डॉ अव्यक्त अग्रवाल-
मेडिकल कॉलेज ओ पी डी में मेरे साथ दो इंटर्न और दो एम डी स्टूडेंट मरीज देख रहे थे । इंटर्न का काम दवा समझाना , रजिस्टर के मरीजों के नाम लिखना वगैरह था ।
एक गरीब सी मां अपनी 13 वर्ष की बच्ची को सिकल सेल एनीमिया के इलाज के लिए लाई थी। इंटर्न डॉक्टर में से एक लड़का था और एक लड़की थी । दोनों अपना काम मरीजों की भीड़ में बहुत तन्मयता से कर रहे थे।
मैंने, लेकिन नोटिस किया, लड़का जब भी कोई अमीर से घर के माता पिता होते तो कुछ ऐसे समझाता ….
” आप 13 नंबर कमरे में ये पर्ची लेकर चले जाइए ।”
“सर इन्हें मैंने दवा समझा दी है ।”
लेकिन , गरीब सी दिखती मां को कहता
” तुम 13 नंबर कमरे में चले जाओ। “
या फिर , मुझसे मुखातिब होकर कहता … ’सर ’इसे’ कल ही तो ’दवाएं’ दिलवा दी थीं ।’
जब इस तरह के वाक्यों एवं व्यवहार में अंतर मैंने ऑब्जर्व किया तो
कुछ देर के लिए सभी मरीजों को बाहर बस 5 मिन रुकने कहा ,
अब कमरे में मेरे साथ 4 जूनियर /( ट्रेनिंग लेने वाले )डॉक्टर थे ।
मैंने उससे कहा ” तुम क्या बनना चाहते हो आगे । “
उसने कहा “सर सर्जन ” ।
” वेरी गुड, तुम अच्छे बच्चे हो , sincere , अच्छे सर्जन भी बनोगे ।”
“लेकिन मुझसे कुछ भी पूछो मेरे विषय में “।
सर क्या पूछूं ?
मैंने कहा ,
कुछ भी । कोई भी बात ।
उसने पूछा ” सर , आपकी तबियत कैसी है।”
” देखो तुमने मुझे आप कहा लेकिन उस गरीब बैकग्राउंड की मां
को तुम कहा । ये अंतर क्यों । या तो तुम्हारी भाषा ही में तुम है तो मुझे भी तुम कहो । हम आर्थिक स्थिति , पद इत्यादि के आधार पर संबोधन क्यों बदल लेते हैं । “
सॉरी सर । उसने कहा ।
मैंने कहा , “नहीं तुम्हारी गलती नहीं , सोसायटी में हमारी संस्कृति में ये रचा बसा है … रिक्शे वाला तुम या तू होता है प्लेन चलाने वाला आप ।”
सब्जी के ठेले वाला तुम या तू होता है , शो रूम वाला आप ।”
वेटर तुम या तू हो जाता है , ओए सुन हो जाता है , एयरहोस्टेस आप ।
बचपन से अनजाने में हम यही अपना लेते हैं , सबको ऐसा करते देख कर । नहीं ? “
“यस सर सॉरी सर “
नहीं, सॉरी की बात नहीं । हम ये कम्युनिटी से सीखते हैं ?
बताओ क्या करना चाहिए । “
” सर , सबको बराबरी से ट्रीट करना चाहिए । “
मैंने ध्यान से सुनती लड़की इंटर्न से पूछा ?
तुम बताओ , क्या करना चाहिए ?
हां सर, सबको बराबरी से ट्रीट करना चाहिए । उसने भी कहा ।
मैंने कहा “नहीं , सबको बराबरी से ट्रीट नहीं करना चाहिए ।”
उन दोनो के चेहरे पर विस्मय था मेरे इस नहीं से ।
“हमें सबके बराबर खुद को मानना चाहिए ।
पहले वाक्य में यह दंभ है कि मैं कुछ बड़ा हूं लेकिन देखो सबको बराबरी से देखता हूं ।”
हमें खुद को बड़ा, बुद्धिमान, पढ़ा लिखा वगैरह वगैरह न मानते हुए एक केयर गिवर मानना चाहिए मात्र , जो कि हर मनुष्य है किसी न किसी रूप में । हर दूसरा मनुष्य बराबर है , सम्मानित है ।
जब तुम्हारे दिल में ये भाव बसेगा तो आपको ऊपर से हंबल नहीं होना होगा
आप की हर कोशिका विनम्र होगी । फिर किसी को आप डांट भी दोगे तो उसमें भी उसे प्यार और केयर ही दिखलाई देगी।
दरसल तुम या मैं डॉक्टर बने , इसमें तुम्हारा या मेरा योगदान बहुत मामूली है , प्रकृति ने थोड़ा आई क्यू दे दिया , माता पिता सपोर्टिव मिल गए …., ये सब एक संयोग मात्र से ही तो हुआ है । यदि तुम झोपड़ी में पैदा होते तो शायद इससे अधिक बुद्धिमत्ता होकर भी शायद ये न बन पाते । “
तो हममें या किसी और में अधिकतर फर्क परिस्थिति जन्य है बच्चों ।
इसलिए बराबर से ट्रीट नहीं करना, बराबर समझना है बस । भले प्राइम मिनिस्टर क्यों न बन जाओ ।”
तो कुछ भी बन जाओ याद रखोगे ये लेसन ?”
“यस सर , हमेशा ।”
तो जब सब्जी वाले, रिक्शे वाले , फल वाले , किसी से भी बात करोगे भाषा और टोन कौनसी होगी ?
“सर पायलट, शो रूम , डॉक्टर, टीचर, कलेक्टर के प्रति जो होती है वही ।” दोनों ने लगभग एक साथ कहा था ।
बात आप या तुम की नहीं , बात हमारे भीतरी intention की है । कहीं हम अनजाने में किसी को छोटा किसी को बड़ा तो नहीं समझ लेते हैं, और उस अनुरूप व्यवहार बदल लेते हैं ।
मुझे पता है, दस वर्ष बाद इस चिकत्सक के लिए कोई कह रहा होगा ” वो डॉक्टर बात बहुत अच्छे से करते हैं। “
Uday Satyarthi
July 12, 2023 at 6:25 am
गजब व गहरा लिखा है
छोटी सीबात है
इंसान होने की बात है
इसलिए साधारन फिर भी
असाधारन है