अजीत भारती-
मनोज मुंतशिर ने हग दिया है साला! झाँटू फिल्म है।
‘आदिपुरुष’ की सबसे घटिया बात है इसका लेखन और संवाद।
वर्तमान समय में इतना छपरी डायलॉग शायद ही किसी फिल्म में हो। दस-बारह तो मैंने नोट किए हैं इंटरवल तक।
जितना घटिया सोचा था, उसकी सीमा लाँघ चुकी है यह फिल्म। फिल्म की सबसे अच्छी बात है मध्यांतर में एवरेस्ट मसाले का विज्ञापन!
ये फिल्म नहीं भारत का सामूहिक दुर्भाग्य है।
VFX के नाम पर बिना हिलने वाले पेड़, पानी में नाव है, पैर रखने से हिलती नहीं, बैकग्राउंड चलता दिखता है, आधे पानी में बाँस की नाव चलती नहीं। समुद्र के किनारे नारियल के पेड़ पोस्टर की तरह हैं, हवा नहीं चल रही। अशोक वाटिका में चेरी के पेड़ हैं, पत्ते नहीं हिलते…
एनिमेटेड पात्र बीस वर्ष पुरानी फिल्मों से भी बेकार हैं। रावण को टॉनी स्टार्क बनाने की चेष्टा की गई है। पुष्पक विमान एक चमगादड़ है। मैं सर दीवार पर मार लूँगा!
अजय ब्रह्मात्मज-
एक बार एक लोकप्रिय कलाकार ने स्पष्ट शब्दों में मुझे बताया था। कई बार हमें मालूम होता है कि हमने एक बुरी फिल्म चुन ली है। वह अच्छी बन भी नहीं रही है। फिर भी फिल्म के लिए हां कह देने के बाद मन मसोसकर हम अपने किरदार को बेहतरीन बनाकर पेश करना चाहते हैं। चूंकि फिल्म में सब कुछ कमजोर होता है तो हमारी मेहनत निष्फल रहती है।
इस फिल्म के बनने के दौरान हम मीडिया और लोगों से यही कहते हैं कि फिल्म बहुत अच्छी बन रही हैं। फिल्म के रिलीज होने के बाद प्रचार में भी हम उसे ही दोहराते हैं कि फिल्म बहुत अच्छी बनी है। एकदम नई है।
हम कहीं नहीं सकते कि फिल्म खराब है या हमसे कोई गलती हो गई। इस स्पष्टता को ध्यान में रखें तो मान लें ओम राऊत और मनोज मुंतशिर शुक्ला अभी अपनी चूक या गलती नहीं स्वीकार करेंगे। साथ ही देखते जाइए कि अपने बचाव में खुद के ही कमजोर तर्कों से वे और फंसते जाएंगे।
कृष्ण कांत-
एक थे साहिर लुधियानवी, भजन लिखा – तोरा मन दर्पण कहलाए… अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम… मन रे तू काहे ना धीर धरे… गंगा तेरा पानी अमृत… ईश्वर अल्लाह तेरो नाम… हे रोम रोम में बसने वाले राम… लिस्ट लंबी है। सबका जिक्र करने पर पोस्ट बड़ी होगी। ये ऐसे नगमे हैं जो हमारे मंदिरों में, घरों में और यहां तक कि महाकुंभ में गूंजते हैं। सुनिए तो मन के आसमान में फूल बरसते हैं। मजे की बात ये कि साहिर एक प्रगतिशील सोच के नास्तिक थे।
एक थे राही मासूम रज़ा, जिनकी भाषा में, अदायगी में, जिनके विचारों में और रगों में जितनी गाजीपुर की मिट्टी की गंध थी, उतनी ही गंगा और जमुना की पवित्रता महसूस की जा सकती है। महाभारत सीरियल लिखकर न सिर्फ अमर हो गए, बल्कि हम कलम के मजदूरों के लिए कीर्तिमान कायम किया।
एक शकील बदायूंनी थे, उन्होंने लिखा- मन तड़पत हरि दर्शन को आज…मधुबन में राधिका नाचे रे…. मोहे पनघट पे नंदलाल… इन्साफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.. ये भजन हिंदी फिल्म संगीत के अनमोल रत्न हैं।
इन सब ज्यादातर भजनों के गायक हैं मोहम्मद रफी और संगीतकार नौशाद।
एक हैं जावेद अख्तर, लगान में लिखा था – मधुबन में जो कन्हैया किसी गोपी से मिले, राधा कैसे न जले… ओ पालनहारे निर्गुण औ न्यारे… स्वदेश में लिखा था – राम ही तो करुणा में हैं, शान्ति में राम हैं राम ही हैं एकता में, प्रगती में राम हैं… संगीतकार ए आर रहमान हैं।
थोड़ा भारतीय शास्त्रीय संगीत पर नजर डालें – अमीर खुसरो से शुरू कीजिए और बड़े गुलाम अली खान, अब्दुल वाहिद खान, अमीर खान, इनायत हुसैन खान, अकबर अली खान, फैयाज खान, अब्दुल करीम खान, अल्ला रक्खा, सुलतान खान, रशीद खान और बहुत लंबी लिस्ट है। मुसलमान संगीतज्ञों को हटा दें, तो भारतीय शास्त्रीय संगीत में शायद आधा से ज्यादा इतिहास बचेगा ही नहीं।
ये सब हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं। इन सबमें एक बात कॉमन है- ये सब मानवतावादी और प्रगतिशील सोच के लोग हैं जिन्होंने कभी जहरीला भाषण नहीं दिया। इन्होंने मानवता की इज्जत की, शांति और भाईचारे की वकालत की। इन्होंने हिंदुस्तान को हिंदुस्तान बनाया।
एक ठो है मनोज मुंतशिर, कुछ दिन पहले शुक्ला हो गया है, ट्विटर पर जहर उगलता है, उसने रामायण पर आधारित फिल्म आदिपुरुष लिखी है। लिखा क्या है वास्तव में पाखाना किया है और फिल्म रिलीज होने के बाद से उसे लीप रहा है। हनुमान जी और रावण से ऐसे ऐसे डायलॉग बोलवाया है कि सुनकर गदहों को भी बुखार आ जाए।
नफरत की चाशनी में डूबा व्यक्ति कला का सृजन नहीं कर सकता। वह सिर्फ और सिर्फ समाज में जहर फैला सकता है।