अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर चुकी है. बाजार से ग्राहक ऐसे गायब हैं जैसे गधे के सिर से सींग. यकीन न आए तो अपने पहचान के दो चार लोगों के फोन घनघना लीजिए. व्यापारी मायूस है और बाजार में उमंग और उत्साह कहीं नजर नहीं आ रहा. कंज्यूमर गुड्स, एफएमसीजी जैसे क्षेत्र जो सदाबहार कहलाते हैं वहाँ की हालत भी खराब होने लगी है. रियल एस्टेट कारोबार पर नोटबन्दी ओर जीएसटी की ऐसी मार पड़ी हैं कि वह तो पिछले तीन साल से उबर नहीं पाया है.
लोगों के पास पैसा है लेकिन लोगों की खर्च करने की इच्छा समाप्त हो चुकी है. यह स्थिति सभी ओर देखी जा रही है. इस बार तो टूरिस्ट सीजन भी पिट गया है.
मोदी 2014 ने जिन तीन महारथियों को देश की अर्थव्यवस्था की कमान सौंपी थी, एक एक करके वह तीनों देश से रफूचक्कर हो गए. 2017 में नीति आयोग के उपाध्यक्ष रहे अरविंद पनगढ़िया ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. अरविंद सुब्रमण्यम ने जुलाई 2018 में मुख्य आर्थिक सलाहकार पद से इस्तीफा दे दिया था. कुछ महीने पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने भी मोदी जी को नमस्ते कह दिया.
दिसंबर 2018 में अरविंद सुब्रमण्यम ने एक किताब ‘द चैलेंजेज ऑफ द मोदी-जेटली इकोनॉमी’ के विमोचन के मौके पर कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी लागू किये जाने से देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार मंद हुई है. जीएसटी की रुपरेखा और बेहतर तरीके से तैयार की जा सकती थी. वह जीएसटी के लिए सभी तीन दर के पक्ष में दिखे. अर्थव्यवस्था के बारे में उन्होंने कहा, “हमें कुछ समय की मंदी के लिए खुद को तैयार रखना होगा. मैं कई कारणों से यह बात कह रहा हूं. सबसे पहले तो वित्तीय प्रणाली दबाव में है. वित्तीय परिस्थितियां बहुत कठिन हैं. ये त्वरित वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं है”.
आज मई के महीने में हमें यह आर्थिक मंदी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं. यहाँ तक कि ऑटो इंडस्ट्री भी इस मंदी की चपेट में आ गई है. यह उद्योग 3.70 करोड़ लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है, देश की जी.डी.पी. में 7.5 प्रतिशत और विनिर्माण जी.डी.पी. में 49 प्रतिशत का योगदान देता है. इस उद्योग के लिए नवम्बर महीने को फेस्टिवल सीजन माना जाता है. इसी महीने बिक्री सबसे अधिक होती है. इस दौरान भी बिक्री 3 प्रतिशत गिर गई. दोपहिया वाहनों की बिक्री भी कम हुई. मार्च में पांच प्रमुख कंपनियों की बिक्री औसतन 24 प्रतिशत गिर गई. ऑटो इंडस्ट्री के सारे बड़े बड़े दिग्गज पूछ रहे हैं कि यदि भारत की अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत से अधिक बढ़ रही है तो ऑटो उद्योग को इतना नुकसान कैसे पहुंचा रहा है. यह सब संकेत बढ़ती हुई बेरोजगारी को परिलक्षित कर रहे हैं.
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में निर्यात का बहुत महत्व होता है क्योंकि उससे हम विदेशी मुद्रा जेनरेट कर पाते हैं. 2013-14 में भारत का निर्यात 314.88 अरब डॉलर के शीर्ष स्तर पर पहुंच गया था, लेकिन 2015-16 में निर्यात सिर्फ 262.2 अरब डॉलर का हुआ. साल 2017-18 में इसमें थोड़ा सुधार हुआ और आंकड़ा 303.3 अरब डॉलर तक पहुंच गया, हालांकि यह अब भी 2013-14 के स्तर से कम है.
पिछले दिनों ही NSSO ने 2017-18 में बेरोज़गारी की दर 6.1% प्रतिशत आँकी है, जो पिछले 45 साल का सर्वोच्च स्तर है.
निजी निवेश बतलाता हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था को देखने का दूसरों का नजरिया कितना आशावादी है. 2018-19 में निजी निवेश प्रस्ताव सिर्फ 9.5 लाख करोड़ रुपये के हुए, जो कि पिछले 14 साल (2004-05 के बाद) में सबसे कम है. साल 2006-07 से 2010-11 के बीच हर साल औसतन 25 लाख करोड़ रुपये का निजी निवेश हुआ था.
वेतन में हुई बढोत्तरी हमारी क्रय शक्ति को दिखलाती है. 2017-18 में कर्मचारियों को मिलने वाले वेतन में औसतन 8.4 फीसदी की बढ़त हुई है. यह पिछले 8 साल में सबसे कम है. साल 2013-14 में यह 25 फीसदी तक थी.
हर तरह के आर्थिक संकेतों से अब यह साफ लग रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था मोदी राज में दिन ब दिन बेहतर होने के बजाए बदतर ही हुई है और इसका गहरा असर आने वाले 5 सालो में देखने को मिलेगा.