पंकज चतुर्वेदी-
आज सुप्रसिद्ध आलोचक, कवि एवं ‘आलोचना’ के संपादक आशुतोष कुमार {Ashutosh Kumar} का जन्मदिन है। उनके लिए बहुत बधाई, अभिनंदन और शुभकामना!
आशुतोष जी की आलोचनात्मक अंतर्दृष्टियों से सम्पन्न रचनात्मक गद्य का कोई सानी नहीं। मिसाल के तौर पर प्रस्तुत है उनका एक नोट :
राम और राजनीति
–आशुतोष कुमार
रामकथा के हज़ारों संस्करण हैं। लेकिन एक बात सब में एक जैसी है। अयोध्या के सिंहासन का स्वैच्छिक परित्याग और बनवास-ग्रहण। जनमानस में राम की अमिट प्रतिष्ठा की असली वजह यही है।
दशरथ किसी भी सूरत में अपना फैसला जबरन लागू नहीं करवा सकते थे। राम ने ख़ुद तय किया कि जिस सिंहासन पर उनका नाम लिखा था, उसे त्याग कर चौदह साल के लिए वन चले जाएंगे।
लोक हृदय में इस त्याग की बड़ी महिमा है।यह निरी पितृभक्ति नहीं थी। अवतारवादी लोग कुछ भी कहें।
यह एक आदर्श था कि राजसत्ता मनुष्यता से बड़ी नहीं हो सकती। रामकथा राजसत्ता के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाले मानव जाति के इतिहास में एक विप्लवकारी हस्तक्षेप करती है। यह एक ऐसा मौलिक मूल्य-परिवर्तन है, जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं। महाभारत के कृष्ण इसे दुहरा नहीं पाए।
सत्ता परित्याग के इस आदर्श के कारण ही जनता ने राम को अपने हृदय में स्थान दिया। शम्बूक और सीता के साथ हुए अन्याय के बावज़ूद।
यह भी अजब है कि इस दुहरे अन्याय को भी कभी भुलाया नहीं गया। उसी जनमानस द्वारा इन्हें क्षमा भी नहीं किया गया। इन्हें राम के चरित्र की दुर्बलता के रूप में याद रखा गया। लेकिन उस त्याग और बनवास की महिमा बनी रही।
क्योंकि जिस सत्ता के लिए अपनी मनुष्यता की हत्या करने में लोगों को रंच मात्र हिचक नहीं होती, उसे अपनी मनुष्यता की रक्षा के लिए ठोकर मार देने का आदर्श कथाओं के संसार में भी दुर्लभ है।
बीजेपी की समस्या यह है कि रामकथा के इस मर्म का उसे जरा भी इल्म नहीं है। उसी राजसत्ता के लिए उसी अयोध्या में मंदिर के नाम पर ऐसा वितंडा खड़ा करना जनमानस में पैठे राम के आदर्श का पूर्ण विलोम है। स्वयं रामकथा इस वितंडा के विरुद्ध खड़ी है।
मुझे डर है कि इस लिखन्त से राम को अवतार मानने वाले तो कुपित होंगे ही, रामकथा को पाखंड समझने वाले भी आगबबूला हो उठेंगे। लेकिन मैं भी आपकी तरह कथाओं के ब्रह्मांड का एक नागरिक हूँ, जिसे पता है कि मानव जाति की किसी भी कथा को न सुनने या न पढ़ने का विकल्प नहीं दिया गया है। कथाएं मानव जाति के गुणसूत्र हैं।