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सुख-दुख

बद्री विशाल के बाद अब अजय शंकर तिवारी को भी काल के क्रूर हाथों ने छीन लिया!

विजय शंकर पांडेय-

आज सुबह फेसबुक खोलने पर Lokenath Tiwary जी के पोस्ट से पता चला कि हावड़ा के पत्रकार गोपाल प्रसाद यादव नहीं रहे. दोपहर होते होते अमर उजाला वाराणसी के साथी/सहकर्मी रहे अजय शंकर तिवारी और वरिष्ठ पत्रकार सुकांत नागार्जुन जी (जनकवि नागार्जुन जी के सुपुत्र) के निधन की सूचना मिली.

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ढाई तीन दशक पूर्व बंगाल में रहने के दौरान गोपाल जी का साथ रहा. तब न मोबाइल था और न ही फेसबुक. इसलिए हमारे बीच इसके बाद कोई सम्पर्क नहीं रहा. मगर उनका जिक्र होते ही कई पुरानी यादें चहलकदमी करने लगी. तब वे बतौर पत्रकार हावड़ा की नुमाइंदगी करते थे और मैं भी. काफी उर्जावान और उत्साही युवा थे. स्थानीय मुद्दों पर जबरदस्त पकड़ थी. फिलवक्त वे बक्सर स्थित अपने पैतृक निवास पर रह रहे थे.

नब्बे के दशक में वरिष्ठ पत्रकार सुकांत नागार्जुन जी (जनकवि नागार्जुन जी के सुपुत्र) से कई बार मुलाकात हुई थी. उनका स्नेह मिला, मगर अब वे स्मृतियों में ही अपनी मौजूदगी दर्ज करवाएंगे. तब मैं ‘कलयुग’ नाम से एक लघु पत्रिका निकाला करता था, सुकांत जी एक वरिष्ठ के नाते हमारा उत्साहवर्धन करते.

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अजय शंकर जी तो अमर उजाला वाराणसी में पहले से मौजूद थे. 2001 में मैं जालंधर से वाराणसी पहुंचा. काम काज के दौरान सहकर्मी के तौर पर हम दोनों मिले, मगर वक्त के साथ तार कहीं गहरे तक जुड़ते गए. वे मुझे अपना बड़ा भाई मानते थे. दलील यह थी कि मेरे हमनाम उनके सहोदर बड़े भाई हैं. सबसे बड़ी बात वे बड़े अधिकार के साथ भाई बंदी की धौंस जमाते थे, बिल्कुल दांत काटी रोटी वाली दोस्ती. इतने पर भला कौन तंगदिल होगा जो उन्हें भूल पाए. इसी टीम के वरिष्ठ साथी रहे Badri Vishal जी को खोने का गम अभी हम भूले ही नहीं कि ऊपरवाले ने निर्दयता से एक और साथी को छीन लिया. क्या वह इतना भी निष्ठुर हो सकता है? आज ही गम से उबरने और श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से ‘बद्री के दोस्त’ एक ग्रुप की नींव पड़ी है और आज ही इस ग्रुप और इस दुनिया से अजय भाई एग्जिट कर गए. कल्पना कीजिए यह कितनी हृदयविदारक घटना है.

थोड़ी देर पहले Mriegank Shekhar जी ने कोविड 19 के चलते जान गंवाने वाले भारतीय पत्रकारों की लम्बी फेहरिस्त भेजी है, जिसे देख कर रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं. आखिर कौन सी दुश्मनी है कोविड 19 की पत्रकारों संग. पत्रकार कई मोर्चे पर एक साथ जूझ रहे हैं. मीडिया की माली हालत किसी से छिपी नहीं है, इसका सीधा असर मीडियाकर्मियों की पगार/दिहाड़ी पर पड़ा है. 50+ वाले इन तमाम पत्रकारों पर जिम्मेदारियों का पहाड़ था. ज्यादातर के बच्चे छोटे छोटे हैं, कैसे उनकी नैया पार लगेगी? इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि ज्यादातर पत्रकारों के हाथ सामाजिक सुरक्षा के नाम पर शून्य बट्टे सन्नाटा है. पत्रकार नेताओं और राजनीतिक नेताओं के चरित्र में कोई खास फर्क नहीं होता है, इसलिए पत्रकार संगठनों से भी कम से कम मुझ जैसे पत्रकार कोई खास उम्मीद नहीं पालते.

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वैसे भी सोशल मीडिया, विशेष तौर पर फेसबुक और व्हाट्स ऐप अब डराने लगे हैं. पत्रकारिता के वायरस से पीड़ित होने के चलते पत्रकार खबरों से दूर रह नहीं सकते. और लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं कि झेलना भारी पड़ रहा है. इतना तो तय है कि लम्हों की खता की सजा भुगतने के लिए यह सदी अभिशप्त है. हम निराला को पढ़कर और घर के बुजुर्गों की स्मृतियों के जरिए महामारी की वीभत्सता का अनुमान लगाया करते थे. कानपुर में पत्रकारिता के दौरान सेंट्रल यूपी में भारी तादाद में विचित्र बुखार से लोगों के मरने की खबरों से दो चार हुए थे. मगर हालात इस कदर अनियंत्रित हो जाएंगे इसकी तो उम्मीद भी नहीं थी. अब तो अस्पतालों ने भी आम लोगों को नाउम्मीद कर दिया है. बल्कि अस्पताल का जिक्र होते ही लोग पसोपेश में पड़ जा रहे हैं.

कुछ तो रहम करो ऊपरवाले, इतना भी अनर्थ मत करो…. वैसे जो बचेंगे, न भूलेंगे, न माफ कर पाएंगे…

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सुकांत नागार्जुन जी और अजय शंकर तिवारी जी की तस्वीर (Ajay Chaturvedi जी के वाल से)

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