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सुख-दुख

कामदेव और भगवा : धम्मपद के कुछ निजी मायने!

Chandra Bhushan-

धम्मपद के पहले खंड ‘यमकवग्ग’ में ज्यादातर जगहों पर एक ही बात अलग-अलग मौकों पर परस्पर विपरीत छोरों से कही गई है। बैर और कलह के शमन पर बुद्ध की सलाह सुन लेने के बाद यहां हम दो तरह के लोगों के बारे में उनकी राय जानेंगे। एक वे जो सिर्फ सुखद स्थितियों में प्रसन्न रह पाते हैं, दूसरे वे जो खराब स्थितियों में भी चैन से रहना जानते हैं।

सातवें और आठवें श्लोक के इस जोड़े में पहले के बारे में पता है कि वह सेतव्य नगर में चूलकाल और महाकाल से कहा गया था। यह जगह कहां थी, ये लोग कौन हैं या क्या हैं, कुछ नहीं पता। दोनों श्लोक इस प्रकार हैं-

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  1. सुभानुपस्सिं विहरंतं इंद्रियेसु असंवुतं।
    भोजनम्हि अमत्तंत्रुं कुसीतं हीनवीरियं।
    तं वे पसहति मारो वातो रुक्खम्व दुब्बलं।।
  2. असुभानुपस्सिं विहरंतं इंद्रियेसु सुसंवुतं।
    भोजनम्हि च मत्तंत्रुं सद्धं आरद्धवीरियं।
    तं वे नप्पसहति मारो वातो सेलम्व पब्बतं।।

इनमें पहले श्लोक का अर्थ है- शुभ देख कर ही विहार करने वाले, इंद्रियों में असंयत, खाने में मात्रा का ध्यान न रखने वाले, आलसी और आगे बढ़कर कुछ न करने वाले व्यक्ति को मार ऐसे ढहा देता है, जैसे तूफान कमजोर पेड़ को। और दूसरे का- अशुभ स्थिति में भी वाहार करने वाले, इंद्रियों में सुसंयत, भोजन में मात्रा का ध्यान रखने वाले, सक्रिय और उद्यमी व्यक्ति को मार उसी तरह नहीं डिगा पाता, जैसे चट्टानी पर्वत का तूफान कुछ नहीं करता।

‘मार’ शब्द यहां दोनों श्लोकों में आया हुआ है। संस्कृत और अवधी से लेकर हिंदी तक में इसका उपयोग ‘कामदेव’ के अर्थ में होता आया है। कुपित शिव द्वारा भस्म कर दिए जाने के बाद अशरीरी रूप में मौजूद एक सार्वभौम देवता।

काम-भाव को लेकर एक चिढ़ सारे धर्मों में दिखाई देती है और शुरुआती बौद्ध धर्म के साथ भी ऐसा ही है। बुद्ध के यहां इसका जिक्र ‘नमुचि’ के रूप में भी आता है। यानी वह, जिससे कोई बच नहीं सकता। संभवतः यह साधना के शुरुआती वर्षों में काम भावना से उनके निरंतर संघर्ष का प्रतीक है।

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बाद की हिंदू धारणा से फर्क समझना हो तो बुद्ध के यहां एक तो ‘मार’ कभी देवता जैसी सुंदर शक्ल नहीं अपनाता। दूसरे, इसका जिक्र वहां केवल काम-वृत्ति तक सीमित नहीं है। वहां यह साधक का फोकस तोड़ने वाली चीज की तरह, सोच-समझ कर, इरादा बांधकर जुटे रहने वाले किसी सजीव कारक की तरह आता है और अपनी शक्लें बदलता रहता है।
पुराने भित्तिचित्रों में उसकी शक्ल भयानक राक्षस जैसी है। लेकिन बाद के बुधिज्म में, खासकर गुह्यसमाज और वज्रयान में मैथुन सिद्धि की एक शर्त बन जाता है और यह विलेन बौद्ध कृतियों से गायब हो जाता है।

धम्मपद के अगले दोनों श्लोकों का संबंध काषाय (भगवा) वस्त्र से है, जिसकी छवि इधर कुछ समय से एक सियासी रंग जैसी हो गई है। इस रंग को गृहत्यागियों से जोड़ने की शुरुआत संभवतः बुद्ध ने ही की थी। वैदिक परंपरा में तब तक संन्यास जैसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं आई थी, लिहाजा वहां तो नहीं लेकिन बुद्ध के समय में मौजूद कुछ और गृहत्यागी परंपराओं में इस रंग की ऐसी प्रतिष्ठा रही हो सकती है।

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वैसे, ‘काषाय’ का शाब्दिक अर्थ भगवा नहीं, कसैला या मटमैला है और सफेद कपड़े को हर्रै के पानी में डुबोकर उसे ऐसा बना दिया जाता था। इन श्लोकों में बुद्ध बता रहे हैं कि किसके लिए काषाय वस्त्र पहनना उचित है और कौन इसका दुरुपयोग कर रहा होता है।

दोनों श्लोक उन्होंने श्रावस्ती के जेतवन में अपने चचेरे भाई देवदत्त से कहे हैं, जो कमोबेश उन्हीं के रास्ते पर निकला हुआ है। लेकिन बाद में दोनों के मतभेद बढ़ गए और श्रावस्ती में ही अपने सामने आई एक बड़ी समस्या के लिए, खासकर खुद पर लगे एक चारित्रिक आरोप के लिए उन्होंने देवदत्त को जिम्मेदार ठहराया। आगे चलकर जातक कथाओं के संकलन में देवदत्त का जिक्र लगभग स्थायी रूप से एक क्रूर खलनायक की तरह आता है।

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  1. अनिक्कसावो कासावं यो वत्थं परिदहेस्सति।
    अपेतो दमसच्चेन न सो कासावमरहति।।
  2. यो च वंतकसावस्स सीलेसु सुसमाहितो।
    उपेदो दमसच्चेन स वे कावमरहति।।

इनमें पहले श्लोक का अर्थ है- चित्त-मलों (मन की गंदगी) को हटाए बिना जो काषाय वस्त्र धारण करता है, संयम और सत्य से हीन वह व्यक्ति काषाय वस्त्र का अधिकारी नहीं है। और दूसरे का यह कि- जिसने चित्त-मलों का त्याग कर दिया है, शील पर प्रतिष्ठित है, संयम और सत्य से युक्त है, वही काषाय वस्त्र का अधिकारी है।

Anil Singh
मार का शास्त्रीय अर्थ हो भी हो, उसे बुद्ध ने मृत्यु की शक्ति के रूप में ही इस्तेमाल किया है। मैंने बुद्ध को जितना समझा है, उससे तो यही लगता है। बुद्ध के लिए जीवन और मृत्यु की शक्तियों का संघर्ष अनवरत है। जैसे, विकार मृत्यु की तरफ ले जाते हैं तो वे मार के साथी हैं, जबकि सदाचार जीवन को बढ़ाते हैं तो वे जीवन की शक्तियों के संगी हैं।

Chandra Bhushan
जो सुंदर स्त्रियां बुद्ध की साधना तोड़ने के लिए उनको बार बार घेर लेती हैं- प्राचीन भित्ति-चित्रकारों ने यह अनुमान उनकी कही हुई बातों के आधार पर ही लगाया है- उन्हें ‘मार’ की बेटियां कहा गया है। वैसे भी बुद्ध की प्रारंभिक चिंताओं में मृत्यु काफी नीचे है, जबकि नाकामी का भय काफी ऊपर जान पड़ता है।

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Narayan Singh
इटली के फिल्मकार बरतोलुस्सी की फिल्म The Little Buddha में मार को संबोधित बुद्ध का वक्तव्य है ‘तुम केवल भ्रम हो।‌ पृथ्वी साक्षी है कि तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं।’
वस्तुत: बरतोलुस्सी ने मार को ‘ईगो’ के रूप में देखा है।

Chandra Bhushan
मैंने नहीं देखी है, लेकिन देखूंगा। बरतोलूची एक चिंतक फिल्मकार हैं, लेकिन मेरी समझ से, इगो यानी अहं बुद्ध के लिए सबसे छोटी समस्या है। फ्रायड की ही जुबान में बात करनी हो तो बुद्धत्व जितने बड़े सुपर-इगो तक पहुंचने के रास्ते में वे इड यानी पशु-स्व से ही अपना सबसे बड़ा युद्ध लड़ते हैं।

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