अनिल भास्कर-
हिंदी पत्रकारिता के बाल्टी-मग युग की सबसे खास बात यह रही कि परोक्ष तौर पर ही सही, सर्कुलेशन टीम अखबारों के सम्पादकीय में घुसने लगी थी। पहले वह अखबारों की तुलनात्मक समीक्षा कर रिपोर्ट बनाने में जुटी और फिर उन रिपोर्टों के हवाले से सम्पादकीय निर्णयों को प्रभावित करने की कोशिश में लग गई। दरअसल यह उसका हथियार था जो जंग की स्थिति में वह अपने बचाव में और सम्पादकीय टीम पर हमले के लिए सुरक्षित रखने लगी थी। सशक्त नेतृत्व के अभाव में तब सम्पादकीय विभाग अक्सर बलि का बकरा बनने लगा था। दरअसल अखबार मालिकान की सर्वोच्च वरीयता मुनाफा है, यह कोई रहस्य नहीं रह गया था। करीब करीब हर विभाग तक यह बात करीने से पहुंच गई थी या पहुंचा दी गई थी। अब चूंकि मुनाफा सबसे ऊपर था, लिहाजा विज्ञापन विभाग सबसे महत्वपूर्ण हो चला था। उसकी बातें, उसका फीडबैक सबसे अहम।
जब कभी विज्ञापन विभाग की मीटिंगों में मार्किट शेयर में कमी का राग छिड़ता, नुमाइंदे अखबार के कमजोर सर्कुलेशन का आलाप भरना शुरू कर देते। फिर सर्कुलेशन टीम जब शीर्ष प्रबंधन से मुखातिब होती तो विज्ञापन विभाग के फीडबैक पर सफाई देते हुए सम्पादकीय कमियों का सुर छेड़ देती। वही हथियार निकाल लाती जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया है। लब्बोलुआब यह निकलता कि अखबार प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले कमजोर निकल रहा, सो एड़ी चोटी का जोर लगाकर भी प्रसार नहीं बढ़ रहा। अब जब प्रसार नहीं बढ़ रहा तो जाहिर है विज्ञापन बाजार में शेयर कम मिल रहा है। सारा दवाब स्वाभाविक रूप से सम्पादकीय पर आ जाता। यही प्रक्रिया लगभग सभी अखबार के दफ्तरों में चलती। और मजे की बात यह कि हर अखबार की सर्कुलेशन टीम के मुताबिक उनका अखबार अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले कमजोर निकल रहा होता था। दरअसल एक दूसरे को टोपी पहनाने का यह विरला उदाहरण था।
भला हो न्यूजप्रिन्ट (अख़बारी कागज़) इंडस्ट्री का, जिसने कोरोनाकाल से ठीक पहले ही कागज़ के भाव सातवें आसमान पर पहुंचा दिए। लगभग दोगुने से भी अधिक। दरअसल अब तक भारतीय बाजार को अख़बारी कागज का सबसे बड़ा निर्यातक बन चुके चीन में पर्यावरणीय दबावों ने कागज उद्योग पर शिकंजा कुछ ज्यादा ही कस दिया था। नतीजा, मांग और आपूर्ति का अनुपात ऐसा बिगड़ा कि कीमतें काबू से बाहर हो गईं।
फिर क्या था, प्रसार या सर्कुलेशन के मैदान में युद्धविराम। हालत यह कि महामारीकाल में अखबारों ने अपना जितना सर्कुलेशन शेयर खोया, स्थिति संभलने के बाद भी उसे वापस पाने की कोई जद्दोजहद नहीं। प्रसार बढ़ाना अब बड़े घाटे का सौदा बन चुका था। अखबार की कीमत बढ़ाकर लोहा लेने का साहस किसी घराने में नहीं था। लिहाजा, सारा जोर इस पर लगा कि प्रसार बढाने के बजाय कैसे ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन (एबीसी) को सेट किया जाए और बेहतर नम्बर के साथ विज्ञापन बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई जा सके।
जाहिर है, सम्पादकीय विभाग को उस बेहूदा दवाब से राहत मिली। इस राहत में उसने खुद का कितना परिमार्जन किया, यह जानने के लिए उसे आत्ममूल्यांकन करना चाहिए। हालांकि इस दुर्भाग्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि कोरोना ने ज्यादातर अखबारों में सम्पादकीय टीम सिकोड़ दी। दशकों पुरानी व्यवस्था ध्वस्त कर दी। कामकाज के तरीके बदल डाले। महीनों आपातस्थिति रही। अखबार दुबले हो गए। लेकिन आज जब हालात काफी हद तक सामान्य हो चुके हैं, तब अखबारों की गुणवत्ता में हो रहा निरंतर क्षरण खासा निराश करता है।
जारी…