Satyendra PS-
कारपोरेट ये, कारपोरेट वो। ये ससुरा कारपोरेट सबका जीवनदाता बना है। गांधी की तर्ज पर पूछता हूँ कि इस कॉरपोरेट की जरूरत क्या है? आदमी की प्राकृतिक जरूरत ख़ाना और हगना है। भाड़ में जाए कारपोरेट। यह रहे या न रहे, इसकी जरूरत क्या है?
-1940 के आसपास देश मे अकाल पड़ा और करीब 5 लाख लोग खाने बगैर मर गए।
-1951 में पंजाब राव देशमुख देश के कृषिमंत्री बने। 10 साल के काल में खेती बाड़ी को इतना मजबूत आधार दिया कि अब अनाज की कोई कमी नहीं है।
-पिछले 70 साल का प्रदर्शन देखें तो किसानों ने सबसे शानदार प्रदर्शन किया। अनाज के बगैर किसी को मरने नहीं दिया। अनाज आयात नहीं करना होता है।
-इधर मेडिकल साइंस, कम्प्यूटर साइंस या स्पेस साइंस हो, सभी क्षेत्रों में हम भीख पर निर्भर हैं। सैन्य क्षेत्र में हम पाकिस्तान नेपाल के अलावा किसी से मर्दानगी नहीं दिखा सकते, अभी फ्रांस से कुछ राफेल वगैरा खरीदकर ताकतवर होने का दम भर रहे हैं।
आज किसान सड़क पर है। उसका मुनाफा कम कर दिया गया। उद्योगपतियों को सस्ते मजदूर देने की जिम्मेदारी किसानों की है, वह सस्ता राशन देता है तो मजदूर कम वेतन पाकर जी लेता है। किसान की आमदनी बढ़ाने का वादा करके सत्ता में आई सरकार अब किसानों से उनकी जमीन ही छीन लेना चाहती है। सरकार की इच्छा है कि किसान अब कारपोरेट सेक्टर के बंधुआ बनकर उनकी मर्जी के मुताबिक फसल उगाएं।
आज अगर किसानों का साथ न दिया तो जैसे शहर में रहने वाले आज की तारीख में वेतन का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा आवास पर खर्च कर रहे हैं, आने वाले दिनों में वेतन का आधा हिस्सा सिर्फ पेट भरने पर खर्च करेंगे, जो अभी दो हजार से 5 हजार रुपये महीने में पूरे परिवार का भर जाता है। खेत का नियंत्रण कॉरपोरेट के हाथ मे न जाने देना देश के आम नागरिक के हित में है। कारपोरेट सेक्टर आवास से कमा चुका, शिक्षा और स्वास्थ्य से कमा रहा है। रियल एस्टेट से जो कमाई घटेगी, अब आपके खाने पर डाका पड़ने वाला है, उससे भरपाई होगी।
किसानों का साथ दें वरना आप मारे जाएंगे। सरकार कॉरपोरेट के पक्ष में खड़ी है।
गुरदीप सिंह सप्पल-
नए कृषि क़ानून में क्या ग़लत है? क्या विरोध केवल राजनीतिक है?
सरकार कहती है कि इनसे वो बेड़ियाँ टूट जायेंगी, जिन्होंने खेती को जकड़ रखा है। नए बाज़ार बनेंगे, बड़े स्केल पर तकनीक का लाभ मिलेगा, बड़ी पूँजी कृषि सेक्टर में उपलब्ध हो सकेगी।
लेकिन क्या हक़ीक़त सीधे सीधे यही है? ये क़ानून खेती को corporatise करने का रास्ता खोलते हैं। आप कहेंगे कि इसमें हर्ज क्या है? किसान की केवल ज़मीन और लेबर होगी।फिर बीज corporate के, खाद corporate की, खर्च corporate का, risk corporate का, वो ही फसल सीधे ख़रीद भी लेंगे और पैसा किसान को मिल जाएगा। बुरा क्या है?
पर किसान क्यों डरता है? क्योंकि उसके अनुभव इतने अच्छे नहीं हैं।जैसे गुजरात में पेप्सिको कम्पनी ने आलू उत्पादकों से कॉंट्रैक्ट फ़ार्मिंग का करार किया था। उनमें चार ऐसे आलू उत्पादक हुए, जिनकी फसल पेप्सिको ख़राब ठहरा कर नहीं उठायी।ऐसा होता है, लेकिन कहानी इसके बाद शुरू हुई।
पेप्सिको ने जो फसल नहीं ली, किसानों ने वो बाज़ार में बेच दी। आम तौर पर इसमें कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। लेकिन पेप्सिको ने इसके लिए चारों को कोर्ट में घसीट लिया और एक एक करोड़ रुपए हर्जाने का दावा कर दिया। ग़नीमत थी कि चुनाव नज़दीक थे और राजनीतिक दबाव में केस वापिस हो गया।
एक और उदाहरण है। गन्ना किसानों और चीनी मिलों के बीच कॉंट्रैक्ट ही होता है। दोनों में बाक़ायदा करार होता है कि किसान तय रटे पर और तय तारीख़ पर फसल बेचेगा। चीनी मिल उसे 14 दिन में भुगतान कर देगी, नहीं तो 15% ब्याज देगी। अब इस कॉंट्रैक्ट का कितना पालन होता है, सब जानते हैं।क्या किसानों को तय तारीख़ पर पेमेंट मिलती है? क्या किसानों को ब्याज मिल जाता है?
और ताक़त किसके पास है? किसानों के के पास या चीनी मिलों के पास? जवाब सब किसान जानते हैं।उस पर इन नए क़ानूनों में किसानों के लिए कोर्ट का रास्ता भी मुश्किल कर दिया गया है। मगर कैसे?…
इन नए क़ानूनों के बाद अब अगर निजी कम्पनियों को उपज बेचने में किसान के साथ कोई नाइंसाफ़ी हुई तो वो किसी कोर्ट में सीधे नहीं जा सकेगा।कृषि ट्रेडिंग का कोई भी विवाद अब केवल SDM या बड़ा अधिकारी ही निपटाएगा। Arbitration के नाम पर किसानों को कोर्ट का अधिकार छिनता नज़र आ रहा है। उनके सवाल हैं कि अब कहाँ का SDM फ़ैसला लेगा? जहाँ किसान की उपज पैदा हुई है वहाँ या जहाँ से ख़रीदी हुई है वहाँ?
आजकल कहीं भी बैठ कर ख़रीदी हो सकती है।वो जगह खेत से सैकड़ों किमी दूर हो सकती है, दूसरे राज्यों में भी हो सकती है।क्या किसान को arbitration के लिए वहाँ जाना होगा?
और SDM अगर ज़रा सा भी कमजोर हुआ या corrupt हुआ, तो उसे कौन प्रभावित कर सकेगा? किसान या निजी कम्पनी?
कोई ग़लत तरीक़ा नहीं है, दुनिया में अब प्रचलित है। लेकिन arbitration बराबर की ताक़त वालों के लिए है।किसान और कम्पनियों के बीच ताक़त का रिश्ता इक तरफ़ा है। सरकार कहती है कि दुनिया तो देखो, तरक़्क़ी होने दो।
लेकिन दुनिया में सेफ़्टी नेट भी तो हैं। जैसे अमरीका में corporate खेती है। लेकिन वहाँ की सरकार फिर भी किसानों के सपोर्ट के लिए क़रीब 20 billion डॉलर की सब्सिडी देती है।क़ीमतों के उतार चढ़ाव में हस्तक्षेप करती है… …बीमा, मार्केटिंग, export में सब्सिडी देती है। भारत में क्या ऐसी कोई योजना है? अपने यहाँ तो फसल बीमा तक corporate मुनाफ़े का सौदा बना चुका है।
और अब MSP पर भी चुप है। किसान सड़कों पर माँग कर रहा है कि MSP पर लिखित वादा करो, पर सरकार केवल ज़ुबानी बातें कर रही है। ये APMC में सुधार तो सिर्फ़ एक पहलू है। असली कहानी तो WTO से भी जुड़ी हैं।UPA के food security act बाद से ही WTO का दबाव डाल है कि MSP ख़त्म हो।
farm subsidy को WTO ने red, amber और green की category में बाँटा है और उसका दबाव है कि red कैटेगरी की सभी सब्सिडी समाप्त हो। 2015 में मोदी सरकार ने शान्ता कुमार कमेटी बनायी थी, जो FCI के रोल को ख़त्म करना चाहती थी व MSP के कॉन्सेप्ट को समाप्त करना चाहती थी।
APMC में बहुत सी कमियाँ हों,लेकिन क़ीमतों को नियमित करने में उसका दबाव होता है। APMC के बाहर क़ीमतों पर न सरकार का कंट्रोल होगा न किसानों का 2010 में committee on state agriculture ministers on deregulation of APMC ने कहा था कि APMC को deregulate करने से किसानों को फ़ायदा नहीं हुआ था, बल्कि किसानों के हित के सभी safeguard ख़त्म हो गए थे। 2006 में बिहार में APMC act समाप्त कर दिया था, पर उसके नतीजे अच्छा नहीं रहे।
यही नहीं, 2018-19 में standing committee on agriculture ने कहा था कि APMC को समाप्त करने से किसानों का हित नहीं होगा। कोई तो कारण है कि गुजरात में private APMC की अनुमित दे दो गयी थी, लेकिन आज तक एक भी सफल निजी मंडी का कोई उदाहरण वहाँ भी नहीं है।
संदीप गुप्ता-
नए कृषि क़ानून का सरल अंक गणित…
आइये जानते हैं ईंट दर ईंट बनाई गई देश की कृषि अर्थव्यवस्था कैसे ध्वस्त होगी…
आइए समझते हैं कैसे किसान विरोधी तीन कानून देश के किसान की कमर तोड़कर उनको गुलाम बनाने के लिए और जनता की रसोई को महंगा कर कॉरपोरेट की जेबें भरने के लिए डिजाइन किए गए हैं…
अडानी और अम्बानी रिटेल में घुसे, उनकी गिद्ध जैसी नजर देश के खाद्यान्न बाजार पर पड़ी। लेकिन किसान और कृषि हितों में पहले की सरकारों द्वारा बनाये गए कुछ कानून इन कॉरपोरेट के आड़े आ रहे थे जो किसान और उपभोक्ता हित में थे और इन कॉरपोरेट के लिए समस्या पैदा कर रहे थे–
◆ कॉरपोरेट समस्या 1: चूँकि कृषि समवर्ती विषय है तो इसपर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं, ऐसे में विभिन्न राज्यों में विभिन्न नियम कायदे थे किसानों से फसल खरीदने के लिए। तो यह इन कॉरपोरेट के लिए कठिन था इतने राज्यों में अलग अलग नियम कायदों का पालन करना।
● मोदी का समाधान: राज्यों के अधिकार को हड़पते हुए पूरे देश के लिए एक एक्ट बना दिया। कॉरपोरेट खुश।
◆ कॉरपोरेट समस्या 2: कॉरपोरेट पूरे देश के किसानों से खाद्यान्न खरीदेंगे और स्टोर करेंगे लेकिन पूर्व की सरकारों द्वारा जमाखोरी रोकने के लिये जमाखोरी विरोधी कानून जिसको essential commodity act (आवश्यक वस्तु अधिनियम) कहा जाता है आड़े आ रहा था, जो की इन कॉरपोरेट को कोई भी खाद्यान्न अधिक मात्रा में लंबे समय तक स्टोर जमाखोरी करने पर रोक लगाता है चूँकि इससे खाद्यान्नों के दाम बाज़ार में बहुत ज्यादा बढ़ जाते हैं।
● मोदी का समाधान: Essential commodity act (आवश्यक वस्तु अधिनियम) खत्म, अब खाद्यान्न की जमाखोरी कितनी भी मात्रा तक और कितने भी समय तक करना अपराध नहीं रह गया। कॉरपोरेट पुनः प्रसन्न।
◆ कॉरपोरेट समस्या 3: लेकिन किसान तो फसल अपने हिसाब से और अपनी मर्जी से उगाते हैं, इसलिए ये बड़ा मुश्किल है कि किस प्रकार की फसल किसान उगाएगा।
● मोदी का समाधान: कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का एक्ट बना दिया जिससे किसान को अब कॉन्ट्रेक्ट में बांध कर कॉरपोरेट निर्देशित करेगा की कौन से प्रकार की फसल किसान को उगानी है।
◆ कॉरपोरेट समस्या 4: यदि कॉरपोरेट किसान को धोखा देंगे, पेमेंट समय पर नहीं करेंगे, उल्टे सीधे नियम कायदे थोपेंगे जिससे धोखा खाने वाला किसान कोर्ट में जायेगा, तो कॉरपोरेट को पूरे देश में बहुत से मुकदमे झेलने पड़ेंगे।
● मोदी का समाधान: किसान कोर्ट में नहीं जा सकेंगे, वे केवल SDM या DC के पास जा सकेंगे, कोरपोरेट पुनः खुश क्योंकि रिश्वतखोर SDM और DC जो नेताओं के इशारे ओर चलते हैं उनको मैनेज करना बहुत आसान है क्योंकि कॉरपोरेट इलेक्टोरल बाँड से पोलिटिकल पार्टियों के चन्दा देते हैं और कोई भी SDM और DC अपनी राज्य सरकार के इशारों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं करेगा।