Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

दगे हुए सांड़ों की दिलचस्प दास्तान : शशि शेखर महोदय के लेखों में थरथराहट काफी होती है…

अनेहस शाश्वत

आज यशवंत सिंह के इस भड़ास बक्से में आप सबके लिए कुछ हास्य का आइटम पेश करूंगा। पेशेवर पत्रकारिता को जब एक तरह से तिलांजलि दी थी तो सोचा था कि इस बाबत कभी कुछ लिखूं पढ़ूंगा नहीं, और न ही इस बाबत किसी से कुछ शिकायत करूंगा। क्योंकि इस पेशे में आने का निर्णय और फिर इसे छोड़ने का निर्णय भी मेरा ही था। इस पेश से जुड़े किसी भी आदमी ने कभी मुझसे यह नहीं कहा कि आओ और न ही यह कहा कि इसे छोड़ दो, लेकिन बीस वर्ष की अवधि कम नहीं होती और इस अवधि में मुझे भी कुछ मजेदार अनुभव हुए। कई साथियों ने कहा कि इस बाबत भी कुछ लिख दो। कड़वे अनुभवों का जिक्र बेकार है क्योंकि वे निरर्थक हैं और एकाध कमीने सम्पादकों के सम्पादनकाल में ही हुए। मजेदार अनुभव काफी हैं जिनमें से कुछ का जिक्र मैं करूंगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

तो साहब मास्टर की औलाद हूं, और परिवार में पुश्तों से लोगों ने या तो वकालत की या फिर सरकारी नौकरी। इसलिए हिन्दी पत्रकारिता के बारे में मेरा ज्ञान शून्य था। उस जमाने में हिन्दी पत्रकारिता एक बंद सा पेशा था। जिसके बारे में आमजन को कुछ खास अनुभव नहीं था, इसलिए फीडबैक लेना सम्भव भी नहीं था। बाहर की दुनिया में जो छनकर आता था वह ये कि सम्पादकगण बहुत विद्वान होते हैं और जुझारू पत्रकार जनहित में जान देने पर आमादा रहते हैं। हालांकि बाद में अनुभव से पता चला कि पत्रकारों-सम्पादकों की दीनदशा आमजन से छिपाने के लिए उनके सामने सायास यह गढ़ी हुई छवि पेश की जाती थी। कम से कम हिंदी पत्रकारिता का यही सच है।

बहरहाल इसी फीडबैक के साथ दैनिक जागरण लखनऊ में तीन चार महीने के अपरेन्टिसशिप के बाद अमर उजाला मेरठ में पक्की नौकरी मिल गयी। जहां तनख्वाह जागरण के 700/-रूपये महीने से कहीं ज्यादा थी। सो लखनऊ का मोह छोड़ मेरठ चला गया। अब नौकरी भी चल रही थी और चीजों को आब्जर्व भी कर रहा था। मुझे लगता था कि अमर उजाला कुल मिलाकर एक ठीक अखबार था। उस पिछड़े इलाके में सामान्य पढ़े लिखे पत्रकारों की मदद से एक अच्छा अखबार निकल रहा था। लेकिन वहां पर भी एक मजेदार प्रहसन रोज होता था। सबसे पहले जब डाक एडीशन का फर्स्ट पेज छपकर बाहर आता था तो डाक इन्चार्ज और सिटी इन्चार्ज कहते थे कि प्रथम पृष्ठ का इन्चार्ज मूर्ख है और उसकी मूर्खता को मालिक पता नहीं क्यों झेल रहे हैं। इसने प्रथम पृष्ठ का सत्यानाश कर दिया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसी तरह डाक एडीशन के लिए प्रथम पृष्ठ प्रभारी और सिटी इन्चार्ज कहते थे कि डाक इन्चार्ज अज्ञानी हैं और मालिक दयावश इसके अज्ञान को बर्दाश्त कर रहे हैं। वर्ना डाक एडीशन को तो इसने कूड़ाघर बना ही रखा है। सिटी एडीशन के लिए डाक और प्रथम पृष्ठ प्रभारी का मानना था कि अल्पज्ञानी और बड़बोले सिटी इन्चार्ज ने सिटी पेजेज को नष्ट कर दिया है। जो मालिक को दिखाई नहीं दे रहा है। अब मैं सोचूं कि यार अखबार तो कुल मिलाकर ठीक ही ठाक है और अगर ये तीनों इसे नष्ट कर रहे हैं तो मालिक कोई एक्शन क्यों नहीं लेता है। वह तो कालांतर में बाद में समझ में आया कि सभी पत्रकारों का मानना होता है कि उनके अलावा बाकी पत्रकार मूर्ख हैं और यह उनका दुर्भाग्य है कि मूर्ख ही अच्छे पदों पर बैठकर संस्थान का सत्यानाश कर रहे हैं।

ऐसे ही मजेदार अनुभवों के बीच दिन कट रहे थे कि मेरे एक भांजे ने कहा मामा मुझे भी पत्रकार बनवा दो। बहरहाल किस्सा कोताह यह कि मैंने उसे एक बड़े अखबार का ग्रामीण संवाददाता बनवा दिया। तीन-चार महीने बाद मुझे वह फिर मिला। मैने पूछा बेटा काम कैसा चल रहा है? उस हंसोड़ बालक ने कहा कि मामा मैने पत्रकारिता छोड़ दी है क्योंकि ग्रामीण पत्रकारिता का मतलब होता है सांड़रूपी पत्रकार को अखबार के नाम से दागकर छोड़ दिया जाता है कि जाओ चरो खाओ, जो मेरे बस का नहीं है। मजे की बात यह कि दो दशक बीते आज भी अखबार हो या टीवी चैनल ग्रामीण इलाकों में पत्रकाररूपी दगे सांड़ ही घूम रहे हैं। हालांकि सच यह भी है कि सारे कष्टों के बावजूद ये दगे सांड़ कभी-कभी बहुत शानदार खबरें देते हैं, जिनका क्रेडिट दफ्तरों में बैठे मोटाये सांड़ उठा ले जाते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

खैर यह सब तो चल ही रहा था अब सम्पादकों के भी मजेदार अनुभव होने लगे थे। सहज, खासे पढ़े लिखे और सामान्य व्यवहार वाले सम्पादक हिन्दी पत्रकारिता में कम ही होते हैं। अधिकांश ‘यूनीक केस’ होते हैं। अशांत और षड्यंत्रकारी माहौल शायद उन्हें ऐसा बना देता हो जब मैं हिंदुस्तान में था तो प्रधान सम्पादक मृणाल पाण्डेय थीं। उनके लेख निहायत प्रांजल भाषा में लिखे जाते थे लेकिन कुल मिलाकर वे उपदेशपरक और निरर्थक होते थे अब भी ऐसा ही है। अब चूंकि वे सम्पादक थीं तो उन्होंने अपने पाठकों को यह बताना भी मुनासिब समझा कि वे पुश्तैनी साहित्यकार हैं। उनकी मां और नानी खासी बड़ी लेखिकायें थीं। अब बेचारे उस समय के हिन्दुस्तान के पाठकों की यह मजबूरी थी कि वे तीनों महान साहित्यकारों के बारे में न चाहते हुए भी उनके वृत्तांत जाने। सो साहब पाठकों ने मजबूरी में ही सही वह सारा वृत्तांत पढ़ा ही होगा।

कुछ पुरखों का पुरुषार्थ और कुछ खासे सम्पन्न बड़ी बहन और बड़े भाई की कृपा मेरे दिन बगैर कुछ खास किये भी बड़े आराम से कटते हैं। ऐसे में टाइम पास के लिए कई अखबार देखता हूं। कारण इससे सस्ता टाइम पास सम्भव भी नहीं। सो सम्पादकों के आलेख अब भी पढ़ता हूं। शशि शेखर महोदय के लेखों में थरथराहट काफी होती है। किसी घटना को अंजाम देने वाले पात्र घटना के समय उत्साह या आशंका से जितना थरथराते होंगे उससे कुछ ज्यादा ही उत्साह या आशंका से शशि शेखर अपने लेखों में थरथराते हैं। अपने लेखों में ही एकाधिक बात उन्होंने जिकर किया है कि न्यूज रूम में किसी घटना की जानकारी होते ही वह किस तरह से चीखने-चिल्लाने लगे। दैनिक जागरण के मालिक कम सम्पादक भी अपवाद नहीं हैं, वे समस्त विषयों के ज्ञाता हैं और आधिकारिक भाव से वे हर विषय पर कलम चलाते हैं। आश्चर्य है उन्हें अभी तक क्यों विश्वविद्यालयों ने मानद डॉक्ट्रेट की उपाधि नहीं दी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सच यह है कि अधिकांश सम्पादकों के लेख उपदेशपरक और उबाऊ होते हैं। उनमें विषयों का विस्तार भी नहीं होता। क्योंकि वे सामान्य पढ़े लिखे हैं। ऐसे में उपदेशपरक लेख लिखना कहीं अधिक आसान होता है। मजे की बात यह भी कि उनके उपदेश उसी अखबार में छपते हैं जिसमें वे फिलहाल होते हैं। उनके जाने के बाद वह संस्थान उनके उपदेशों से लाभान्वित होने से कतई इनकार कर देता है। कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि इन पर उपदेश कुशल बहुतेरे सम्पादकों को अगर मोहल्ले स्तर की भी जमीनी सच्चाइयों से रूबरू होना पड़े और ठीक करने की जिम्मेदारी दी जाये तो ये भाग खड़े होंगे। लेकिन अपने लेखों में वे किसी को भी हिकारत की भावना से उपदेश दे डालते हैं।

और अंत में, वरिष्ठ पत्रकार अरविंद चतुर्वेदी का अनुभव बताना अप्रासंगिक नहीं होगा। चतुर्वेदी जी ने अपना कैरियर आज अखबार से शुरू किया था जिसकी महानता के बारे में आज भी तमाम झूठे सच्चे किस्से सुनाये जाते हैं। मैने चतुर्वेदी जी से पूछा कि महोदय आपने तो हिंदी पत्रकारिता के तथाकथित स्वर्ण युग में शुरुआत की थी और वह भी ‘आज’ अखबार जैसे स्वर्ण महल में रहकर, आपका क्या कहना है? चतुर्वेदी जी भले आदमी हैं। उन्होंने कहा- हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग कभी नहीं था, खुद को भ्रम में रखने के लिए हम लोगों ने सायास यह मानक गढ़ा है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक अनेहस शाश्वत उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. मेरठ, बनारस, लखनऊ, सतना समेत कई शहरों में विभिन्न अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम किया. घुमक्कड़ी, यायावरी और किस्सागोई इनके स्वभाव में हैं. इन दिनों वे लखनऊ में रहकर जीवन की आंतरिक यात्रा के कई प्रयोगों से दो-चार हो रहे हैं. उनसे संपर्क 9453633502 के जरिए किया जा सकता है.

अनेहस शाश्वत का लिखा ये भी पढ़ सकते हैं…

Advertisement. Scroll to continue reading.

राष्ट्रोत्थान की फेसबुकी टिट्टिभि प्रवृत्ति

xxx

इस भ्रष्ट व्यवस्था में बच्चों की तथाकथित उच्च शिक्षा पर लाखों रुपये न फूंकें!

xxx

Advertisement. Scroll to continue reading.

फिर-फिर मुठभेड़ करेगी यह उन्मत्त भीड़

xxx

प्रवचन नहीं दें, शासन करें

xxx

Advertisement. Scroll to continue reading.

अखिलेश यादव की कहानी से याद आये राजीव गांधी!

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement