अमित चतुर्वेदी-
साल था 1994, जगह थी यूनाइटेड नेशन जिनेवा का ऑफिस और मौका था यूनाइटेड नेशन मानवाधिकार संगठन में पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ कश्मीर में अत्याचार और मानवाधिकार उल्लंघन के प्रस्ताव पर बहस का।
उस समय भारत के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव थे, सोवियत संघ का विघटन हुए 3 साल ही बीते थे। भारत की इकॉनमी अभी ओपन हुए भी 3 ही साल हुए थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत एक नए मजबूत दोस्त की तलाश में था, क्योंकि रूस अब पहले जैसी ताक़त नही रह गया था, और अमेरिका पाकिस्तान के ज्यादा करीब था।
विदेशों में भारत की स्थिति बकहुत मजबूत नहीं थी, उसी साल नरसिम्हा राव अमेरिका गए थे, और तब अमेरिका के राष्ट्रपति ने उन्हें मिलने का समय भी नहीं दिया था, खैर उसकी चर्चा फिर कभी, अभी तो चर्चा पाकिस्तान के उस प्रस्ताव की जो वो UN में भारत के ख़िलाफ़ लाया था।
इस्लामिक देशों का संगठन भी पाकिस्तान के स्वाभाविक पक्ष में था, और बेनज़ीर भुट्टो लोकप्रियता के पूरे चरम पर थीं, देश के अलावा विदेशों में भी।
ऐसे समय मे भारत का घबराना स्वाभाविक था, क्योंकि अगर ये प्रस्ताव पारित हो जाता, तो कश्मीर UN की चर्चा का परमानेंट मुद्दा बन जाता और फिर शायद कश्मीर पर जनमत संग्रह की पाकिस्तान की मांग भी पूरी हो जाती।
ऐसे समय में नरसिम्हाराव यानी कि भारत की राजनीति के उस UNSUNG हीरो की समझदारी काम आई, जिसे इतिहास में कभी वो स्थान नहीं मिला जो वो डिज़र्व करते थे। उन्होंने उस समय के विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी से मदद मांगी। वो समय ऐसा नहीं था जब विपक्ष का नेता अंतरराष्ट्रीय मंच पर जाकर भारत को बदनाम करता, उस समय विपक्ष के नेता को ये समझ थी कि राजनैतिक प्रतिस्पर्धा सिर्फ देश के अंदर चुनावों तक होती है, देश हित मे सब एक खड़े होते थे।
नरसिम्हाराव ने यूनाइटेड नेशन में भेजे जाने के लिए जो टीम चुनी वो उनकी बुद्धिमत्ता और समझ का अद्भुत नमूना थी। उन्होंने ईरान में लंबे समय तक राजदूत रहे हामिद अंसारी (पूर्व उपराष्ट्रपति), सलमान खुर्शीद, E अहमद और फारूक अब्दुल्ला के साथ साथ अटल बिहारी वाजपेयी को प्रतिनिधिमंडल का नेता बनाकर भेजा।
इतने सारे मुस्लिम और विपक्ष का नेता जब मुस्लिम बहुल कश्मीर में मुसलमानों के दमन के पाकिस्तानी आरोप को नकारने पहुंचे तो उस प्रस्ताव की आधी हवा तो वहीं निकल गई।
कहानी तो मिनिट टू मिनिट रोमांचक है बिल्कुल किसी भारत पाकिस्तान के वन डे इंटरनेशनल मैच की तरह, लेकिन इतना समझिये कि जब अधिवेशन शुरू हुआ था तो पाकिस्तान अपनी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त था लेकिन दूसरे दिन जब हामिद अंसारी ने ईरान में अपने प्रभाव का इसतेमाल करते हुए ईरान को अपने पक्ष में कर लिया तो बेनजीर भुट्टो अचानक खुद जिनेवा पहुंच गईं।
लेकिन सलमान खुर्शीद, अटल बिहारी वाजपेयी और फारूक अब्दुल्ला की दलीलों के चलते पाकिस्तान अपनी निश्चित हार देखकर अपना प्रस्ताव वापस लेने मजबूर हो गया।
उत्साहित भारतीय प्रतिनिधिमंडल जो कार फ़ोन अपने साथ लेकर अंदर गया था, उसने अपने प्रधानमंत्री को जीत का संदेश 4 शब्दों में सुनाया, और वो शब्द थे “Batsman refused to play”
जिनेवा से लौटने पर इस प्रतिनिधिमंडल का किसी विश्व विजेता टीम की तरह स्वागत किया गया।
एक वो समय था जब देशहित में विपक्ष का नेता सरकार के साथ न केवल खड़ा होता था बल्कि उसकी टीम का कप्तान बनकर मैच जिताकर लाता था, और तब प्रधानमंत्री भी विपक्ष के नेता को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी देने में संकोच नहीं करते थे, और न ही विपक्षी पार्टी से मुक्त भारत की कल्पना करते थे।