govind goyal-
आय का दूसरा जरिया हो तो सोने पर सुहागा..
श्रीगंगानगर । पत्रकारिता की दशा और दिशा वक्त के साथ बदलती रही है। एक वो वक्त था, जब ये संजीदा हुआ करती थी। धीर गंभीर और भाषा पर पकड़ रखने वाले व्यक्ति ही इस पेशे मेँ आया करते थे। फिर एक ऐसा दौरा आया जब इसमें आकर्षण बढ़ा। वक्त आगे बढ़ा तो नाटकीयता भी इसमें शामिल हो गई। न्यूज चैनल पर तू-तड़ाक शैली मेँ एंकरों द्वारा बड़े-बड़े नेताओं, अधिकारियों से बतियाने की शैली ने पत्रकारिता की चमक को और अधिक बढ़ा दिया। हर उम्र के व्यक्ति इसमें टूट के पड़ने लगे। क्योंकि साफ़ दिखाई दे रहा है कि ये ‘पत्रकार’ किसी से भी, कैसे भी, कुछ कह सकने की ‘ताकत’ रखते हैं। यहाँ भी बहुत से व्यक्ति इसी आकर्षण के कारण मीडिया का हिस्सा बने हैं।
पीएम की डिग्री की बात पत्रकार कर सकता है, किन्तु पत्रकार की शिक्षा की पड़ताल कोई नहीं करता। जैसे अब ‘पत्रकार’ होने का अर्थ है, बहुत बड़ा शिक्षाविद, बुद्धिजीवी, ज्ञानी, समझदार। खैर! पत्रकारिता मेँ आकर्षण गज़ब का है। पूछ है। सामाजिक रुतबा है। कलक्टर-एसपी से लेकर नेताओं से मिलना तक बहुत आसान है। पत्रकार इधर-उधर रोब भी मार सकता है। विवेक अनुमति दे तो धौंस भी चलती है। समाज को लगता है कि बंदे की चलती है। ये एक पक्ष है। परंतु सभी के साथ ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि विवेक पत्रकार के पास हो ना हो, दूसरों के पास तो होता ही होगा। पत्रकारिता की चमक के बावजूद अर्थ का महत्व कम नहीं हुआ है।
जो युवा आज पत्रकारिता के किसी भी माध्यम पर सक्रिय हैं, संभव है उनको आज अर्थ का महत्व समझ ना आ रहा हो। संभव है उन्होने इस चमक को ही जिंदगी समझ लिया हो। लेकिन वास्तविक जीवन मेँ ऐसा नहीं है। अधिकारियों से मेल मिलाप, उनसे रिश्ते, उनका पत्रकार के घर आना, साथ फोटो खिचवाना, नेताओं द्वारा आत्मीयता से मिलना, ये सब भ्रम है। ये सब पत्रकारिता की चकाचौंध का हिस्सा हैं। इससे आंखे चौंधिया जाती है। फिर इसके अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता।
परंतु इस चमक से परिवार का पेट नहीं भरता। बच्चों का लालन-पालन नहीं हो सकता। माता-पिता की ज़िम्मेदारी, सामाजिक दायित्व, बच्चों की पढ़ाई, करियर और शादी, इन सभी के वास्ते अर्थ की जरूरत है। वो मात्र पत्रकारिता से अर्जित नहीं हो सकता। अगर किसी पत्रकार का जरिया अधिकारियों और नेताओं से बने रिश्ते हैं तो फिर उनको फिक्र की कोई जरूरत नहीं। परंतु जो पत्रकारिता से ज़िंदगी बसर करना चाहते हैं तो उनको एक बार फिर से चिंतन करने की जरूरत है। क्योंकि मात्र पत्रकारिता से पेट तभी भर सकता है, जब आपको विज्ञापन/सहायता मांगने मेँ शर्म नहीं है। अधिकारियों और नेताओं की चौखट पर हाजिरी भरने मेँ कोई हिचकिचाहट नहीं है। वो कुछ भी कहें, आपका ज़मीर खामोश रहता है।
पत्रकारिता से गुजर-बसर तभी संभव है, जब आप ऐसे अखबार के मालिक हैं, जो अधिक चाहे ना, किन्तु पढ़ा जाता हो। या फिर उस स्थिति मेँ, जब आप ‘जो प्राप्त है, वही पर्याप्त है’ को स्वीकार कर आगे बढ़ते हो; आपका परिवार आर्थिक मदद करता हो; सक्षम दोस्त आपके साथ खड़े हों; आपके बच्चे भी आपकी भांति संतोषी हों। ये सब भी नहीं है तो फिर पत्रकारिता के संग-संग को साइड बिजनेस/आय का साधन जरूर होना चाहिए, ताकि अर्थ की पूर्ति होती रही।
वरना एक वक्त ऐसा आएगा, जब आपके पास ना तो पत्रकारिता रहेगी ना जीवन यापन के लिए जरूरी अर्थ का फंड। तब जीवन-मरण का प्रश्न उत्पन्न हो जाएगा। किन्तु गया वक्त लौट के नहीं आता। कोई नहीं पूछेगा। बिस्तर पर पड़े-पड़े पुराने दिनों को याद करने के अतिरिक्त कुछ ना कर सकोगे। संभव है उस स्थिति मेँ पत्रकार जान कोई हॉस्पिटल भी भर्ती ना करे। आज जिले की मंडियों के उन व्यक्तियों से प्रेरणा ली जा सकती है, जो अखबारों के संवाददाता बने, किन्तु अपना साइड बिजनेस साथ रखा। वो ‘पत्रकार’ तो रहे, लेकिन उस ‘पत्रकारिता’ की इन्कम पर निर्भर ना रहे। आज वो ना केवल अपने पैरों पर खड़े हैं, बल्कि उनके पास वो सब भौतिक सुविधाएं हैं, जिनको आज जरूरी माना जाता है। उनका रुतबा भी कायम रहा और परिवार भी मजे से गुजर बसर कर रहा है।
इसलिए जो इस क्षेत्र मेँ आकर्षण के कारण आएं हैं या आने की सोच रहे हैं, वो फिर से चिंतन कर लें। पत्रकारों की जिंदगी की पड़ताल कर लें। उनके बच्चों की पढ़ाई/करियर को जान लें। उनका घर-मकान देख लें। उसके बावजूद भी वो पत्रकारिता मेँ आना चाहते हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए। क्योंकि असल मेँ समाज, राज्य और देश को ऐसे ही पत्रकारों की जरूरत है, थी और रहेगी।
गोविंद गोयल राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के वरिष्ठ पत्रकार हैं.