रंगनाथ सिंह-
इक्का-दुक्का विशेषांकों को छोड़ दिया जाए तो पिछले कई सालों से हिन्दी पत्रिकाएँ खरीदना बन्द कर दिया था। अंग्रेजी में भी धीरे-धीरे केवल कारवाँ खरीदने लगा था क्योंकि वह भी पूरा नहीं पढ़ पाता था। पिछले एक साल से हिन्दी पत्रिकाओं को दोबारा पलटना शुरू किया। मेरी वर्तमान रुचि के सबसे करीब जो पत्रिका लगी वो है, सीएसडीएस से निकलने वाली ‘प्रतिमान।’
प्रतिमान के शुरुआती अंक मैंने देखे थे लेकिन उसके बाद यह मेरे जहन से फिसल गयी और फिर कई साल बाद लॉकडाउन के दौरान प्रतिमान की वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध उसके अंक देखे और देखकर हैरान हुआ कि उन्होंने बहुत शानदार अंक निकाले हैं।
प्रतिमान की एक ही कमी है कि वह छह महीने में एक बार छपती है। प्रतिमान के संपादक अभय कुमार दुबे से मेरा प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचय नहीं है लेकिन यदि कभी उनसे आमना-सामना हुआ तो मैं उनसे इस पत्रिका को तिमाही करने पर विचार करने के लिए जरूर कहूँगा।
हिन्दी के प्रबुद्ध वर्ग को यह पत्रिका जरूर लेनी चाहिए। हिन्दी में शोध-परक आलेख लिखने वालों को भी मेरा सुझाव होगा कि वो अपने लेख प्रकाशित कराने के लिए प्रतिमान को प्राथमिकता दें ताकि यह पत्रिका हिन्दी जगत में केंद्रीय भूमिका ले सके।