आज दिल्ली की एक स्थानीय खबर की चर्चा करता हूं जो पहले पन्ने पर तो नहीं है, फिर भी अलग और अनूठी होने के कारण चर्चा योग्य है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसे मेट्रो पन्ने पर पांच कॉलम में बॉटम छापा है। अंग्रेजी के इस खबर के शीर्षक का हिन्दी होगा (अनुवाद मेरा), “केंद्र शासित प्रदेशों के स्वास्थ्य सूचकांक में दिल्ली पांचवें स्थान पर लुढ़की”। बेशक, यह खबर है और इसके प्रकाशन में कुछ भी गलत नहीं है। हो सकता है इसका मकसद बिहार के गांवों में यह संदेश देना हो कि दिल्ली में भी स्वास्थ्य सेवा की हालत अच्छी नहीं है आप (दिल्ली होते हुए) चंडीगढ़ जाएं जो नंबर 1 पर है या फिर दूसरे नंबर के दादरा व नागर हवेली जाएं। मैंने आज इस खबर को यह बताने के लिए चुना है राज्यों के मामले में ऐसा सूचकांक बनता होगा? और उसे पहले छपना चाहिए था।
क्या आपने ऐसी कोई खबर अपने अखबार में इतनी प्रमुखता से छपी देखी? खासकर तब जब गोरखपुर में दो साल पहले कई बच्चे मर गए थे या फिर इस बार बिहार में मरे और गोरखपुर में भी बच्चों के मरने की खबर आई। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसे सूचकांक बनते होंगे पर छपते और दिखते नहीं हैं। कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त व गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इसी इतवार को प्रकाशित अपने साप्ताहिक कॉलम में लिखा था, “केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रबंधन सूचना तंत्र के अनुसार जिले में सभी 103 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और एकमात्र सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को रेटिंग में पांच में से शून्य मिला था, क्योंकि इनमें से कोई भी केंद्र मूल्यांकन के लिए आवश्यक जरूरतें (जैसे चिकित्साधिकारी, नर्स/ दाई) पूरी नहीं करता था। मुजफ्फरपुर में श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल का शिशु रोग विभाग, जहां पीड़ित बच्चों का इलाज चल रहा है, आईसीयू के लिए निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करता है।”
जाहिर है कि मानक हैं, पर खबर नहीं छपती है। या छपती भी है तो कोने में रह जाती है। मैं नहीं कह रहा कि ऐसी खबर को नहीं छापने या कोने में छाप देना भी गलत नहीं है। पर बिहार में मुजफ्फरपुर के अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्रों को अगर 0 से 5 के पैमाने पर शून्य मिला था तो खबर यह भी होगी कि दूसरे राज्यों में पांच किसे मिला? या पांच रैंकिंग वाले कितने अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र हैं या सभी शून्य रैंकिंग वाले हैं या सिर्फ मुजफ्फरपुर के स्वास्थ्यकेंद्र शून्य रैंकिंग वाले हैं बाकी सब ठीक हैं। ऐसी कोई खबर मुझे नहीं दिखी। मैं ढूंढ़ रहा हूं, तब भी। सामान्य स्थितियों में (जब देश के प्रधानसेवक एक पार्टी के प्रचारक नहीं रहे) मुजफ्फरपुर की खबर आ रही थी उन्हीं दिनों दूसरे जिलों, शहरों से खबरें आनी चाहिए थी। बिहार के किसी अन्य शहर या जिले से बच्चों की मौत की खबर नहीं आई। हो सकता है, हुई ही नहीं हो। पर वहां अस्पतालों की हालत क्या है, वहां तैयारी क्या है – यह सब तो छपना चाहिए था।
अमूमन अधिकारी भी प्रेस कांफ्रेंस करके बताते थे कि फलां खबर के आलोक में हमने ये तैयारी की है। दिल्ली में डेंगू के मामले में भी होता रहा है पर बिहार, उत्तर प्रदेश तो छोड़िए, वहां भाजपा की सरकार है, जहां कांग्रेस की सरकारें हैं वहां के अस्पतालों की हालत की खबरें भी नहीं के बराबर छपती हैं। नहीं छपने का मतलब यही माना जाता है कि सब ठीक है। और सब ठीक होता तो आज दिल्ली के स्वास्थ्य सूचकांक यह खबर इतनी प्रमुखता से नहीं छपी होती और मैं इसकी चर्चा नहीं कर रहा होता। सरकारी अस्पतालों का देश भर में बुरा हाल है। दिल्ली में एम्स के बाहर बिहार, यूपी ही नहीं, देश भर के मरीजों के तीमारदार मिल जाएंगे और दिल्ली के प्राइवेट अस्पताल तो बनारस, पटना, ग्वालियर में कार्यक्रम आयोजित कर स्वास्थ्य जागरूकता के कार्यक्रम चलाते ही रहते हैं। लगभग सभी अस्पतालों की घोषित-अघोषित आधिकारिक और गैर आधिकारिक व्यवस्था है जिससे मरीज यहां आते हैं।
मरीज और उसके साथ दूसरे शहर के तीमारदार दिल्ली क्यों आते अगर वहां सुविधाएं उपलब्ध होतीं। पर खबर नहीं छपती है। कम छपती है। हालांकि, उसमें भी बुराई नहीं है। यह ऐसा मामला है जिसे आम आदमी खुद भुगतता है, जानता है और महसूस भी करता है। उत्तर भारत के लोग इलाज के लिए दिल्ली यूं ही नहीं भागे आते हैं। उन्हें जरूरत भर जानकारी भी है। ऐसे में इस खबर का क्या मतलब जो यह बताती है कि केंद्र शासित प्रदेशों के स्वास्थ्य सूचकांक में दिल्ली सातवें स्थान पर लुढ़की। इस खबर के मुताबिक 100 के पैमाने पर दिल्ली का स्कोर 2015 के मुकाबले 0.61 कम होकर 49.42 रह गया है। इसके बावजूद मैं इस खबर की सार्थकता को चुनौती नहीं दे रहा हूं मैं उन खबरों का बात कर रहा हूं जो नहीं छपती हैं। मैं बिहार, उत्तर प्रदेश के अस्पतालों की रेटिंग देखना चाहता हूं – क्या करूं। कैसे देखूं?
हिन्दुस्तान टाइम्स की यह खबर नीति आयोग की रिपोर्ट पर आधारित है और बाईलाइन वाली है। मुझे नहीं लगता कि नीति आयोग ने कोई रिपोर्ट दी है तो सिर्फ केंद्र शासित प्रदेशों की होगी – हालांकि हो सकती है पर राज्यों की भी होनी चाहिए। पता करता हूं। आपको पता चले तो मुझे बताइए। इस खबर में दिल्ली की तुलना चंडीगढ़, पुड्डुचेरी, लक्ष्यद्वीप, अंडमान निकोबार, दमन दीव और दादरा व नागर हवेली से की गई है। मुझे नहीं लगता कि सिर्फ केंद्र शासित क्षेत्र होने के कारण इनकी तुलना की जा सकती है। दोनों में बहुत अंतर है। आबादी के हिसाब से देखें तो अकेले दिल्ली की आबादी बाकी छह केंद्र शासित प्रदेशों से ज्यादा है। उसपर एनसीआर और पूरे उत्तर भारत का बोझ। हालांकि, अभी वह मुद्दा नहीं है।
मेरा मानना है कि भाजपा शासित राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं की खराब हालत से संबंधित हाल की खबरों के आलोक में दिल्ली सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं में किए गए सुधार के दावों को राजनीतिक टक्कर देने वाली इस खबर के राजनीतिक महत्व को भी समझा जाना चाहिए। दिल्ली की खबर दिल्ली के अखबार में छपी है उसमें कोई बुराई नहीं है पर देश के बारी राज्यों की खबर कौन छापेगा, कैसे छपेगी और क्यों नहीं छपती है? इस मामले में यह तर्क भी नहीं चलेगा कि ऐसी खबर नहीं पढ़ी जाती है। जब दिल्ली में सूचकांक कम होने की पढ़ी जाती है तो कौन नहीं जानना चाहेगा कि बाकी अस्पताल उसी सूचकांक पर कहां हैं। योजना आयोग को नीति आयोग बनाए जाने के बाद कहा गया कि योजना आयोग का नेहरूवादी फर्मा ही हटा दिया गया है और वैसे में नीति आयोग की रिपोर्ट पर यह खबर ऐसे समय में जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस खबर में बताया गया है कि दिल्ली में क्या कम हुआ है और क्या कम है या नहीं है। एक खबर के रूप में यह बिल्कुल सही है पर देश के दूसरे शहरों, राज्यों महानगरों में इस पैमाने पर क्या नहीं है और क्या है – इसकी चर्चा भी होनी चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट