Navneet Mishra : पुण्य प्रसून वाजपेयी यूँ तो 2015 में ही मेनस्ट्रीम मीडिया को अलविदा कहना चाहते थे, शायद स्क्रीन के मोह में नहीं कर पाए। तब एक वेबसाइट लॉन्च हो रही थी। माना जा रहा था कि इस टीम का प्रसून भी हिस्सा होंगे क्योंकि वह भी इच्छा जता चुके थे। अचानक प्रसून ने साथी पत्रकारों को मना कर दिया और टीवी मीडिया में ही रहने का फ़ैसला किया।
संभवत: उनका तर्क था कि अभी सोशल मीडिया की भीड़ भरी गलियों में खो जाना समझदारी नहीं है। टीवी पर दिखते चेहरे से ही ‘ब्रांड वैल्यू’ बनती है। जो लंबे समय से स्क्रीन से गायब हुआ तो इंडस्ट्री और पब्लिक उसे चुका हुआ मान लेती है। भले ही अगला कितना ही क्रांतिकारी पत्रकार क्यों न हो। मीडिया में जो दिखता है वो बिकता है।
सूर्या समाचार में पुण्य प्रसून के जाने के बाद हर कोई चौंका था। कुछ लोगों का कहना था कि पूर्व में सेलरी कितनी भी हैंडसम क्यों न रही हो, ईएमआई और तमाम जरूरी ख़र्चों के बोझ से दबा एक पत्रकार एनसीआर की महँगाई में कितने दिनों तक बेरोज़गार रह सकता है। जरूर आर्थिक कारणों से उन्होंने अपनी इमेज से कमतर चैनल में ज्वॉइन किया। यह भी एक कारण हो सकता है, मगर मेरे ख़्याल से पूरा कारण नहीं।
मैं समझता हूँ कि पुण्य के लिए बड़े चैनलों में जाने की गुंजाइश नहीं बची थी। लोकसभा जैसा चुनाव सिर पर आ गया था। राजनीति को जीने वाले हर पत्रकार के लिए एक चुनाव पाँच साल की तपस्या का फल होता है। ऐसे में इलेक्शन कवरेज के लिए प्रसून को भी एक स्क्रीन की तलाश थी। सामने दो विकल्प थे। या तो किसी फ़ाइनेंसर से सौ-पचास करोड़ का जुगाड़ कर अपना चैनल खोलें या फिर सूर्या जैसे किसी अनाम चैनल का हिस्सा बनकर चार-छह महीने काट लें। इस बीच इलेक्शन कवरेज भी हो जाए।
मगर प्रसून जैसे रीढ़धारी और स्पष्टवादी पत्रकार पर कोई लाला सौ-पचास करोड़ का दांव नहीं लगा सकता। इन सब हालात में प्रसून ने दूसरे विकल्प को चुना। उन्हें भी अंदाज़ा नहीं था कि अपने स्तर को भी दरकिनार कर जिस चैनल में वे जा रहे हैं, वह उन्हें इलेक्शन तक भी टिकने नहीं देगा। सच तो यह है कि इस दौर में मेरुदंडविहीन पत्रकारिता ही सच्चाई है।
Prashant Tandon : क्या अच्छी पत्रकारिता अच्छे मालिक के ही साथ संभव है? मुझे नहीं मालूम कि रामनाथ गोयनका इंडियन एक्स्प्रेस के मालिक नहीं होते तो अरुण शौरी एक तेज़ तर्रार संपादक के रूप में जाने जाते या नहीं या फिर शौरी एक्स्प्रेस की जगह समीर जैन के टाइम्स ऑफ इंडिया में होते तो उनकी पत्रकारिता क्या होती.
जानते हैं किसी पत्रकार के लिये सबसे विषम स्थिति क्या होती है – उसके अखबार या टीवी चैनल के मालिक की धमकी. आज हम चुनौती भरे माहौल से होकर गुज़र रहे हैं. पत्रकारों को ट्रोल्स से धमकियां मिल रही हैं. फिर भी वो अपना काम कर पा रहे हैं – बहुत बहादुरी के साथ. वो इस माहौल में भी काम कर पा रहे हैं क्योंकि उनके चैनल के मालिक ने धमकी भरा फोन नहीं किया है.
मैं उन पत्रकारों का योगदान ज्यादा बड़ा मानता हूँ जो मुश्किल मालिक के अखबार या टीवी चैनल में रह कर भी अच्छी पत्रकारिता कर पाते हैं. प्रणय रॉय और प्रिया गोल्ड बिस्कुट के मालिक के साथ काम करने और सरकार को ललकारने में दो ध्रुवों जितना अंतर है.
पत्रकार द्वय नवनीत मिश्र और प्रशांत टंडन की एफबी वॉल से.
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