यह बात 1998 की है. हंस में मैंने पी साईनाथ की किताब “everybody loves a good drought” और वाल्टर फर्नाडिंस और विजय परांजपे की किताब Rehabilitation Policy and Law in India का रिव्यू किया था. पी साईनाथ की किताब पर मेरे रिव्यू को राजेंद्र जी ने एक लेख के तौर पर छापा था और उसका शीर्षक दिया था “अल्लाह सूखा दे बाढ़ दे”. उसके कुछ दिन बाद हंस के दफ्तर में बैठा था तो राजेंद्र जी ने कहा कि गौरीनाथ से मिल लो वो तुमसे एक किताब का रिव्यू कराना चाहता है. फिर उन्होंने गौरीनाथ जी को बुलाया और मेरा परिचय करा दिया. गौरीनाथ जी भले इंसान हैं. बातचीत के बाद उन्होंने मुझे वो किताब दी, जिसकी समीक्षा कराना चाहते थे. उसका नाम था “जब नदी बंधी”.
उन दिनों बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. और जो आज का बिहार है उसे उत्तरी बिहार कहते थे और झारखंड को दक्षिणी बिहार. अगर किसी को यह समझना है कि बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ और झारखंड के सूखे की क्या वजह है तो उसे वह किताब पढ़नी चाहिए. उस किताब को पढ़ने से नदियों को लेकर, पर्यावरण को लेकर एक नयी समझ विकसित होती है. पता चलता है कि बांध का खेल कितना भयावह है और नदियों की जमीन पर हमने किस तरह अतिक्रमण किया है. यह भी पता चलेगा कि पश्चिम के देश हमारे पास क्यों बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को लेकर आते हैं और उन परियोजनाओं की आड़ में किस तरह लूट-खसोट चलती है.
आज पटना में या फिर बनारस में जो कुछ भी हो रहा है उसकी एक बड़ी वजह विकास के नाम पर की गई अराजकता है. हमने विकास परियोजनाओं के नाम पर सिर्फ इंसानों से, खासकर आदिवासियों से उनकी जमीन नहीं छीनी है, हमने नदी से उसकी जमीन भी छीन ली है. हमने ताल के इलाकों में आबादी बसा दी है. वो इलाके जहां अत्यधिक बारिश होने पर पानी रुकता था उस पर मिट्टी डालकर लोगों को बसा दिया है. हमने सारी परती पाट दी है. यही नहीं नदी अपनी जमीन वापस नहीं मांगे इसके लिए हमने तटबंध बना कर उसका पानी दूसरी तरफ आने से रोक दिया है. इसका बड़ा नुकसान होता है. नदी की तरफ से पानी गांव या शहर में नहीं आएगा तो अत्यधिक बारिश होने की सूरत में गांव और शहर का पानी भी नदी की तरफ आसानी से नहीं जाएगा. मतलब निकासी व्यवस्था से अधिक मात्रा में बारिश हुई या फिर नदियों का जल स्तर बढ़ा तो पानी बीच में ही ठहर जाएगा. पटना में अत्यधिक बारिश होने की वजह से पानी ठहर गया है. और बारिश होने पर इलाका भरता जा रहा है. यह प्राकृतिक बाढ़ नहीं है बल्कि कृत्रिम बाढ़ है.
वो किताब गौरीनाथ जी ने मुझसे वापस मांग ली थी. उनके पास भी एक ही प्रति थी. और चूंकि यह वाकया आज से 20-21 साल पुराना है इसलिए उस किताब का बहुत सारा कंटेंट मुझे याद नहीं है. और पुराने लेखों को सहेज कर रखने की अपनी आदत नहीं रही इसलिए वह रिव्यू भी मेरे पास नहीं है. वरना मैं आज आपको बांधों को नाम पर चले ऐतिहासिक घोटाले पर मैं विस्तार से लिखता. आपको कहीं मिले तो पढ़िएगा जरूर.
उस किताब में दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियां दर्ज थीं. वो पंक्तियां मेरे जेहन में आज भी दर्ज हैं.
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती है
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से ओट में जा जाकर बतियाती तो है
हमारी नदियां चीख-चीख कर कह रही हैं कि उन्हें मुक्त किया जाए. वो लगातार कह रही हैं कि उनकी जमीन और उनके स्रोतों पर अतिक्रमण नहीं हो. लेकिन हम हैं कि मान ही नहीं रहे. हम विकास का कीर्तिमान स्थापित करना चाहते हैं. बहुत बड़ी-बड़ी परियोजना चलाना चाहते हैं. नतीजा हमारे सामने है. और यकीन मानिये यह कुछ भी नहीं है. आने वाला समय और भयावह होने जा रहा है. जब प्रकृति निर्मम होकर अपना हिसाब चुकाने पर आएगी तो इंसान बहुत असहाय दिखेगा.
दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह की एफबी वॉल से।
मनीष दुबे
October 5, 2019 at 9:07 pm
बेहतरीन आर्टिकल लिखा आपने लोगों ने पढ़ा भी होगा यकीनन! कोई भी चीज बात पढ़ देख सुन कर भूल जाने का फलसफा नया चलन में है! मानव अपने खात्मे को स्वयं में आमंत्रित कर आंखें बंद किये है, ठीक उसी मुहावरे की तरह जिसमे “शेर आने पर खरगोश अपनी आंखें बंद करके संकट टल गया महसूसता है” पर होता ये उसका मुगालता है. सच पूछिए तो अभी भी वक्त है इंसान के जाग्रत होने का लेकिन इतर इसके जगना कोई नही चाहता! सभी मायावी सुख को भोगने के मुगालते में हैं. आपको पुनः बधाई इस एक बेहतरीन आर्टिकल के लिए!
जै जै