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यह अखबार मालिक रोज सड़क पर बैठ कर प्रेस कार्ड की दुकान चलाता है

बनारस में एक सज्जन हैं जो ‘दहकता सूरज’ नामक अखबार के मालिक हैं. बुढ़ापे में जीवन चलाने के लिए ये अब रोज सुबह सड़क पर बैठ जाते हैं और दिन भर अपने अखबार का प्रेस कार्ड बेचते रहते हैं. रेट है पांच सौ रुपये से लेकर हजार रुपये तक. ये महोदय खुद को पत्रकार संघ का पदाधिकारी भी बताते हैं. कई लोगों को इनके इस कुकृत्य पर आपत्ति है और इसे पत्रकारिता का अपमान बता रहे हैं लेकिन क्या जब बड़े मीडिया मालिक बड़े स्तर की लायजनिंग कर पत्रकारिता को बेचते हुए अपना टर्नओवर बढ़ा रहे हैं तो यह बुढ़ऊ मीडिया मालिक अपना व अपने परिवार का जीवन चलाने के लिए अपने अखबार का कार्ड खुलेआम बेच रहा है तो क्या गलत है?

बनारस में एक सज्जन हैं जो ‘दहकता सूरज’ नामक अखबार के मालिक हैं. बुढ़ापे में जीवन चलाने के लिए ये अब रोज सुबह सड़क पर बैठ जाते हैं और दिन भर अपने अखबार का प्रेस कार्ड बेचते रहते हैं. रेट है पांच सौ रुपये से लेकर हजार रुपये तक. ये महोदय खुद को पत्रकार संघ का पदाधिकारी भी बताते हैं. कई लोगों को इनके इस कुकृत्य पर आपत्ति है और इसे पत्रकारिता का अपमान बता रहे हैं लेकिन क्या जब बड़े मीडिया मालिक बड़े स्तर की लायजनिंग कर पत्रकारिता को बेचते हुए अपना टर्नओवर बढ़ा रहे हैं तो यह बुढ़ऊ मीडिया मालिक अपना व अपने परिवार का जीवन चलाने के लिए अपने अखबार का कार्ड खुलेआम बेच रहा है तो क्या गलत है?

अगर आप भी बनारस जाएं तो ये बुजुर्ग लेकिन गरीब अखबार मालिक कोदई चौकी सड़क पर बैठे मिल जाएंगे. दहकता सूरज नामक अखबार का प्रेस कार्ड आप भी इन्हें पांच सौ या हजार रुपया देकर बनवा सकते हैं. इनके पास बाकायदे रसीद बुक होती है जिस पर वह एमाउंट चढ़ाते हैं और आपके पैसे के बदले आपको रसीद व प्रेस कार्ड देते हैं. मतलब कि काम बिलकुल ये पक्का वाला करते हैं. रास्ते से गुजरने वाले लोग रुक रुक कर इस दुकान को देखते हैं और कुछ लोग 500 से 1000 रुपया देकर प्रेस कार्ड बनवा लेते हैं तो कुछ लोग पत्रकारिता की हालत पर तरस खाते हुए बुजुर्ग शख्स को कोसते हुए आगे बढ़ लेते हैं.

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ये बुजुर्ग अखबार मालिक न तो अपने किसी इंप्लाई का मजीठिया वेज बोर्ड वाला हक मारता है और न ही पेड न्यूज करता है, क्योंकि ये अपना अखबार अब छापता ही नहीं है. यह न तो झूठे प्रसार के आंकड़े बताता है और न ही सांठगांठ करके सरकारी विज्ञापन छापता है, क्योंकि ये अपना अखबार अब छापता ही नहीं है. यह तो बस दो चार प्रेस कार्ड बेचकर अपना व अपने परिवार का जीवन चला लेता है. बताइए, क्या यह आदमी पापी है या हम सब के पापों के आगे इसका पाप बहुत छोटा है?

वाराणसी से प्रहलाद मद्धेशिया की रिपोर्ट.

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0 Comments

  1. gopaljirai

    March 3, 2016 at 12:04 pm

    बात 1980 की है मैंने पत्रकारिता अभी शुरू ही की थी की एक दिन अचानक संपादक जी( नाम याद नही है ) से हमारी मुलाक़ात हो गई ब्लॉक से फोटो छापने का समय था उन्होने कहा कोई ब्लॉक है क्या हमने कहा कौन सा उन्होने कहा कोई भी, हमने दो ब्लॉक उन्हे दे दिये एक इन्दिरा गांधी का और दूसरा हेमामलिनी का अगले दिन वो आ गए और अखबार भी दिये और कहा काम बन गया ,हमने अखबार की लीड स्टोरी देखि लिखा था विमान किराए मे वृद्धि और दोनों फोटो लगे थे हमने पूछा ये फोटो क्यो लगाए तो वे बोले आखिर काल ये बड़े लोग ही तो जहाज पर चढ़ते है और ये ही तो प्रभावित होंगे

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