-संजय कुमार-
बिहार में लोकनीति-सीएसडीएस के ओपिनियन पोल पर सवाल ही सवाल!
‘लोकनीति-सीएसडीएस’ का जो ओपिनियन पोल ‘आजतक न्यूज चैनल’ ने अपने चारण-भाट एंकरों के साथ दिखाया गया है वो दरअसल हवा बनाने और ईवीएम में पड़ने वाले वोटों को मैनेज करने की साजिश का ही हिस्सा हो सकते हैं। दरअसल किसी ओपिनियन पोल के मायने हाथी के दांत जैसे ही होते हैं। यानी खाने के दांत और, दिखाने के दांत और। दरअसल लोकनीति-सीएसडीएस ने अपने ओपिनियन पोल में परस्पर-विरोधी बातें की हैं। एक तरफ तो वो तेजस्वी यादव की लोकप्रियता में अप्रत्याशित उछाल और नीतीश कुमार की लोकप्रियता में आई भारी गिरावट का बखान करते हैं वहीं सीटों के मामले में असली खेल यानी आंकड़ों में बाजीगीरी कर डालते हैं।
ओपिनियन पोल को विश्वसनीय बताने के लिए दिल्ली से गोदी मीडिया से बाबस्ता दो कथित स्टार एंकरों को पटना भेजा जाता है और बड़े तामझाम से किए प्रोग्राम में पहले तेजस्वी की लोकप्रियता का खूब बखान किया जाता है। बीजेपी के बड़े नेताओं को मंच प्रदान कर पहले उन्हें रुआंसा किया जाता है, ताकि मंच पर विराजमान विपक्ष के प्रतिनिधि ओपिनियन पोल को विश्वसनीय बताएं और अंत में बताया जाता है कि एनडीए को 133-143, महागठबंधन को 88-98, एलजेपी को 2-6 और बाकियों को 6-10 सीट मिलने का अनुमान है। अब विपक्ष नतीजों पर सवाल खड़े करता है तो एंकर समेत एनडीए के सभी गेस्ट विपक्ष पर एकसाथ टूट पड़ते हैं। मानो सबकुछ ‘स्क्रिप्टेड’ हो रहा हो, पहले से तय हो।
ओपिनियन पोल में बताया गया कि नीतीश कुमार को 31 फीसदी मतदाता मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं, वहीं तेजस्वी यादव को 27 फीसदी, चिराग पासवान को 5 फीसदी, सुशील मोदी को 4 फीसदी और लालू यादव को 3 फीसदी मतदाता बतौर मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। सब मिलकार 70 फीसदी वोटरों की पसंद ही सामने आती है। लोकनीति-सीएसडीएस अपने ओपिनियन पोल में ये नहीं बताते कि बाकी के बचे 30 फीसदी वोटर किसे मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं? ओपिनियन पोल में असली पेंच इसी 30 फीसदी को समझने की है। जाहिर है कि ये 30 फीसदी वोटर अगर नीतीश के साथ नहीं हैं तो तेजस्वी के साथ हो सकते हैं और बतौर मुख्यमंत्री तेजस्वी के लिए पसंद का आंकड़ा 57 फीसदी तक पहुंच सकता है। जिन्हें बिहार में बदलाव की नई बयार के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है।
बिहार चुनाव पर लोकनीति-CSDS के ओपिनियम पोल के फर्जीवाड़े को समझने के लिए जरूरी है कि इनका ‘डाइसेक्शन’ यानी इसकी चीरफाड़ की जाए। आंकड़ों में बाजीगरी से पर्दा उठाया जाए। वो भी तब, जब बिहार में नीतीश-बीजेपी सरकार के मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ हाय-हाय और मुर्दाबाद के नारे लग रहे हों, प्रधानमंत्री मोदीजी की ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं होने वाली हों और विकास और रोजगार के मुद्दे पर नीतीश सरकार की हवा टाइट हो चुकी हो, तो इस तरह के ओपिनियन पोल के मायने और बढ़ जाते हैं। क्योंकि ये पार्टी विशेष या फिलहाल कह लीजिए बिहार में एनडीए के पक्ष में हवा बनाने या हवा का रूख मोड़ने के कुत्सित इरादे से जल्दबाजी में किए गए लगते हैं। जिनमें ‘स्टटिस्टिक्स’ यानी सांख्यिकी के सारे नियमों की धज्जियां उड़ा दी गईं हैं। ताकि मतदाताओं को आसानी से बेवकूफ बनाया जा सके।
आइए अब लोकनीति-CSDS के ओपिनियम पोल के फर्जीवाड़े और आंकड़ों में बाजीगरी की परत-दर-परत खोलते हैं। बिहार की कुल आबादी करीब 12 करोड़ है और कुल वोटरों की तादाद है 7 करोड़ 29 लाख से कुछ ज्यादा। जिनमें 3.85 करोड़ पुरुष और 3.44 करोड़ महिला मतदाता हैं। अब गौर कीजिए। लोकनीति-CSDS का जो ओपिनियन पोल आजतक पर दिखाया गया है उसका ‘सैंपल साइज’ यानी उसमें वोटरों की भागीदारी 3731 है। यानी सर्वे में 2239 पुरुष और 1492 महिला वोटरों से बातचीत की गई है। इनमें गांवों में रहने वाले 3358 और शहर में रहने वाले 373 मतदाता शामिल हैं। इसी तरह कुल 243 विधानसभा सीटों में से महज 37 विधानसभा सीटों पर ही सर्वे किए गए हैं जो कुल सीटों का 15 फीसदी से भी कम है। अगर हम मतदान केंद्रों यानी बूथों की बात करें तो 1 लाख 6 हजार 526 बूथों में से महज 148 बूथों यानी 0.14 फीसदी बूथों पर ही रायशुमारी की गई है। और जिन 148 बूथों का जहां सर्वे किया गया है वहां भी करीब 1000 वोटरों में से 25 वोटरों से ही बात की गई है।
अब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि इतने छोटे से सैंपल साइज से और सतही सर्वे के आधार पर लोकनीति-सीएसडीएस अपने नतीजे कैसे निकाल रहा है और आजतक चैनल बड़े तामझाम के साथ उसे पूरे बिहार की राय बता रहा है। जबकि लोकनीति-सीएसडीएस ने करीब 7 करोड़ 29 लाख से ज्यादा मतदाताओं में से महज 0.005 फीसदी यानी 3731 वोटरों से ही बात की है। अगर हम आयुवर्ग के हिसाब से भी गौर करें तो इस सर्वे में 18-25 साल उम्र के 522, 26-35 साल उम्र के 1082, 36-45 साल के 560, 46-55 साल के 560 और 56 से ऊपर उम्र वाले 634 वोटरों की राय को ही शामिल किया है। बिहार के चुनावों में एक अहम फैक्टर जाति के हिसाब से भी देखें तो ये पोल भरोसा पैदा नहीं करते। इस पोल में 16 फीसदी सवर्ण यानी 597 वोटर, 51 फीसदी ओबीसी यानी 1903 वोटर, 18 फीसदी एससी यानी 671 वोटर और 14 फीसदी मुस्लिम यानी 522 मतदाताओं की राय जानने की कोशिश की गई है।
अब एक ऐसा चुनावी सर्वे जिसका सैंपल साइज कुल मतदाताओं के 1 फीसदी के 100 वें हिस्से से भी छोटा हो, जिसमें 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 206 विधानसभा क्षेत्रों को शामिल ही नहीं किया गया हो, जिनमें 1 लाख 6 हजार 526 बूथों में से महज 148 बूथों पर रायशुमारी की गई हो, पूरे बिहार के 7 करोड़ 29 लाख से ज्यादा वोटरों में से गांव में रहने वाले 3358 और शहर में रहने वाले महज 373 लोगों से बात की गई हो, उसे कितना विश्वसनीय माना जा सकता है। जाहिर सी बात है कि जब किसी पार्टी के विरोध में आंधी चल रही तो तुरत-फुरत में ऐसे चुनावी सर्वे प्रायोजित किए जाते हैं और जबरन अपने पक्ष में हवा बनाने की कोशिश की जाती है। और इस काम में सबसे विश्वसनीय या कह लीजिए नामचीन लोगों की सेवाएं ली जाती है, ताकि चुनाव बाद या फिर चुनाव के दौरान की जाने वाली दूसरी गड़बड़ियों को सही ठहराने के लिए तर्क गढ़े जा सके कि देखो ओपिनियन पोल ने तो यही नतीजे बताए थे। लेकिन इतिहास गवाह है कि वोटरों को भरमाने की ये कोशिश ज्यादातर मौकों पर नाकाम ही साबित हुई है। फिलहाल तो राजनीतिक और वैचारिक रूप से चुस्त-दुरुस्त बिहार के सजग और जागरूक वोटर आजतक और लोकनीति-सीएसडीएस की मिलीभगत से एनडीए के लिए रची गई प्रायोजित नौटंकी पर हंस ही सकते हैं।
लेखक संजय कुमार टीवीआई, आजतक, इंडिया टीवी, राज्यसभा टीवी से जुड़े रहे हैं। फिलहाल स्वराज एक्सप्रेस न्यूज चैनल में कार्यकारी संपादक हैं।