Badal Saroj-
गुजरात के मुंद्रा पोर्ट (बंदरगाह) से 3000 किलो हेरोइन पकड़ी गई है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमत 21 हज़ार करोड़ रुपए है। मुंद्रा पोर्ट को “हम दो हमारे दो” में से एक ब्रह्मा जी के परमप्रिय गौतम अडानी चलाते हैं। इससे पहले कि इस हेरोइन का लोया हो जाए और सघन जांच में इसे काली उड़द की दाल साबित कर दिया जाए, इस जब्ती में निहित आशंकाओं और खतरों को समझने की कोशिश करना ठीक रहेगा।
इतनी भारी तादाद में इस अतिपरिष्कृत नशीले पदार्थ का पकड़ा जाना भारत के खिलाफ लड़े जा रहे नशा युद्द का सबूत है और इसीलिए यह जब्ती इतनी ही संख्या में एके-47 बंदूकों के पकड़े जाने से ज्यादा चिंताजनक है।
यह सिर्फ बानगी है। धंधा बहुत बड़ा है। डक्कन क्रॉनिकल की खबर के अनुसार 3 टन की जब्ती से पहले 72 हजार करोड़ रुपये की 24 टन मार्फीन पहले ही पहुंच चुकी थी। विजयवाड़ा से गुजरात तक गई। टेलकम पाउडर कहकर खपाते थे भाई लोग।
क्या नशा युद्ध नाम की भी कोई चीज होती है? होती है, भारत की तरह दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक चीन दो दो अफीम युद्ध झेल चुका है और इसका भारी खामियाजा भुगत चुका है।
पहला अफीम युद्ध (1839-1842) ईस्ट इंडिया कम्पनी को आगे रखकर ब्रिटेन ने लड़ा और पूरे चीन को अफीम का लती बना दिया। दुनिया के इस सबसे बड़े देश को इस युद्ध में हारने की कीमत हॉंगकॉंग को ब्रिटेन के सुपुर्द करने और अपने पांच बंदरगाहों पर अंग्रेजों को व्यापार करने और चीन के कानूनों से आजाद रहकर रहने की खुली छूट देने और ब्रिटेन को व्यापार के मामले में मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने के रूप में चुकानी पड़ी। हुआ यह कि पहले जो अफीम व्यापार छुपाछुपी चलता था – अब धड़ल्ले से खुले आम चलने लगा।
दूसरा अफीम युद्ध 1856-1860 में हुआ। इस बार अंग्रेजों और फ्रांसीसियों दोनों ने हमला बोला और 11 बंदरगाह और छीन लिए। मगर चीन का असली नुक्सान इन बंदरगाहों से ज्यादा था। बार बार प्रतिबंधों के बावजूद अफीम के नशैलचियों की संख्या बढ़ते जाने का जब कारण तलाशा गया तो पता चला कि प्रशासन, फौज और विद्यार्थियों का काफी बड़ा हिस्सा अफीमची बन चुका है। परिणाम यह निकला कि मानवता को समृद्ध करने वाली अनेक खोजों में अव्वल रहने वाला चीन औद्योगिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास के मामले में सदियों पीछे रहने की स्थिति में आ गया। (1948 की कम्युनिस्ट क्रान्ति ने इस स्थिति को तोड़ा – मगर यहां विषय यह नहीं है।)
अब तनिक भारत में नशे के विस्तार की भौगोलिकी पर निगाह डालिये। सबसे ज्यादा पीड़ित प्रभावित पंजाब है, उसके बाद इसने हरियाणा, राजस्थान के एक हिस्से और पश्चिमी उत्तरप्रदेश की तरफ अपने पाँव बढाए हैं। इनमे से पंजाब और राजस्थान का प्रभावित हिस्सा एकदम सीमा से सटा है। यही वे इलाके भी हैं जहां से भारतीय सुरक्षा बलों का काफी बड़ा हिस्सा जाता है। इसके बाद इसका टार्गेटेड प्रोफाइल देखिये। भारत की मेधा, कौशल और विशेषज्ञता के केंद्र, उच्चतम शिक्षण संस्थानों पर इनकी निगाह है। यह संयोग नहीं हैं – यह देश के संवेदनशील केंद्रों की शिनाख्त कर उन्हें निशाने पर लिया जाना है। इसे अपने आप होना मान लेना सदाशयता का नहीं मूर्खता का सबूत होगा।
अब एक बार फिर चीन के खिलाफ लड़े गए अफीम युद्धों की तरफ लौटते हैं। चीन को अफीम पहुंचाने के काम में पहले युद्ध के समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी थी उसके बाद सीधे ब्रिटिश हुकूमत आ गयी । इन्हे और इनके जरिये अफीम भेजने वाले भारत के मुख्य सप्लायर्स कौन थे ? टाटा और बिड़ला !!
इन दोनों ने अपनी आरम्भिक पूँजी इसी अफीम के धंधे से कमाई थी जिसकी दम पर एक ने नागपुर में कपड़ा मिल खोली और अहसान चुकाने के लिए उसका नाम महारानी के नाम पर रखा ; द एम्प्रेस मिल। दूसरे ने इसी कमाई से कलकत्ता में केशोराम कॉटन मिल खरीदी और ग्वालियर में जयाजी राव कॉटन मिल की नींव रखी।
चीन में अफीम भेजने वाली टाटा एंड कंपनी के मालिक थे आर डी टाटा – रतन जी दादाभाई टाटा – जो जे आर डी टाटा के पिता थे।
दूसरे थे बलदेव दास बिड़ला जो आधुनिक बिड़ला उद्योग घराने के पितामह घनश्याम दास बिड़ला के पिता थे। होने को तो जी डी बिड़ला तीन पीढ़ियों से अफीम के धंधे में थे। उनके और स्टील किंग लक्ष्मी मित्तल के बाबा उस जमाने के सबसे बड़े मारवाड़ी अफीम व्यापारी ताराचंद घनश्यामदास के पार्टनर हुआ करते थे।
मध्यप्रदेश के नीमच में स्थित केंद्र सरकार की ओपियम एंड एल्कोलाइड फैक्ट्री के निजीकरण का विरोध करने की वजह से नौकरी गँवाने वाले जागरूक सामाजिक कार्यकर्ता और श्रमिक संगठन सीटू के राज्य सचिव शैलेन्द्र सिंह ठाकुर बताते हैं ; “ये हेरोइन, स्मैक और ब्राउन शुगर सब चलताऊ नाम है। असली नाम है मार्फीन, जो अफीम को प्रोसेस करने के बाद पहले एल्कोलाइड के रूप में बनता है। 120 किलो अफीम से 40 किलोग्राम मार्फीन बनती है। इस हिसाब से 3000 किलो मार्फीन बहुत ही विराट मात्रा है। “
अमरीकी कब्जे में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान एक बड़े अफीम उत्पादक के रूप में उभरा। न औरत के बुर्के की साइज और उसकी पढ़ाई से बेहोश हो जाने वाले तालिबानी कट्टरपंथियों को इस धंधे से कोई परहेज था ना अमरीका को ही कोई गुरेज था।
जिन्होंने सत्तर के दशक का सीआईए और पेंटागन का प्रोजेक्ट ब्रह्मपुत्र पढ़ा है वे जानते हैं कि भारत में आतंरिक विघटन, विग्रह और फूट फैलाने के साथ नशा युद्ध भी उनका एक जरिया था। फूटपरस्तों के साथ अमरीकी गलबहियाँ सबके सामने हैं – बाकी आगे आगे देखिये होता है क्या। इसलिए अडानी के मुंद्रा बंदरगाह पर इतनी भारी जब्ती सिर्फ नारकोटिक्स विभाग की चिंता का विषय नहीं होना चाहिए । इतिहास के अनुभव और साम्राज्यवाद के धतकरम बताते है कि यह उससे कहीं ज्यादा आगे की बात है।
पूँजी मुनाफे के लिए क्या क्या कर सकती है यह अपने समय के मजदूर नेता टी जे डनिंग के हवाले से कार्ल मार्क्स अपनी किताब पूंजी (दास कैपिटल) में दर्ज कर गए हैं कि ; “जैसे जैसे मुनाफ़ा बढ़ता जाता है पूंजी की हवस और ताक़त बढ़ती जाती है। 10% के लिए यह कहीं भी चली जाती है ; 20% मुनाफ़ा हो तो इसके आल्हाद का ठिकाना नहीं रहता,; 50% के लिए यह कोई भी दुस्साहस कर सकती है ; 100% मुनाफ़े के लिए मानवता के सारे नियम क़ायदे कुचल डालने को तैयार हो जाती है और 300% मुनाफ़े के लिए तो ये कोई भी अपराध ऐसा नहीं जिसे करने को तैयार ना हो जाए, कोई भी जोख़िम उठाने से नहीं चूकती भले इसके मालिक को फांसी ही क्यों ना हो जाए। अगर भूकम्प और भुखमरी से मुनाफ़ा बढ़ता हो तो ये खुशी से उन्हें आने देगी। तस्करी और गुलामो का व्यापार इसकी मिसालें हैं।”
हमारे देश में मुनाफे के लिए क्या क्या किया जा रहा है इसे गिनाने की फिलहाल आवश्यकता नहीं है।
-कामरेड बादल सरोज
वामपंथी चिंतक