अदाणी के ‘अच्छे दिन’ पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया को द टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा, प्रचार को खबर बनाते बाकी अखबार
संजय कुमार सिंह
आरटीआई कानून देने वालों को भ्रष्टाचारी बताकर सत्ता में आई सरकार के मुखिया ने 10 साल के अपने शासन के दौरान जो किया और नहीं किया उसपर देश की मुख्यधारा का मीडिया चर्चा नहीं करता है। इसे आप उसकी अयोग्यता मानें या इस सरकार का समर्थन पर वास्तविकता तो है ही। ऐसे में अदाणी मामले में सरकार से सवाल पूछने वाले दो सांसदों की सदस्यता खत्म होने और एक सांसद के जेल में होने के बाद कल सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जो आज कई अखबारों में लीड और सेकेंड लीड है। पर खबर यह नहीं है। खबर यह है कि कल का दिन अदाणी के लिए अच्छा रहा। अदालत के आदेश के बाद गौतम अदाणी ने ट्वीट किया (अनुवाद मेरा), माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पता चलता है कि : सच्चाई कायम रही। सत्यमेव जयते। मैं उन लोगों का आभारी हूं जो हमारे साथ रहे। भारत के विकास की कहानी में हमारा विनम्र योगदान जारी रहेगा।
अव्वल तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के भी कई मायने हो सकते हैं पर यह क्लीन चिट तो नहीं ही है। तथ्य यह है कि मामले में सेबी की जांच रिपोर्ट नहीं आई है उसे जांच पूरा करने के लिए कहा गया है। ठीक है कि वहां रिश्तेदारी है और पहले के मुखिया अब एनडीटीवी में नौकरी कर रहे हैं। पर जांच रिपोर्ट तो आनी है। रिपोर्ट के बाद ही क्लीन चिट के बारे में सोचा जाना चाहिये। हालांकि, क्लीन चिट को भी चुनौती दी जा सकती है और फिर जांच शुरू हो सकती है। मांग तो जेपीसी की थी। फिलहाल कई प्रमुख सवालों के जवाब नहीं हैं। सबको पता है, फिर भी कई अखबारों ने इसे क्लीन चिट मान लिया है और खबर वैसी ही है। कांग्रेस ने अदाणी के दावे की आलोचना की है और मुख्य आरोपों की जांच के बिना क्लिन चिट के दावे पर हंसी उड़ाई है।
यह खबर द टेलीग्राफ में तो पहले पन्ने पर चार कॉलम में है। लेकिन मेरे बाकी छह अखबारों से ऐसे गायब है जैसे गधे के सिर से सींग। अखबारों की खबरों से नहीं लग रहा है कि अदाणी समूह पर सरकार के संरक्षण में कुछ गलत करने का आरोप है। इसकी जांच चल रही है। मांग जेपीसी से कराने की थी सरकार ने मांग नहीं मानी तो मामला अदालत में गया और अब अदालत का फैसला है कि सेबी की जांच ही चलती रहेगी। जो पहले कह चुका है कि 20,000 करोड़ रुपए के संदिग्ध निवेश के मामले में उसकी जांच आगे नहीं बढ़ पा रही है। द टेलीग्राफ ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लीड बनाया है। मुख्य शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट में अदाणी के लिए अच्छा दिन। फ्लैग शीर्षक है, कोर्ट ने एसआईटी से मना किया चाहती है कि हिन्डनबर्ग की जांच हो।
इंडियन एक्सप्रेस में यही बात फ्लैग शीर्षक है। मुख्य न्यायाधीश की पीठ ने कहा, हिन्डनबर्ग समेत शॉर्ट सेलर्स की जांच हो। सुप्रीम कोर्ट ने अदाणी की फर्मों के खिलाफ अदालत की निगराणी वाली सीबीआई जांच काने की अपील खारिज की। इसके साथ एक खबर का शीर्षक है, सेबी किसकी जांच कर रहा है : 12 विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक, शॉर्ट सेलर्स। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर है। हिन्डरबर्ग-अदाणी मामलों में आगे जांच की कोई आवश्यकता नहीं – सुप्रीम कोर्ट। द हिन्दू में यह सेकेंड लीड है। शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने सेबी की जांच को जारी रखा, हिन्डनबर्ग के ‘आचरण’ को केंद्र में ले आया। यहां मूल खबर के साथ एक और खबर का शीर्षक है, तीसरे पक्ष की रिपोर्ट निर्णायक सबूत नहीं है : सुप्रीम कोर्ट। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर लीड है। इसका शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने अदाणी की फर्मों की जांच एसआईटी से कराने का आदेश देने से इनकार किया।
नवोदय टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, अदाणी समूह को सुप्रीम राहत। उपशीर्षक है, हिन्डनबर्ग विवाद : जांच एसआईटी को सौंपने से इनकार, याचिका खारिज। इन खबरों से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई थी कि अदाणी मामले की जांच एसआईटी से कराई जाये पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सेबी की जांच चल रही है तो एसआईटी की जरूरत नहीं है। इस फैसले या आदेश की आलोचना अपनी जगह है मैं उसमें नहीं जाउंगा पर मेरा मानना है जब जांच चल ही रही है तो दूसरी से क्यों करवाना। अगर आप मानते हैं कि सेबी की जांच ठीक नहीं है या सरकार प्रभावित है तो एसआईटी की जांच भी सरकार से प्रभावित हो सकती है और सरकार अगर सेबी को प्रभावित करेगी तो एसआईटी को क्यों नहीं। मामला सरकार से संबंधित है, जांच एजेंसी से नहीं। पर वह अलग मुद्दा है।
कायदे से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना नहीं होनी चाहिये और अगर बुद्धिजीवी वर्ग भी समझता है कि यह फैसला आलोचना के काबिल है (जिसकी आलोचना मीडिया ने नहीं की है और कांग्रेस ने उसे क्लीन चिट मानने का किया तो मीडिया ने उसे महत्व नहीं दिया) तो बुद्धिजीवियों को सोचना चाहिये कि फैसला कुछ और आता तो सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करने वाली ट्रोल सेना क्या करती। अगर दोनों को आलोचना ही करनी थी तो निश्चित रूप से बुद्धिजीवियों की आलोचना बेहतर है। वे समझेंगे कि यह स्थिति सरकार के कारण है। और सरकार बदलने के मौके का लाभ उठायेंगे या उसपर बात करेंगे। हो सकता है सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा महसूस किया हो और इस फैसले पर इसका प्रभाव हो। इस स्थिति में भी फैसले की आलोचना उचित नहीं है।
आज के अखबारों में सरकारी मनमानी और उससे परेशानी बताने वाली और भी खबरें हैं। उदाहरण के लिए महुआ मोइत्रा को ससंद से बर्खास्त किये जाने के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली। यह भी अदाणी के लिए अच्छी खबर है। आप जानते हैं कि डेढ़ सौ सांसदों को निलंबित किये जाने के बीच महुआ मोइत्रा का मामला अलग है और उन्हें अदाणी के खिलाफ सवाल पूछने के लिए चुन कर निलंबित किया गया है। ऐसे में उनके मामले में जो भी कार्रवाई हुई या नहीं हुई, कुछ और होती तो बहुत फर्क नहीं पड़ता था। इसी तरह आज एक और खबर है, सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट से कहा, सरकारी अधिकारियों को मनमाने ढंग से समन न किया जाये। इस आदेश का मतलब चाहे जो हो, आज ही खबर है कि ईडी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को तीसरी बार समन भेजा है। एक तरफ अधिकारियों को बिना जरूरत नहीं बुलाने के लिए कहा जा रहा है दूसरी तरफ मुख्यमंत्री को तीसरी बार बुलाया जा रहा है क्योंकि वे जा नहीं रहे हैं या जा नहीं पा रहे हैं।
इस लिहाज से अरविन्द केजरीवाल अकेले नहीं हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री को सात बार समन भेजा जा चुका है। अगर सुप्रीम कोर्ट के अनुसार अफसरों को बिना जरूरत नहीं बुलाया जाना चाहिये तो पांच साल के लिए निर्वाचित नेताओं को समन करने या जांच के नाम पर जेल में रखने का क्या मतलब है? वह भी सिर्फ उसे जो केंद्र सरकार का समर्थन नहीं करता है। ऐसे में ईडी के पास जबरन गिरफ्तार करने का भी अधिकार है और झारखंड के मामले में चूंकि कानून व्यवस्था की समस्या हो सकती है इसलिए उनका मामला अलग है और दिल्ली का अलग क्योंकि यहां पुलिस केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे में देश में क्या हो रहा है वह समझ में आ भी रहा हो तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि सब ठीक नहीं है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट भी क्या-क्या करे।
खासकर तब जब सरकार के मुखिया ने सेल्फी प्वाइंट बनवाने के आदेश दे रखे हैं। जनता को इसपर होने वाला खर्च जानने का हक है। सरकार ने नहीं बताया तो आरटीआई से पूछा गया और मालूम हो गया तो खबर छप गई। इसके बाद (भले बिल्कुल अलग हो) संबंधित अधिकारी का तबादला हो गया। इसकी खबर छपी तो राहुल गांधी ने ट्वीट किया, शहंशाह की रजा , सच का ईनाम सजा। यह खबर कितनी छपी या नहीं छपी आप तय कीजिये पर उसके बाद आज खबर है रेलवे ने आरटीआई के नियम ही सख्त कर दिये हैं। यह खबर आज मेरे अखबारों में सिर्फ द हिन्दू में पहले पन्ने पर है। लंबी सी इस खबर के अनुसार सेल्फी प्वाइंट पर आने वाले खर्च की जानकारी सेंट्रल रेलवे के डिप्टी जनरल मैनेजर अभय मिश्रा ने आरटीआई के जवाब में दी थी।
द हिन्दू में संबंधित खबर छपने के बाद अभय मिश्रा को स्थानांतरित कर दिया गया। वे इस पद पर सात महीने ही रहे। आम तौर पर कार्यकाल दो साल का होता है। इसपर राहुल गांधी के ट्वीट को खबर के रूप में नहीं के बराबर जगह मिली और रेलवे ने कह दिया कि तबादले का आरटीआई के जवाब से कोई संबंध नहीं है। इसी तरह आरटीआई के जवाब के बाद संशोधित दिशा निर्देशों का भी इस जवाब से कोई संबंध नहीं होना बताया गया है। हालांकि अधिकारी ने अपना नाम न छापने की शर्त पर यह जानकारी दी। लेकिन द हिन्दू में पहले पन्ने पर छपी खबर में बताया गया है कि सरकार ने जोनल रेलवे के महाप्रबंधकों को भेजी 28 दिसंबर की एडवाइजरी में कहा है कि आरटीआई के जवाब की गुणवत्ता खराब हुई है इसलिए अब जवाब जनरल मैनेजर और डिविजनल रेलवे मैनेजर के स्तर मंजूर किये जाएंगे। कारण चाहे जो हो, खबर तो यह है ही। अखबार नहीं छापें तो कोई सुप्रीम कोर्ट जा सकता पर सुप्रीम कोर्ट क्या-क्या देखे, कितने मामले सुने?
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