओ. अमर उजाला मे आकर क्यों मरा रहे हो. प्रमोशन टेस्ट देने को नहीं मिला इसलिए अपनी काबिलियत हिंदी पर उंगली उठकर बता रहे हो. तुम्हारे जैसे और भी है जिन्होंने प्रमोशन टेस्ट नहीं दिया लेकिन वह सभी ईमानदारी से अपना काम कर रहे है. रेजिडेंट एडिटर किसी का नहीं होता. तुम्हारे जैसे चुतिया को अपने यहाँ रख कर पेज लगवा रहा है और उंगली भी करा रहा है. ये रेजिडेंट एडिटर की काबिलियत है और तुम्हारी नाकबिलियत. काबिल रहे होते तो अब तक संपादक बन गए होते. अब समीक्षक को ढेर उंगली मत करो.
gautam
September 13, 2015 at 5:49 pm
kahe sab jane mil ke faade ho sameekshak ki. u t khud hi fata hai.
chandra kant
September 16, 2015 at 4:46 pm
bhai ye budda baura gaya hai janha bhi jata hai chamcho ko ekatra karta hai malik par raov dalta hai naukarshah ke madyam se pradesh ki sarkaron par raov chalata hai jab tak sab thik chalta hai tab tak masti karta hai malik ka chabuk chalta hai tou live reporting band karva deta hai naukarshahi ke dum se apni naukari chalata hai ies ke bachey ka kya hoga pata nahin amity me addmission bhi hua ki nahin agar ho gaya hoga tou pass bhi hua ki nahin
ek editorial likhta hai koi khas nahi bus char paper ki kating ke sahare ushme apna veiw nahi hota garfik data na hota hai niti paper amar ujjala me bhi yehi sab kiya tha bhag gaya thas nahas karke uppar wala hai na sab dekhta hai