रोहित देवेंद्र-
‘स्कूप’ देखने या उसके बारे में हो रहे किसी किस्म के डिस्कशन में खुद को इन्वॉल्व करने से पहले जरूरी है कि आप अपने आप से भी पूछ लें कि मेनस्ट्रीम मीडिया को लेकर आपकी धारणा क्या है? क्या आप मीडिया में लिखी, कही या बताई गई बात को वेद-उपनिषदों, बाइबिल या कुरान में लिखी गई बातों की तरह पवित्र और अकाट्य मानते हैं? या मीडिया आपके लिए बाकी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की तरह टाइमपास की एक और जगह भर है या कुछ और…

यह इसलिए जरूरी है कि इस पूरी वेब सीरिज की बुनियाद ही मीडिया को लेकर बने हमारे परसेप्शन पर टिकी है। परसेप्शन सिर्फ मीडिया को कंज्यूम करने वाले उपभोक्ताओं का नहीं है खुद उसमें काम करने वाले लोगों का भी है। पत्रकार खुद को या अपने पेशे को किस रुप में देखते हैं, उनका यह देखा जाना ही मीडिया की नैतिकता को तय करता है। फिल्म के एक सीन में एक पत्रकार कहता है कि “एक खराब डॉक्टर अपने गलत डाइगनोज से सिर्फ एक शरीर को मार सकता है। पत्रकार एक गलत रिपोर्टिंग से बहुत बड़े समाज को”।
इसी फिल्म में पत्रकार बिरादरी का एक दूसरा शख्स यह कहता हुआ भी दिखता है कि “अखबार को इतना सीरियस लेने की जरूरत नहीं है। बच्चे इसको बनाकर रॉकेट उड़ाते है। बड़े इसमें लपेटकर बर्गर खा लेते हैं, किसी के लिए भी यह दुनिया या सोसाइटी बदलने वाली चीज नहीं है” मीडिया को लेकर कुछ धारणाएं आपकी भी होंगी। फिल्म इस दौरान आपको भी टटोलती है। इस टटोले जाने के क्रम में यदि आप ईमानदार होते हैं तो महसूस करते हैं कि इस बीच मीडिया ने ऐसा क्या खो दिया जो उसे नहीं खोने देने था।
फिल्म का बैकग्राउंड मुंबई के अंडरवर्ल्ड की दुनिया, मीडिया में उसके कवरेज और पुलिस के साथ मीडिया और अंडरवर्ल्ड के संबंधों का है। फिल्म किसी प्रकार मेटाफर में नहीं उलझती। वह दाऊद इब्राहिम को दाऊद और छोटा राजन को छोटा राजन ही कहती है। फिल्म दिखाती है कि क्राइम कवर करने वाला हर रिपोर्टर इन दोनों से जुड़ी एक्सक्लूसिव खबर चाहता है। इसके लिए पत्रकार अपने सोर्स डेवलप करते हैं। जिसमें ज्यादातर अपराधी ही होते हैं। इस बीच एक पत्रकार की हत्या हो जाती है। इसका कसूर पुलिस एक महिला पत्रकार पर डालती है। आगे की पूरी फिल्म इस बात को दिखाने में खर्च होती है कि कैसे मीडिया सही या गलत का चुनाव करके उस पर अपना स्टैंड लेने के बजाय हर उस चीज को परोसना चाहती है जो लजीज और चटपटा है। जिसे जल्दी से माइक्रोवेव में पकाकर गर्मागर्म परोसा जा सके।
स्कूप निर्देशित करने वाले हंसल मेहता Hansal Mehta की कोशिश यह नहीं है कि वह मीडिया का छोटा, एकतरफा या संकीर्ण दिखाएं। उनकी कोशिश है कि वह मीडिया की कार्यशैली को आपके सामने कच्चे माल की तरह पेश कर दें। यह आपके ऊपर है कि इसे आप सही माने या गलत। किसे कटघरे में खड़ा करें और किसे बरी कर दें। न्याय के किस हिस्से में आप खड़े हों या यह आपकी च्वाइस है। हंसल यह भी चाहते हैं कि अकेले गुनहगार मीडिया ही ना बने। अगर अतीक अहमद की पेशाब की धार या आर्यन खान का ड्रग तस्कर होना मीडिया 24 घंटे दिखाती है तो उसमें कहीं न कहीं आपकी च्वाइस भी शामिल है। आपकी च्वाइस पहले नीचे आईं फिर मीडिया उस तक पहुंचा।
मीडिया के साथ-साथ फिल्म पुलिस की कार्यशैली, खबर लेने- देने के उसके तरीके और सिस्टम के साथ उसके संबंधों पर भी घुसकर रोशनी डालने की कोशिश करती है। महिला कैदियों की जेल में स्थिति, अंदर की दुनिया में उनका नेक्सस भी बहुत ही डिटेल्ड तरीके से यहां दिखाया गया है। ऐसा डिटेल हिंदी सिनेमा में इसके पहले नहीं दिखा है।
अभिनय इस फिल्म का सबसे मजबूत पिलर है। एक दो फिल्मों में कभी बतौर हीरो दिखे हरमन बवेजा एक अधेड़ उम्र के पुलिस अफसर की भूमिका में शानदार काम करते हैं। पहचान में नहीं आता कि यह हरमन हैं। एक सेंसिटिव व्यक्ति और एक अच्छे संपादक की भूमिका जीशान अयूब बहुत सुंदर तरीके से निभाते हैं। मोहित होने जैसा। फिल्म जिस किरदार पर टिकी है उस महिला पत्रकार का रोल करिश्मा तन्ना ने किया है। वह हिस्सा जहां करिश्मा सिर्फ पत्रकार होती हैं उसे वह औसत तरीके से करती हैं लेकिन जेल जाने के बाद के उनके सीन कमाल के हैं। करिश्मा को इसके पहले इतनी लंबी और लेयर्ड भूमिकाएं नहीं मिली थीं। करिश्मा और हरमन का शानदार अभिनय ये बताता है कि सिनेमा वाकई निर्देशक का माध्यम है।
एक आम सिनेमाई दर्शक इस फिल्म के विषय से शायद कनेक्ट ना कर पाएं। सोशल मीडिया पर भी फिल्म की कम चर्चा होना इस बात का सबूत भी है कि फिल्म बहुत सीमित हिस्सों में देखी जा रही है। 6 एपिसोड वाली यह वेब सीरिज हंसल मेहता की पिछली वेब सीरिज स्कैम जितनी आकर्षक और इंगेजिंग नहीं है लेकिन यह स्कैम से ज्यादा जरुरी है। आप मीडिया को तो नहीं बदल सकते पर चैनल या अखबार तो बदल ही सकते हैं…
Anand Kumarनेटफ्लिक्स पर जिग्ना वोरा की किताब “बिहाइंड द बार्स इन भायखला जेल” पर आधारित वेब सीरीज #स्कूप अच्छी बन पड़ी है. छह एपिसोड की यह सीरीज पत्रकारों, खासकर क्राइम और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की आपाधापी में पत्रकारिता की मूल आत्मा की हत्या को बखूबी चित्रित करती है. और भी बहुत कुछ साथ-साथ चलता है.. मुंबई अंडरवर्ल्ड और पुलिस का नेक्सस, प्रोफेशनल जेलसी, प्रबंधन और संपादक का द्वंद्व, पत्रकार संगठनों की हकीकत और एक खोजी पत्रकार की हत्या में एक दूसरी पत्रकार की जेल यात्रा और कानूनी कशमकश और उसकी जेल डायरी.. इस पेशे के लोगों को यह अपने आसपास की कहानी लगेगी.