इकबालिया बयान – सन्दर्भ – प्रधानमंत्री से स्मिता प्रकाश का इंटरव्यू… मुझे दो बार फिक्स्ड इंटरव्यू करने पड़े हैं. तब राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बने एक हफ्ता ही हुआ था. लालू प्रसाद जेल में थे. राबड़ी जी निहायत घरेलू महिला थीं. कुछ भी बोल नहीं सकती थीं. पत्रकारों से मिलती नहीं थीं. मुख्यमंत्री निवास में पत्रकारों के प्रवेश पर पाबन्दी थी. काबिलियत की चर्चा पूरे देश में थी. मैं TVI में था. दिल्ली ऑफिस ने निर्देश दिया कि किसी भी तरह राबड़ी जी का इंटरव्यू करना है, सबसे पहले, चाहे जो हो जाए.
मैंने काफी कोशिश की लेकिन काम असंभव लग रहा था. कोई सुनवाई नहीं. दिल्ली से मेरे सीनियर्स ने भी कोशिश की. अंततः तय हुआ कि मैं जगदानंदजी से मिलूँ और उनकी शर्तों पर ही इंटरव्यू करूं. जगदानंद जी ने मुझे पाँच सवाल और उन सभी के जवाब लिख कर मुझे दिए. सख्त ताकीद के साथ इससे अलग कोई सवाल नहीं पूछना है. उत्तर राबड़ी जी को समझा देने हैं और इंटरव्यू कर लेना है. मुख्यमंत्री आवास में राबड़ी जी से मिलाने के पहले उनके भाई साधू यादव और OSD महावीर प्रसाद ने जगदानंद जी के लिखे प्रश्नों और उत्तरों को कई बार पढ़ा. फिर मुझे ताकीद की कि अगर आपने कुछ भी इधर उधर पूछा या दिखाया तो आगे फिर समझ लीजिये. कैमरामैन को साधू ने हड़काया.
खैर, जब हम इंटरव्यू करने बैठे तो राबड़ी जी के बाईं ओर महावीर, दाहिने साधू बैठे और मीसा उनके करीब, लेकिन कैमरे की फ्रेम से बाहर, बैठ गईं. मुझे फिर चेताया गया कि फ्रेम में सिर्फ राबड़ी जी को दिखाना है.
इंटरव्यू शुरू हुआ. मैं कैमरा ऑन करके प्रश्न पूछता, फिर ऑफ करा कर पहले महावीर प्रसाद, फिर साधू और अंत में मीसा राबड़ी जी को रिहर्सल कराते. दो चार बार के बाद जब वे छोटा सा उत्तर ठीक से बोल लेतीं, तब कैमरा ऑन कर उत्तर रिकार्ड किया जाता.
इस तरह दसियों बार कैमरा ऑन ऑफ़ करके चार सवालों के जवाब तो रिकार्ड हो गए. लेकिन पांचवे सवाल का जवाब जगदानंद जी की हिंदी में था. प्रश्न था कि लालू जी की अनुपस्थिति में आपको क्या कोई दिक्कत हो रही है? जगदानंद जी ने उत्तर लिखा था, “साम्प्रदायिक शक्तियां मेरा विरोध कर रही हैं.”
महावीर, साधू और मीसा की कई कोशिशों के बाद भी राबड़ी जी “साम्प्रदायिक शक्तियां” नहीं बोल सकीं. अंत में मैंने कहा कि आप सिर्फ इतना बोल दीजिये कि “विरोधी लोग हमारा विरोध कर रहे हैं.”
अब राहत की सांस लेकर हम कैमरा समेटने लगे. तब राबड़ी जी ने कहा कि हम एक बात और कहना चाहते हैं. मैंने कहा हाँ जरूर कहिये.
वे बोलीं, साहेब (लालू जी) पर आरोप लागल त ऊ तो इस्तीफ़ा दे देलन. अब शरद यादव पर लागल बा, त ऊहो इस्तीफ़ा देस. (लालू जी पर आरोप लगा तो उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया अब शरद भी दें). उन्हीं दिनों शरद यादव पर गंभीर आरोप लगे थे. वस्तुतः राबड़ी जी की अपनी एक मौलिक प्रतिक्रिया यही थी. मैं रिकार्ड करना चाहता था लेकिन साधू, मीसा और महावीर तीनों ने उन्हें और कुछ भी बोलने से एकदम मना कर दिया. बतौर मुख्यमंत्री राबड़ी जी का पहला इंटरव्यू संपन्न हुआ – TVI की कथित उपलब्धि!
(जगदानंद जी के हाथ का लिखा वह प्रश्नोत्तर आज भी मेरे पास है. वह पन्ना पत्रकारीय मूल्य निभा पाने में मेरी विफलता का प्रमाणपत्र है. लेकिन क्या वह विफलता परिस्थितिजन्य विकल्पहीनता के कारण थी या मेरी इच्छा से थी?)
दूसरा फिक्स्ड मामला हुआ काठमांडू में.
राज परिवार की हत्या का कोई चश्मदीद बयान कहीं नहीं आया था. एक नेपाली पत्रकार ने मुझे गुपचुप बुलाया कि अकेले आर्मी हॉस्पिटल आ जाइए. एक ख़ास स्टोरी मिलेगी. वहां पहुंचा तो पता चला कि राज परिवार के एक दामाद मेजर शाही घटना के समय वहां मौजूद थे. उन्हें भी हाथ में गोली लगी है. वे प्रेस को बताएँगे पहला चश्मदीद बयान. शर्त वही कि उनसे कोई सवाल नहीं करना है.
प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ नेपाली और विदेशी मीडिया के पत्रकार थे. भारतीय मीडिया को नहीं बुलाया गया था. मैं दो कारणों से घुस सका – अ. ETV को तब नेपाल में कोई नहीं जानता था और इसलिए उसे भी विदेशी समझा गया, और ब. नेपाली पत्रकार मित्र ने मेरी मदद की. बहरहाल कई सवाल मेजर शाही के बयान पर खड़े हो सकते थे लेकिन किसी को कुछ भी पूछने नहीं दिया गया.
इन दोनों घटनाओं में इंटरव्यू या प्रेस कांफ्रेंस कवर करने के अलावा दूसरा विकल्प यही था कि कवर नहीं किया जाए, बहिष्कार किया जाए. लेकिन क्या वह उचित होता?
प्रधानमंत्री मोदी के इंटरव्यू के लिए स्मिता प्रकाश की काफी आलोचना हो रही है. विवाद और बढ़ा जब राहुल गाँधी ने “प्लिअब्ल” शब्द का इस्तेमाल किया. लेकिन राजनैतिक विवाद में पत्रकारिता की मजबूरी से जुड़े तथ्य नज़रंदाज़ कर दिए गए हैं. कोई दो मत नहीं कि स्मिता का इंटरव्यू पत्रकारिता के मानदंडों से बेहद असंतोषजनक था लेकिन यह भी सोचा जाना चाहिए कि इस प्रधानमंत्री ने चार साल में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की. सिर्फ एक प्रायोजित बातचीत की प्रसून जोशी के साथ. ऐसे में अगर किसी भी पत्रकार को प्रधानमंत्री से बिना कोई प्रतिप्रश्न पूछे इंटरव्यू करने का मौका मिले तो उसे क्या करना चाहिए? क्या मना कर देना चाहिए? अगर आप को ये मौका मिलता तो आप क्या करते? शायद अधिकांश ईमानदार सिद्धांतवादी पत्रकार मना कर देंगे. लेकिन ये भी तो देखिये कि स्मिता के इंटरव्यू का नतीजा क्या निकला? प्रधानमन्त्री की और फ़जीहत ही हुई. कई बार कितने भी लिहाफ डाल दीजिये, बगैर प्रति-प्रश्न किये भी सच सामने आ जाता है.
मुझे लगता है पूरे पत्रकार समुदाय के सामने यह विकल्पहीनता बढ़ती जा रही है. मोदी ही नहीं, सोनिया गाँधी और अन्य बहुत से छोटे बड़े नेता अफसर, दिल्ली से लेकर कस्बे तक, अपने चुनिन्दा पत्रकारों से चुनिन्दा सवालों पर ही बात करते हैं. इस समस्या का एक ही निदान है. पत्रकार नेता और अफसर केन्द्रित पत्रकारिता न करे. वे जन सरोकार की ऐसी ख़बरें सामने लाये जो नेता अफसर को बोलने के लिए मजबूर कर दें. लेकिन ऐसा कर पाने में बाधक हैं मीडिया संस्थान. वे पत्रकार को बाध्य करते हैं कि वह नेताजी की बेटी के बारातियों के लिए बनी सब्जी और मिठाई दिखाए.
मैं स्मिता को नहीं जानता. अपने इकबालिया बयान के बाद मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि जो फिक्स्ड परिस्थितियां मेरे सामने थीं उनमें मैंने गलत किया या सही. तब शायद मैं स्मिता के गलत या सही होने के बारे में अपनी राय बना सकूँ.
वह भारत में निजी टीवी न्यूज चैनलों का एकदम शुरूआती दौर था. सबसे पहले राबड़ी का इंटरव्यू करने और जनता के सामने उनको किसी भी तरह पेश कर देने का लोभ था. उत्सुकता भी थी. अभी जिस तरह स्मिता पर एकतरफा विवाद चल रहा है और हर कोई पत्रकारिता के लिए शहीद हो जाने की नकली बहादुरी दिखा रहा है, उसमे मुझे ये घटना याद आ गई. इसलिए लिखा.
अगर पत्रकारिता के मानदंड सचमुच निभाने हैं तो जरा एक नाम बताइये ऐसे संस्थान का या पत्रकार का. .. जिसने काली सड़क पर लाल ईंट से लिख सकने का हौसला हो, वही पत्रकारिता कर सकता है, बाकी हम आप सब नौकरी परिवार जिन्दा रहने की शर्तों पर समझौते करते हैं. अब ये समझौते सिर्फ अस्तित्व रक्षा के लिए करते हैं या और आगे बढ़ कर ऐश ऐयाशी के लिए – यही, बस यही, आपके ईमान की ताकत तय करती है. आप किसी संस्थान में ही काम कर सकतेहैं, बियाबान में नहीं. संस्थान और सीनियर्स जन सरोकारों के लिए कितनी जगह देते हैं आपको, बस इसी पर हम अपना स्टैंड तय करते हैं किह्मे कहाँ काम करना है और कहाँ नहीं.
लेखक गुंजन सिन्हा कई अखबारों और न्यूज चैनलों में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार हैं.