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वेब-सिनेमा

अधीनस्थों को अंतहीन टार्चर करने वाले इस परपीड़क बॉस का नाम जानते हैं आप?

हर दिन घर से ये कहकर निकलता था कि आज मैं इस्तीफा दे दूंगा या बॉस का सर तोड़ दूंगा…

आपको किसी बात का दुख है तो पोस्ट न पढ़ें. मैं जो लिख रहा हूं वो कुछ नया नहीं है. हो सकता है बहुत सारे लोग ऐसी स्थिति से अभी भी गुजर रहे हों अपने दफ्तरों में. यहां ज्ञान देने आसान है. झेलना मुश्किल होता है. मैं आज एक बात कर रहा हूं जो मैंने कभी भी बहुत स्पष्ट रूप से नहीं कही है. लेकिन अब लगता है कि मुझे कह देना चाहिए जिससे ये पता चले कि मैं पिछले कुछ समय में जो कह रहा हूं उसका मेरा एक अनुभव है. मैं लिख रहा हूं ताकि ऐसे अनुभव से गुजरने वालों को हिम्मत मिले. यहां किसी भी चीज़ को ग्लैमराइज़ नहीं किया जा रहा है. बस मैं बता रहा हूं कि मैं कैसे मरने से बच गया था एक समय में.

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जो मुझे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं उन्हें मेरे बारे में ये बात पता है. हो सकता है मेरे दफ्तर के कुछ लोग अब कहें कि अरे हमें तो पता नहीं था लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे साथ जो हो रहा था वो सबको पता था. लेकिन उस समय किसी ने मेरी मदद नहीं की. आदमी के मन में कैसे ख्याल आता है कुछ कर लेने का. करीब छह साल पहले की बात है. दफ्तर में कुछ बदलाव हुए थे जो अच्छे थे. मुझे एक ऐसा काम दिया गया जो कोई और करना नहीं चाहता था. सोशल मीडिया. मैंने न केवल जान लगाकर काम किया बल्कि लगभग लगभग अकेले दम पर (सबकुछ अकेले नहीं होता है लेकिन मैं कह सकता हूं कि सत्तर परसेंट मेरा योगदान था) सोशल मीडिया में अपने दफ्तर का फेसबुक का पन्ना स्थापित किया.

मेरी इज्जत दफ्तर में बढ़ी और मुझे सारे लोगों को ट्रेनिंग देने का काम दिया गया. मैंने वो किया भी और बहुत खुशी से किया. फिर अचानक नए बॉस की नियुक्ति हुई. डिजिटल के बैकग्राउंड से आए बॉस से दफ्तर में लगभग हर आदमी को उम्मीद थी कि अब डिजिटल में कुछ नया होगा. पुरानी चीज़ें और बदलेंगीं. मैं भी बहुत उम्मीद में था कि अब बेहतर ही होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

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नए बॉस की अपनी समझ थी और उस हिसाब से उन्होंने काम चालू किया जिसका पहला कदम था- हर आदमी को डिमोरलाइज़ करना. मैं चूंकि अपना काम जानता था और लंदन के ट्रेनर के सान्निध्य में काम कर रहा था तो मैंने इन बातों पर प्रतिक्रिया दी क्योंकि मुझे पता था कि मुझे काम आता है. मेरे बॉस ने लंदन वाले ट्रेनर को भी तंग किया लेकिन वो चूंकि लंदन से पोस्टिंग पर आई थीं तो उन्होंने बड़े लेबल पर अपना काम सेट कर लिया. बच गया मैं.

करीब छह महीने जिस दौरान हम लोगों के काम को बहुत बुरी तरह नकारा गया, मेरे दफ्तर में प्रमोशन के लिए इंटरव्यू हुए. सबको लग रहा था कि मेरा प्रमोशन पक्का है क्योंकि मेरा काम लंदन तक दिख रहा था. हुआ क्या. मुझे छोड़कर बाकी लगभग सभी सीनियर लोगों का प्रमोशन हो गया. यानि कि जिनको मैंने ट्रेनिंग दी थी वो सब मेरे ऊपर हो गए. मुझे उनमें से ही किसी के नीचे काम करने को कहा गया.

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मैं सदमे में था. मैं चुप हो गया. दफ्तर में हर आदमी को ये बात पता थी. मैं इतने सदमे में था कि मैंने दफ्तर में किसी से बात करना ही बंद कर दिया. करीब दो महीने तक मैं आठ आठ घंटे दफ्तर में बिना कुछ बोले गुजार दिया करता था जबकि मैं दफ्तर का सबसे हंसमुख आदमी हुआ करता था.

यहां तक कि एक लड़का जो मेरे साथ चाय पीने जाता था उससे बॉस ने कहलवाया कि सुशील के साथ मत बैठो नेगेटिव हो जाओगे. मुझे उस समय सबसे अधिक ज़रूरत थी कि कोई मुझसे बात करे. ये सब जब हो रहा था तो दफ्तर में कोई सत्तर अस्सी लोग काम करते थे. दो महीने के बाद मेरी सीट हटा दी गई और एडमिन विभाग के साथ मुझे बैठा दिया गया. अनौपचारिक रूप से कहा गया कि सुशील के यहां बैठने से लोगों में नेगेटिविटी फैल रही है.

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मुझे आज भी याद है कि लोग टॉयलेट आते थे तो मुझसे चुपके से बात किया करते थे. वहां मुझसे टीवी में काम करने को कहा गया जिसमें काम ये था कि दिन भर में एक स्टोरी का अनुवाद करो और लंदन को फोन पर बता दो. मैंने एक टीवी रिपोर्ट की जो चार हफ्ते तक चलाई नहीं गई. फिर वो अचानक से बीबीसी वर्लड टीवी में अंग्रेजी में चल गई तो हिंदी वालों ने भी चला दिया. इस घटना के एक हफ्ते के बाद मुझे वापस डेस्क पर बिठा दिया गया.

मैंने रिकवर करने की कोशिश में पवन कार्टूनिस्ट पर एक स्टोरी की देशज भाषा का कार्टूनिस्ट तो उस पर मेरे बॉस ने मुझे लंबा मेल लिखा और फिर बैठक कर के मुझे इतना लताड़ा कि मैं समझ गया कि मुझे स्टोरी नहीं करनी है.

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उस दिन के बाद मैं करीब करीब छह से आठ महीने डिप्रेशन में रहा. मैं कम बोलता था. और हर दिन घर से ये कहकर निकलता था कि आज मैं इस्तीफा दे दूंगा या बॉस का सर तोड़ दूंगा. ऐसा नहीं था कि दफ्तर में किसी को पता नहीं था कि मेरे साथ क्या हो रहा है. सबको पता था. लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता था. मुझसे सिर्फ दो लोग बात किया करते थे वो भी छुप छुप कर.

ऐसा करीब करीब साल भर चला. मैंने आर्टोलॉग शुरू किया था तो मैंने पूरा ध्यान उसी पर लगा दिया. एक साल के बाद जब सोशल मीडिया दफ्तर का ध्वस्त होने लगा तब लंदन से अधिकारियों ने पूछना शुरू किया कि वो लड़का कहां गया जो पहले था वो अच्छा काम करता था.

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2015 जनवरी की बात है. मैंने तय किया कि मैं एक साल का ब्रेक लूंगा. मैंने बॉस को कहा तो बोले कि – आप ब्रेक लेकर किसी को कंसल्टेंसी देंगे. तो मैंने कहा कि मैं क्या करूंगा वो आप नहीं बताएंगे. उस मीटिंग में मुझसे यहां तक कहा गया कि तुम्हारा भगवान जब तक तुमको बचाएगा तब तक तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी. ऐसी कुल तीन मीटिंग हुई होगी जिसमें मेरे महान संपादक द्वारा कहे जाने वाले महान वाक्यों में ये सब वाक्य थे.

१. इस दफ्तर में सब चूतिए हैं. मैं सबको ठीक करने आया हूं.

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२. मैं तुम्हें निकाल देना चाहता हूं लेकिन बीबीसी है.

३. मैंने बीस नौकरियां बदली हैं लेकिन मैं तो अब रिटायर होऊंगा यहां से तुम अपना देख लो.

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४. तुम मुझे बुली कर रहे हो (इसके जवाब में मैंने यही कहा कि अधिकारी बुली करता है, मातहत नहीं कर सकता. संभव नहीं है)

खैर जनवरी के महीने में जब मैंने ब्रेक की बात की तो बात लंदन तक गई और मुझसे पूछा गया कि क्या हुआ है- मैंने साफ कहा कि हालात मेरे लिए ठीक नहीं हैं और मैं परेशान हूं. मुझे किसी से शिकायत नहीं है लेकिन मैं ब्रेक लेना चाहता हूं मानसिक रूप से परेशान हूं.

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मेरी छुट्टी तय हो गई एक फरवरी से. इस बीच अचानक से प्रमोशन की वेकेंसी आई और मुझसे कहा गया कि तुम अप्लाई करो. मैंने कर दिया. मुझे जॉब ऑफर किया गया तो मैंने कहा कि मैं छह महीना ब्रेक लूंगा. दफ्तर नहीं माना. मैंने पैंतालिस दिन का ब्रेक लिया जिसके बाद अप्रैल में दोबारा दफ्तर आया.

अप्रैल २०१५ से मेरा एक साल का प्रमोशन पीरियड शुरू हुआ जिस दौरान ट्विटर पर दो दो बार दफ्तर को ट्रेंड में लाने से लेकर इंस्टाग्राम शुरु करने, फेसबुक चैट, फेसबुक लाइव जैसे तमाम काम करने के बावजूद अगले साल मेरा प्रमोशन एक साल के बाद खत्म कर दिया गया.

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इतना ही नहीं फीडबैक देखे जाने से पहले एक फालतू के मुद्दे पर बुलाकर मुझे इतना बेइज्जत किया गया कि मैं रोने लगा था. उस मीटिंग में तीन अधिकारी थे जिनमें से दो की नौकरी बाद में खत्म हो गई. बॉस के अलावा बाकी दोनों ने भी कूटनीतिक चुप्पी बनाए रखी लेकिन उन्हें नहीं पता था कि दफ्तर का अंग्रेज मैनेजर कांच के दरवाजे से मुझे रोते हुए देख चुकी थी.

उन्होंने मुझे बाद में बुलाया और कहा कि तुम्हारे साथ पिछले दो साल से जो हो रहा है तुम शिकायत क्यों नहीं करते. मैंने बताया कि पिछले मैनेजर की भी शिकायत की थी जिसके बाद मुझे ब्रांड कर दिया गया शिकायती सुशील के तौर पर और उसका खामियाजा भुगत रहा हूं. अब शिकायत नहीं करूंगा. तो अंग्रेज महिला मैनेजर ने कहा कि मुझसे अनौपचारिक रूप से बताओ क्या क्या हुआ है. मैंने सारी बात रख दी और कहा कि मेरी बात पर भरोसा न करें और अपने तईं पता ज़रूर करें.

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मुझे नहीं पता उन्होंने क्या किया और क्या नहीं किया. लेकिन इस घटना के दो महीने बाद संपादक जी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

ऐसा नहीं है कि मैं अकेला ही उनसे पीड़ित था. मैं नाम नहीं लूंगा लेकिन जैसा उन्होंने मेरे साथ किया ऐसा वो दफ्तर के कई और लोगों के साथ कर चुके थे अलग अलग तरीके से. मेरे साथ समस्या अधिक थी क्योंकि मेरे बारे में पिछले मैनेजर के समय से प्रसिद्ध हो चुका था कि मैं विद्रोही हूं.

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इन दो सालों में कम से कम तीन या चार बार मैं अपने दफ्तर की कांच की खिड़की पर खड़ा खड़ा कूद जाने को उद्धत हुआ था. मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था. मुझे लगता था कि मर जाऊंगा तो हर दिन की बेइज्जती से निजात मिेलेगी. मुझे दफ्तर में कई लोगों ने कई बार खिड़की पर चुपचाप खड़े देखा होगा. मैंने किसी को नहीं बताया कि ऐसे मौके नाजुक होते थे.

कई दिन ऐसे होते थे जब मैं अपने कंप्यूटर की स्क्रीन पर कोई वाक्य लगा कर उसे घूरता रहता था चुपचाप और चाहता था कि कोई आकर बोले- अरे सुशील चलो चाय पीने लेकिन कोई आता नहीं था.

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मैंने आज तक अपने दफ्तर के उन दिनों में जो झेला है वो किसी से शेयर नहीं किया. जो जानते थे खुद से….वो जानते थे………शिकायतें, लड़ाईयां, गालियां मैं सब बतियाा था जब कभी कुछ लोग चाय पीने आते थे बाहर लेकिन मैंने कभी किसी को नहीं बताया कि मैं डिप्रेशन की दवाएं खा रहा हूं. करीब एक महीना. माइल्ड डिप्रेशन. डरता भी था कि बताऊंगा तो क्या पता नौकरी से निकाल दिया जाए.

दो बार बुलेट चलाते चलाते सोचता जा रहा था यही सब और एक्सीडेंट होते होते बचा. बुलेट साइड कर के ये भी ख्याल किया है कि एक्सीडेंट हो तो मर जाऊं. बचूं नहीं.

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आज जब लोग बकवास कर रहे हैं तो मुझे लगा कि ये बताना चाहिए. मैंने जीवन में बहुत पॉजिटिव काम किया है और बहुत पॉजिटिव आदमी हूं मैं लेकिन कई बार परिस्थितियां और ऐसे संपादक आपको मौत के कगार पर खड़ा कर देते हैं.

अब सोचता हूं. मर जाता तो क्या होता. एक चिट्ठी लिख देता. फलां जी मेरे मौत के जिम्मेदार हैं. होता कुछ नहीं. मै मर जाता. अपने पीछे अपने बूढ़े मां बाप को छोड़कर. लेकिन ये अब सोचता हूं. तब लगता था कि मर जाऊंगा तो बहुत शांति मिलेगी. कोई बेइज्जत तो नहीं करेगा.

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पोस्ट स्क्रिप्ट- मुझे पता है मेरे अभिन्न मित्र कहेंगे कि ये बहुत पर्सलन बात है, शेयर नहीं करना चाहिए फेसबुक पर. लोग इसे हल्के में लेंगे. लेकिन मैं ये लिख रहा हूं ताकि लोगों को पता चले कि आदमी कैसे झेलता है. कोई मदद नहीं करता है. खुद ही करना होता है सब.

मुझे आर्ट से प्रेम इसलिए भी है कि रंगों ने मुझे सच में बचाया है.

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पत्रकार जे सुशील उर्फ सुशील झा की एफबी वॉल से.

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