सुभाष सिंह सुमन-
ऐसा कहा जाता है कि मांग होती है तो आपूर्ति स्वत: होने लगती है. बाजार की भाषा में- डिमांड के हिसाब से ही प्रोडक्ट/सर्विस की सप्लाई तय होती है. यह बुनियादी अवधारणा है, लेकिन ब्रह्मसत्य नहीं.
अलग-अलग इकोनॉमी को देखिएगा तो उनके उत्थान से लेकर पतन के कारण अलग-अलग मिलेंगे. यह व्यक्तियों के संदर्भ में भी लागू होता है. जिस तरह से लोगों के फिंगरप्रिंट या गंध अलग होते हैं, वैसे ही हर केस अपने आप में यूनिक स्टडी है. एक ही तरह की दो घटनाओं में बहुत साम्यता हो सकती है, लेकिन पूरी तरह से समानता संभव नहीं है. सारी व्यवस्थाएं इसी तरह जटिल हैं. इस जटिलता से होने वाली घबराहट से बचने के लिए इंसान सामान्यीकरण की राह अपनाता है, नियम बनाता है. कई घटनाओं में जो साम्य दिख जाता है, उसे नियम कह दिया जाता है और उससे इधर-उधर का सब अपवाद. तो अर्थशास्त्र में भी ऐसे ही एक बुनियादी नियम बना लिया गया कि मांग के हिसाब से उत्पाद या सेवाएं बनती हैं.
अभी केस स्टडी में चीन की अर्थव्यवस्था को रखते हैं. चीन ने जिस तरह से तरक्की की है, उसने कई स्थापित नियमों-सिद्धांतों को तहस-नहस किया है. आधुनिक अर्थतंत्र में ऐसी तरक्की न कभी देखी गई और आगे दिखने की उम्मीद बहुत कम है. किसी भी ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी ने 3 दशक तक डबल डिजिट में ग्रोथ रेट रिकॉर्ड नहीं किया है. यह कितना मुश्किल टारगेट है, उसे ऐसे समझिए कि आज तक भारत किसी भी एक साल में 10 पर्सेंट के ग्रोथ रेट को छू नहीं पाया है. चीन ने 3 दशक तक 10 पर्सेंट ग्रोथ रेट का औसत निकाल दिया, मतलब कई साल ऐसे आए, जब चीन की जीडीपी 10 पर्सेंट से भी ज्यादा बढ़ी.
यह असंभव काम हुआ क्योंकि चीन ने लिबरल इकोनॉमी को अपनाने के बाद अर्थशास्त्र के स्थापित नियमों को तोड़ना शुरू कर दिया. जैसे फिजिक्स के लिए न्यूटन के नियम हैं, वैसे ही डिमांड-सप्लाई इकोनॉमी के लिए, और चीन सबसे पहले ब्रह्मसत्य मानी जाती रही इसी अवधारणा से बाहर निकला. देंग श्याओपिंग ने चीन को नया मंत्र दिया. नया मंत्र- प्रोडक्ट/सर्विस बनाओ और उसे ऐसे डंप करो कि बाजार में हर आने-जाने वाले को वही दिखे, डिमांड खुद क्रिएट हो जाएगी. इस फॉर्मूले ने गजब काम किया. कुछ ऐसा काम कि जापान को बहुत भारी पड़ गया.
ये बात ऐसे समझने में लगेगा कि क्या फालतू बातें हो रही हैं. एक उदाहरण से मामला आसान हो जाएगा. किंडर जॉय देखे हैं कभी? दुकान वाले उसे काउंटर पर ही सजाकर रखने लगे हैं. एक बच्चा, जिसने पहले कभी उसका नाम नहीं सुना, न कभी देखा और न कभी किंडर जॉय का स्वाद चखा, वो भी लेने के लिए फैल जाता है. इस प्रवृत्ति को कहते हैं इम्पल्स बाइंग. इम्पल्स बाइंग वाली बच्चा प्रवृत्ति कमोबेश हर किसी में कुछ कम या कुछ ज्यादा मात्रा में बची रह जाती है. देंग श्याओपिंग ने इसी प्रवृत्ति को समझ लिया था. अभी भी ऐसा होता है लोगों के साथ कि बाजार जाएंगे रुमाल लेने और धोती खरीदकर आ जाएंगे. चीन ने रुमाल खोजने बाजार जाने वाली दुनिया को तरह-तरह की धोतियां बेची. भारत से लेकर अमेरिका तक बाजार में सिर्फ चीन के प्रोडक्ट छा गए. जिस बाजार में सबसे आगे जापान था, चीन न सिर्फ नंबर वन बना, बल्कि उसने पूरा कंपटीशन ही खत्म कर दिया.
ब्रह्मांड में चलने वाला एकमात्र नियम है कि कोई नियम नहीं चलता है. जैसे देंग श्याओपिंग ने सदियों की स्थापित मान्यता को दक्खिन दिखा दिया, उसी चीन में अब देंग श्याओपिंग के मंत्र को दक्खिन दिखाए जाने की बारी आ गई. अब मेरा बुखार चाय पीने से उतर जाता है, हर किसी के साथ ऐसा नहीं हो सकता न? देंग श्याओपिंग के बाद चीन ने यही भूल कर दी. शी जिनपिंग वाले चीन का इसमें बड़ा रोल है. जिनपिंग को जो चीन मिला, वह एकदम अलग चीन था. एशिया का बब्बर शेर. ऐसा ड्रैगन, जिसके न सिर्फ पर निकल आए थे, बल्कि वह आग भी उगलने लगा था. तो जिनपिंग भाई निकल लिए अमेरिका बनने. अमेरिकी अर्थव्यवस्था की बुनियाद बनी रियल एस्टेट पर. जिनपिंग ने अपने रियल एस्टेट पर देंग श्याओपिंग वाला फॉर्मूला लागू कर दिया.
घोस्ट सिटी वाले चीन के संकट पर मैंने मई 2016 में लिखा था. उस समय मैंने चीन पर लगातार लिखा था और दो पोस्ट घोस्ट सिटी को दिए थे. उसमें मैंने कहा था कि चीन की इकोनॉमी के लिए यह सबसे बड़ा संकट बनने वाला है. कइयों को बात उस समय नहीं पची थी. कुछ बड़े-बुजुर्गों ने समझाया था- कल के लौंडे भविष्य बांचने चले हैं. खैर… मैं तब जो लिख रहा था, वो गट फीलिंग पर बेस्ड था. चीन के साथ समस्या है कि उसके आंकड़े कभी भी सही नहीं होते हैं. तो चीन की इकोनॉमी को प्रोसेस करने में बहुत कुछ खुद से ऊपर-नीचे करना पड़ जाता है. मेरे हिसाब से यह महज संयोग है कि मैंने जहां ऊपर-नीचे किया, लगभग सारा अनुमान सही जगह लगा.
चीन में घोस्ट सिटी (मुझे हिन्दी में मुर्दा शहर कहना ज्यादा सटीक लगता है) का संकट कितना बड़ा है, इसका अंदाजा लगाने के लिए दुनिया भर के कई पत्रकार/अर्थशास्त्री सालों से डेटा जुटाने में लगे हुए हैं. कइयों ने खतरनाक रिस्क भी उठाए. अभी मामला ऐसे खुला है कि चीन के महान इंटरनेट फायरवॉल के जाल से एक वीडियो बाहर आ गया. वीडियो एक सरकारी कार्यक्रम का है और उसमें चीन के सांख्यिकी विभाग के प्रमुख ‘ही केंग’ रियल एस्टेट संकट पर आंकड़े बता रहे हैं. उनके हिसाब से चीन ने इतने शहर और घर बना दिए, जिनमें 3 अरब लोग रह सकते हैं. चीन की आबादी है करीब 1.4 अरब और यह पीक है. मने यहां से आबादी नीचे की दिशा पकड़ने वाली है. अब इतने घर खरीदे कौन? शहर के शहर वीरान पड़े हैं. चीन ने रेगिस्तानों में कई शहर बसा दिया है. इसकी ग्रैविटी कितनी गंभीर है, उसका अंदाजा इस बात से लगाइये कि चीन के पास पेरिस से लेकर बर्लिन तक की कॉपी है. चाइनीज पेरिस में भी एफिल टावर बना हुआ है. एक शहर में दुनिया का सबसे बड़ा एयरपोर्ट, दुनिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी… सब है.
जब बन रहा था, तब चीन के नीति-नियंताओं ने क्या सोचा होगा, वही जानें. हो सकता है बीस साल पहले जनसंख्या का प्रोजेक्शन गलत लगा बैठे हों, या इकोनॉमी के संतृप्त होने की स्थिति में सिंगापुर के रियल एस्टेट मॉडल को प्लान-बी में रखे हों, ठीक-ठीक क्या और कैसे हुआ, नहीं बताया जा सकता है, लेकिन यह साफ हो चुका है कि संकट भारी है. सरकार ने शहर बनाने में रियल एस्टेट कंपनियों को खुले हाथ से लोन दिलाया. शहर बन गए, लेकिन बस नहीं पाए. अब रियल एस्टेट कंपनियों का गुब्बारा फूटने लग गया. चीन की सरकार के संभाले रियल एस्टेट संभल नहीं रहा है. इसे डीप से समझने का मन हो तो Evergrande के बारे में पढ़ सकते हैं. अकेले इस संकट ने 2020 के बाद चीन को संभलने नहीं दिया है.
चीन के मुर्दा शहरों की तस्वीरें देखना चाहें तो गूगल पर देख सकते हैं. ये वाली गेटी की है.