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किसी हिंदी संपादक ने पहली बार दिल्ली के बौद्धिक जगत में धाराप्रवाह अंग्रेजी में भाषण देकर अपनी धाक जमाई!

प्रदीप कुमार-

माथुर साहब की बौद्धिक जगत में धाक थी

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अज्ञेय जी के सार्वजनिक व्याख्यान प्रायः साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर होते थे।राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी ख्याति पहले से थी।वह विशुद्ध पत्रकार नहीं थे। नवभारत टाइम्स’ के संपादक न भी बनते तो उनकी शख्सियत पर इससे असर नहीं पड़ता। अंग्रेजी साहित्य के अध्येता और हिंदी साहित्य की भी अच्छी पढ़ाई के बावजूद माथुर साहब साहित्येतर लेखक और पत्रकार थे। कमरा नंबर चार से बाहर की दुनिया में अपना आभामंडल स्थापना करने के लिए उनका अंग्रेजी ज्ञान बहुत काम आया। किसी हिंदी दैनिक के संपादक ने पहली बार दिल्ली के बौद्धिक जगत में धाराप्रवाह अंग्रेजी में कई कार्यक्रमों में भाषण देकर अपनी धाक जमाई। मेरे जैसे लोगों ने तब महसूस किया कि अंग्रेजी बोल लेना या ठीक-ठाक लिख लेना काफी नहीं है, प्रभावशाली वक्तृत्वकला भी आना चाहिए। उनका एक भाषण सुनने के बाद मैंने पूछा था-“लेखन और भाषण में आप किस भाषा में अपने को बेहतर मानते हैं?” माथुर साहब ने उत्तर दिया था ,’’ मैं सबसे सशक्त रूप में अपने को हिंदी में ही अभिव्यक्त कर पाता हूं।‘’ लेकिन आपके ज्ञान का मुख्य स्रोत तो अंग्रेजी है? हंसते हुए उन्होंने कहा,’’अगर 14 साल की उम्र से कोई अंग्रेजी अखबार पढ़ना नहीं सीख पाता तो वह हमेशा बौद्धिक कुपोषण से ग्रस्त रहेगा। ‘’

अंग्रेजी में जिसे ‘ हैंड्स आन एडिटर ‘ कहते हैं, माथुर साहब उस श्रेणी के थे।अगर किसी सहयोगी को बहुत मौजूं शब्द की तलाश है,किसी खबर का असरदार ढांचा बनाना है,तो वह सीधे उनके पास जा सकता था। पहले पेज पर हस्तक्षेप करने वाले वह कुछ विरले संपादकों में थे। खालिस्तानी हिंसा के दौर में एक दिन पंजाब में कई रेलवे स्टेशनों को फूंक दिया गया। उसकी लचर खबर पर माथुर साहब ने टिप्पणी करते हुए कहा था-” इंट्रो की शुरुआत इस तरह होनी चाहिए थी-‘ खालिस्तानी आतंकवादियों ने राज्यव्यापी सुनियोजित हिंसा में आज नौ रेलवे स्टेशनों को फूंक डाला…‘’ प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ ऐतिहासिक पंजाब समझौते पर दस्तखत करने के कारण संत हरचंद सिंह लोंगोवाल की हत्या पर लीड स्टोरी खुद उन्होंने लिखी थी। इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति ही यह शीर्षक दे सकता था-‘ ‘भारत की एकता की खातिर पहला सिख शहीद।’ साथियों को उन्होंने सरल भाव से समझाया था- ‘ निश्चित ही भारत की आजादी के लिए अनगिनत सिखों ने अपने जीवन कुर्बान किया लेकिन राष्ट्र की एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए पहले बलिदानी पंथक नेता लोंगोवाल हैं। संपादकीय पेज को नवीनतम घटना से जोड़ने और खबरों को सुगढ़ता से तराशने में उनकी रुचि का अनुमान इस उदाहरण से लगाइए। श्रीलंका में अल्पसंख्यक तमिलों के उत्पीड़न और अमेरिका की बढ़ती पैठ पर विदेशमंत्री पीवी नरसिंह राव ने लोकसभा में वक्तव्य दिया, जिसका सार यह था कि भारत अपने आस-पास की घटनाओं पर आंखें मूंदकर नहीं बैठ सकता और राष्ट्रीय हितों की रक्षा वह हर हाल में करेगा। विदेशमंत्री के बयान या पीटीआई की कापी में मुनरो सिद्धांत का उल्लेख नहीं था। मैंने विश्लेषणात्मक समाचार बनाकर मुख्य उपसंपादक को दिया।फिर इसी पर लेख लिखने के लिए लाइब्रेरी में जाकर बैठ गया। लेख में याद दिलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने 1823 में अमेरिका के प्रभाव- क्षेत्र का ऐलान किया था;उसी तरह की घोषणा अब भारत ने की है। मेरा लेख मिलने तक माथुर साहब ने वह खबर नहीं पढ़ी थी।लेख देखकर उन्होंने कहा- ‘पहले पीटीआई की कापी और अपनी बनाई खबर लेकर आइए।’ तब उन्होंने लेख अगले दिन छापने का निर्णय लिया।

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अपने कार्यकाल में माथुर साहब को लगे कुछ झटके कुछ लोगों की चारित्रिक गिरावट की मिसाल बन गए। एक सज्जन से इन्दौर के दिनों से उनकी अच्छी मुलाक़ात थी।_ नवभारत टाइम्स ‘ में नौकरी करने के लिए वह महीनों संपादक के पीछे पड़े रहे। अंततः उन्हें नौकरी मिल गई। अन्य विषयों का उनका ज्ञान भले अच्छा रहा हो, अखबार में लेख लिखने के अलावा पत्रकारिता का उन्हें रत्ती भर भी ज्ञान नहीं था। ज्यादा वक्त नहीं बीता कि वह माथुर साहब के खिलाफ ही राजनीति करने लगे। वह एक बार रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली के बाहर भेजे गए। उनकी प्रकाशित रिपोर्ट बहुत खराब थी। संपादक ने उसकी कतरन नोटिस बोर्ड पर इस टिप्पणी के साथ लगाई- ‘ दैट इज़ हाऊ नाट टु राइट अ रिपोर्ट।’ इसके बाद माथुर साहब ने इतनी कठोर टिप्पणी किसी के काम पर नहीं की।

कोई कमजोर रिपोर्टर भी वैसी खराब कापी शायद नहीं लिखता ,जैसी कि उन्होंने लिखी थी।अपनी लाख कोशिशों के बावजूद वह संपादक की कुर्सी तक कभी नहीं पहुंच पाए। 2006 में संपादक मधुसूदन आनंद ने इन सज्जन के हस्तलेख में माथुर साहब को लिखा एक पत्र दिखाया था। इसमें रिरियाते हुए नौकरी मांगी गई थी।नौकरी मिल जाने के बाद वह माथुर साहब के खिलाफ गोटियां बिछाने लगे। उनकी ताकतवर लाबी संपादक के विरुद्ध इधर-उधर प्रचार करती थी, ’ राजेंद्र माथुर सिर्फ संपादकीय पेज के संपादक हैं और उसमें भी विचारों की उल्टी के अलावा और क्या होता है ? ’ संकीर्ण स्वार्थों से प्रेरित इस लाबी में अखबार और संपादकीय पेज में आ रहे परिवर्तनों को समझने की लियाकत नहीं थी।

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किसी भी संपादक की तरह माथुर साहब भी कंपनी के कारपोरेट हितों के दायरे में काम करते थे लेकिन उनमें भीरुता नहीं थी। रघुवीर सहाय के केस से इसकी पुष्टि होती है। सहाय जी को अपमानित कर ‘ दिनमान ‘ के संपादक पद से हटाकर ‘ नवभारत टाइम्स ‘ में भेजा गया था। मैनेजमेंट ने उन्हें साप्ताहिक परिशिष्ट का जिम्मा दिया था। प्रबंधन के लिए अवांछनीय बन चुके सहाय जी को अंततः नौकरी छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा। एक कप चाय के बिना वह टाइम्स हाउस से विदा किए जाते लेकिन इब्बार रब्बी ने सहाय जी की विदाई पार्टी का बीड़ा उठाया। आफिस के पीछे लान में आयोजन तय हुआ।बारिश के कारण लान गीला हो चुका था। हम लोग छपाई विभाग से रद्दी के गत्ते लाकर बैठे थे। माथुर साहब ने करीब आधे घंटे तक संबोधित किया। सहाय जी के कई पूर्व सहयोगियों ने टाइम्स की पुरानी बिल्डिंग से इधर आने का कष्ट नहीं उठाया था।

दिल्ली में हुआ माथुर साहब का वैचारिक कायांतरण

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‘नई दुनिया ‘ के संपादक रहे राजेन्द्र माथुर का ‘ नवभारत टाइम्स ‘ में वैचारिक कायांतरण जल्दी ही दिखाई पड़ने लगा। गोवध, हिंदू राष्ट्र की मांग, जनसंघ ( अब भारतीय जनता पार्टी ) के राजनीतिक चरित्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे मुद्दों पर अब पहले जैसी सोच उनकी नहीं रही। कभी-कभी आश्चर्य होता था कि इतिहास- बोध से संपन्न एक प्रखर लेखक कुछ विषयों पर आखिर क्या-क्या लिखने लगा है? संघ परिवार से जुड़े कई व्यक्ति क्यों नियुक्त किए जा रहे हैं? ऐसे एक सहयोगी के लेखन पर तो माथुर साहब लट्टू रहते थे। वह कहते थे, ’’ इनका लेखन किसी जुझारू सेना के आगे बढ़ते दस्तों की तरह है।‘’ एक दिन यही सहयोगी माथुर साहब के कक्ष में नेहरू जी को कोस रहे थे। मेरे कान में ये शब्द पड़े -” नेहरू पाश्चात्य सभ्यता से बहुत प्रभावित थे। उन्हें भारत की समझ नहीं थी।” मैंने प्रतिवाद किया,’’ अगर आप ने नेहरू जी की ‘डिस्कवरी आफ इंडिया ‘ पढ़ी होती तो ऐसी बात न कहते बल्कि सिर्फ उनकी वसीयत ही पढ़ लीजिए, आपका भ्रम दूर हो जाएगा। गंगा, हिमालय, भारत की प्राचीन सभ्यता और अतीत की उपलब्धियों का गौरव गान वहां मिलेगा। देश के गांव-गांव में पैदल खाक छानने वाला, सर्वस्व-लुटानेवाला नायक अगर भारत को नहीं समझ पाया तो फिर कौन इसे समझ पाएगा?‘’ इतना कह कर मैं बाहर आ गया। माथुर साहब की प्रतिक्रिया मुझे नहीं मालूम।अपने साथ हुई एक घटना का जिक्र समीचीन होगा। लखनऊ स्थानांतरण पर मुझे सीनियर सब एडिटर के लायक भी माना नहीं गया। एक महीने के अंदर मैंने इस्तीफा दे दिया। जाने से पहले मैंने कड़ी भाषा में विरोध दर्ज कराया। वह सुनते रहे।उनके अति संक्षिप्त उत्तर से मैं सन्न रह गया,’’ आप तो एंटी-इसटैबलिशमेंट हैं,फिर उसी से रिवार्ड की उम्मीद भी करते हैं? मेरिट में सिर्फ पढ़ाई-लिखाई शामिल नहीं होती।”

माथुर साहब के विचार बिलकुल बदल गए थे या तनी हुई रस्सी पर उन्हें चलना पड़ रहा था ? पक्के तौर पर जवाब देना कठिन है। तब तक सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में गुणात्मक तबदीली आ चुकी थी। इंदौर में शक्ति- समीकरण भिन्न थे।उनके दिल्ली आने तक भाजपा केंद्रीय सत्ता की भागीदार बन चुकी थी। उसके बढ़ते ग्राफ को देखकर अनुमान लगाया जाने लगा था कि अब वह केंद्र से अधिक समय तक दूर नहीं रहने वाली। सावधानी में चूक हुई और दुर्घटना घटी।

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कार्यवाहक प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पर माथुर साहब ने’ नवभारत टाइम्स ‘ के दिल्ली में हुए एक आयोजन में अपने सहज चुटीले अंदाज में टिप्पणी कर दी,जो उन पर चस्पां हो गई। चंद्रशेखर ने वहीं मंच पर अपनी नाराज़गी प्रकट करने मे संकोच नहीं किया।इसे अपने पद का अपमान तक माना।उच्च प्रबंधन तक बात गई। उन पर घातक मौखिक हमले किए गए। उनका चेहरा उन दिनों बुझ सा गया था। मैं उन दिनों ‘ दिनमान टाइम्स ‘ में था,जिसका आफिस 10, दरियागंज में था। लाइब्रेरी में जाकर पढ़ने, किताब इश्यू कराने- वापस करने, लेख देने या दोस्तों से मिलने बहादुरशाह जफर रोड पर हफ्ते में दो-तीन बार जाना हो जाता था। एक दिन लिफ्ट के पास माथुर साहब अकेले मिल गए। मैंने उनसे कहा, ” आपने छह साल पहले मेरे साथ अन्याय किया था । अब आपको इसका प्रायश्चित करना चाहिए।‘’ मेरी मंशा समझते हुए उन्होंने कहा, ‘फोन करके किसी दिन घर पर आइए।तब इतमीनान से बात करेंगे।’’

स्वास्थ्य विहार वाले किराये के घर में वह यादगार मुलाकात हुई। उसे याद कर आज भी मेरी आंखें नम हो जाती हैं।उस तरह के शब्द मैं उनके मुख से पहली बार सुन रहा था। उन्होंने लगभग स्वगतमुद्रा में कहा ,’’ मेरे पिता असिस्टेंट पोस्ट मास्टर थे …जीवन बहुत विचित्र होता है।टेढ़े-मेढ़े, ऊपर-नीचे, ऊबड़-खाबड़ रास्ते की तरह । कोई भरोसा नहीं, कब आप तिलचट्टा या केंचुआ बन जाएं ।फिर भी जिंदगी आसानी से चलती रहे।सीना तानकर खड़े हों,तब भी नौकरी चलती रह सकती है।नौकरी करते-करते अब मैं ऊब चुका हूं। आगे अब केवल लेखन करूंगा। ‘’ मैंने हस्तक्षेप करते हुए कहा ,’’ निश्चित ही आप विचारोत्तेजक किताब लिखने में समर्थ हैं पर उससे रोज़-मर्रा के खर्चे तो चलेंगे नहीं। यहां से जाने के बाद टाइम्स ग्रुप के दरवाजे आपके लिए हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। दो-चार हिंदी अखबार छापने लगें,तब भी खींच- खांचकर तीन हज़ार रुपये से ज्यादा आमदनी होना मुश्किल है।आपकी बेटियां अभी पढ़ रही हैं और मैडम नौकरी करती नहीं।‘’ यह सुनकर वह कुछ परेशान हुए। सुसंस्कृत माथुर साहब मुझे गेट तक छोड़ने आए। मैं जो निवेदन करने गया था, उसे करने की हिम्मत नहीं पड़ी।

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‘दिनमान टाइम्स ‘ में मेरा मन नहीं लग रहा था, हालांकि संपादक घनश्याम पंकज का व्यवहार मेरे प्रति अच्छा था।लखनऊ के दिनों से वह मुझे पसंद करते थे। मैं तो दैनिक अखबार में खबरों से खेलने और ज्वलंत विषयों पर लिखने का अभ्यस्त था। मेरी अभिलाषा ‘ नवभारत टाइम्स ‘ में सहायक संपादक पद की थी। मैं अगले दिन उनसे मिलने आफिस गया ।मैंने कहा था- ” माथुर साहब मैं यह याद दिलाने आया था कि मेरी एक अर्जी अरसे से आप के पास पड़ी है।‘’ उनका उत्तर था,’’ मैं आप का काम कर दूंगा लेकिन किसी और संपादक के साथ काम करने को तैयार रहिए।‘’ इतना कहकर उन्होंने जाने का इशारा किया।

करीब एक हफ़्ते बाद दूरदर्शन की रात नौ बजे वाली खबर सुनने के लिए जैसे ही टीवी खोला, एंकर के मुंह से सुना:’ नवभारत टाइम्स के संपादक… राजेन्द्र माथुर नहीं रहे ! मैं सीधे स्वास्थ्य विहार चल पड़ा। चंद्रशेखर जी,पुष्पांजलि अर्पित कर लौट रहे थे। पद की शान, दिखावा और आडंबर से दूर, माथुर साहब सादगी की मूरत थे। एक-दो बार आफिस की कार उपलब्ध न होने पर आफिस से घर तक पैदल निकल पड़े थे।

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जीवन के अंतिम दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। तबीयत ढीली होने के कारण उस दिन के लिए छुट्टी ली थी। दिन के समय सीने में दर्द होने पर सड़क पार कर पास के निजी अस्पताल तक गए।तब तक देर हो चुकी थी। जहां तक जानकारी है,उनका दिल की बीमारी का कोई इतिहास नहीं था।दफ्तर की राजनीति और उस दिन की घटना का शायद उन पर गहरा असर हुआ।शायद चंद्रशेखर के उस कठोर कथन के कारण भी स्थितियां प्रतिकूल हो गई थीं। उनके कुछ नज़दीकियों कहने लगे थे कि फलां-फलां भी माथुर साहब की इस आकस्मिक मृत्यु के दोषी हैं।उनके जीवनकाल में हर समय उनके कसीदे पढ़ने वाले दो प्रभावशाली व्यक्तियों से माथुर साहब के लेखों का संग्रह छपवाने का अनुरोध किया गया। वे इससे साफ कन्नी काट गए।बाद में मधुसूदन आनंद ने पहल की और उनके लेखों के तीन खंड प्रकाशित हुए।

सुदूर भविष्य पर निगाह थी माथुर साहब की

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किसी घटना पर त्वरित लेखन के साथ ही सुदूर भविष्य पर निगाह रखने वाले संपादक-लेखक बहुत कम मिलेंगे। गोवध निषेध आंदोलन पर अक्तूबर 1966 के अंत में लिखी गई माथुर साहब की टिप्पणी,आज 2022 के अंतिम चरण में भी उतनी ही प्रासंगिक है। इन्दिरा गांधी अभी भी डा. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में ‘ गूंगी गुड़िया ‘ थीं।कांग्रेस के भगवामय खेमे के हौसलों पर माथुर साहब ने लिखा,’’ साधु समाज के नेता और भारत के गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा आजकल गो-वध निषेध पर ज़ोरों से विचार कर रहे हैं। गो-वध निषेध के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा जवाहरलाल नेहरू थे। स्पष्ट ही नंदा जी अब सोचते हैं कि नेहरू को मरे इतने दिन हो गए हैं कि उनकी स्मृति को दफनाया जा सकता है।…. नंदा जी के पुनर्विचार का इशारा सांप्रदायिक पार्टियों को समझना चाहिए।अगर वे आंदोलन करें और देशभर में अनशनों तथा आत्महुतियों का तांता लगा दें,तो हो सकता है गुलजारी लाल नंदा और भी ज़ोरों से पुनर्विचार करें और चुनाव के पहले भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दें।‘’ लगता है वह इसे लिखते समय नेहरू के पथ से कांग्रेस के पूर्ण भटकाव को उस समय देख रहे थे। गाय पर राजनीति का विश्लेषण करते हुए उन्होंने 15 जनवरी 1967 को लिखा,’’ क्या जनसंघ के लोग इतना- सा नियम अपनी पार्टी के संविधान में बना सकते हैं कि जनसंघ का कर्मठ सदस्य बनने के लिए गाय को पालना जरूरी है ? क्या वे संकल्प ले सकते हैं कि विधानसभा का उम्मीदवार, पचास गायों की गोशाला कहीं न कहीं बनाए और संसद का सदस्य सौ गायों की ?इस आंदोलन में जनसंघ को किसी सरकारी मदद या अनुदान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि गांधी जी ने खादी के लिए कभी अंग्रेजों से अनुदान नहीं मांगा। जो लोग गाय के नाम पर वोट मांगते हैं,वे गाय के लिए कुछ रचनात्मक कुर्बानी करके दिखाएं।‘’ 2020-21 में उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में छुट्टा पशुओं से किसानों के लिए पैदा हुई समस्या और बड़ी संख्या में गोशालाओं में गायों की मौत का उन्हें उसी समय पूर्वानुमान था,’’ गो-वध निषेध का जनसंघ ने नारा लगाया है। ठीक है,कर दीजिए। जब तक गो पालन की उपयुक्त व्यवस्था नहीं हो पाती,तब तक इस नारे का क्या अर्थ होगा?अर्थ यह होगा, गायें भूसे और दुर्बलता से मरेंगी और कोसते हुए मरेंगी। वे छुट्टी छोड़ दी जाएंगी और लावारिस अवस्था में मरेंगी। इससे दर्दनाक और क्या होगा?….जनसंघ गाय के बहाने इस देश की दशा बिगाड़ने में मदद दे रहा है।‘’

पिछली शताब्दी के सातवें दशक में इंदौर जैसे साधारण शहर या हिंदी प्रदेश के किसी भी शहर में हिंदी के कितने, संपादकों, पत्रकारों या लेखकों ने नीरद चौधरी की चर्चित किताब ‘द कांटीनेंट आफ सरसी’ या 1962 के अपमानित कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल की पुस्तक ‘ अनटोल्ड स्टोरी आफ 1962‘ पढ़ी होगी ? इने-गिने लोग रहे होंगे। ‘अनटोल्ड स्टोरी ‘ पढ़ने के बाद माथुर साहब ने लिखा,’’नेहरू ने कह दिया कि हमने नेफ़ा से चीनियों को खदेड़ने का आदेश सेना को दे दिया है। नेहरू का यह बयान शताब्दियों तक स्मरणीय बना रहेगा, क्योंकि यह एक विवादास्पद विषय है कि इस बयान का 20 अक्तूबर,1962 के हमले से क्या संबंध था? लोग तो चुपचाप हमला करते हैं लेकिन नेहरू ने हमले की रत्ती भर तैयारी न होते हुए भी कह दिया कि हम चीन को खदेड़ रहे हैं। क्या चीन ने नेहरू की इस खोखली गर्वोक्ति का मज़ा चखने के लिए सीमित युद्ध किया ? क्या युद्ध हमने ही आमंत्रित किया था? ‘’ यह टिप्पणी माथुर साहब की गहरी समझ की तसदीक करती है। कई साल बाद नेविल मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक ‘ इंडियाज चाइना वार ‘ में चीनी सूत्रों के हवाले से यही लिखा। अमेरिकी इतिहासकार जान गार्वर ने 2001 में ‘ प्रोट्रैक्टेड कंटेस्ट ‘ में लिखा,’’ नेहरू के इस बयान के बाद माओ त्सेतुंग ने पालित ब्यूरो की बैठक में कहा,भारत के ऐसा झन्नाटेदार झापड़ मारो कि वह हमेशा याद रखे।‘’

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राष्ट्रीय स्वयं संघ के हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत और इसके लिए संघ परिवार के प्रयासों पर 2022 में लिखना आसान है। माथुर साहब ने जुलाई 1965 में लिखा था,’’जनसंघी दिमाग शायद सोचते हैं कि हिंदू राज्य बने बिना भारत इस दुष्टचक्र से नहीं निकल सकता लेकिन कोई हिंदू गणराज्य काश्मीर और नागालैंड को भारत में रखने का अधिकार नहीं रखता। फिर यह इतिहास से सिद्ध है कि हिंदू -प्रेरणा भारत को एक राष्ट्र- राज्य के रूप में कायम नहीं रख सकती। हिंदू धर्म कोई कठोर, सुपरिभाषित, इकरंगा धर्म नहीं है।वह कई जातीय और उपजातीय वफ़ादारियों का, आस्तिक-नास्तिक धर्मों का और मनमाने रीतिरिवाजों का एक समूहिक नाम है। तो भारत में कोई धार्मिक राज्य कायम हुआ तो वह हिंदू धर्म की तासीर के कारण कई जातीय उपराष्ट्रों में बंट जाएगा। इस्लाम और ईसाइयत और बौद्ध धर्म के आधार पर राज्य निर्माण करना अलग बात है और हिंदू धर्म के आधार पर निर्माण करना अलग बात। हम मान लेते हैं कि हिंदू धर्म हिमालय कि तरह भव्य और विविधतापूर्ण है लेकिन हिमालय अलग चीज़ है और भाखड़ा बांध अलग। हिंदू धर्म एक सांस्कृतिक चीज़ है,जो हजारों वर्षों के विकास से या जड़ता से बनी है,लेकिन राष्ट्र- राज्य एक कृत्रिम इमारत होती है,जिसमें राजनीतिक इंजीनियरिंग की जरूरत होती है और जिसे स्थिर रखने के लिए हज़ार प्रकार के संतुलन जरूरी होते हैं। ‘’

माथुर साहब के नजदीक रहे लोग बताते हैं कि वह नेहरूवादी थे। आज संघ परिवार चुन-चुन कर नेहरू पर प्रहार कर रहा है। एक थियरी यह दी जाती है कि उनके जीवन काल में ही नेहरू से मोहभंग होने लगा था।सितंबर,1969 में नेहरू पर माथुर जी की यह टिप्पणी आज भी प्रासंगिक है,” धर्म के मंत्र से ऊंचा राष्ट्रवादी मंत्र पढ़ने की कुछ कोशिश विज्ञानवादी नेहरू ने की थी लेकिन नेहरू बिलकुल नई जमीन पर थे और भारत का विज्ञान से कोई ताल्लुक नहीं था। फिर गांधी की तुलना में नेहरू बहुत कमजोर जादूगर थे और भारत का विज्ञान से कोई खास ताल्लुक नहीं था। नतीजा यह है कि सांप्रदायिक दंगे आज भी जारी हैं। ‘’लगता है, माथुर साहब भविष्य को देख रहे थे। संघ परिवार के उत्तरोत्तर विस्तार का बुनियादी कारण यही माना जा सकता है कि बहुसंख्यक समाज नेहरू के ‘ वैज्ञानिक सोच ‘ को पचा नहीं पाया । जिन चुनिंदा मुद्दों पर माथुर साहब के विचार हमने पेश किए, वे आधी शताब्दी बाद भी कमोबेश उतना ही ज्वलंत हैं। भविष्य पर इतनी अचूक निगाह और किसकी थी?

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राजेन्द्र माथुर का स्वर्णिम दौर

आनंद जैन के बाद कार्यवाहक संपादक का दायित्व मिला पहले से काम कर रहे एक सहायक संपादक को। प्रिंटलाइन में उनका पदनाम सहायक संपादक जाने लगा। इससे वह इतने अधीर हो गए कि एक-दो दिन बाद ही अपने चैंबर से उठकर कर संपादक के कमरा नंबर चार में बैठने लगे। चर्चा थी कि प्रबंधन के निर्देश बिना उन्होंने ऐसा किया था। कमरा नंबर चार में बैठने के बाद उन्हें विश्वमोहिनी और नारद की कहानी विस्मृत हो गई होगी, हालांकि उन्होंने ‘ रामचरित मानस ‘ का अनेक बार सस्वर पाठ किया था।इस कुर्सी पर उन्हें देखकर मुझे विश्वमोहिनी स्वयंबर की यह चौपाई हमेशा याद आती- ‘ देखि रूप मुनि बिरति बिसारी,बड़ी बार लगि रहे निहारी। ‘ चैंबर में जाने वाले हर सहयोगी को वह कानाफूसी के अंदाज़ में बताते- ‘ मैनेजमेंट की ओर से मेसेज मिला है,जल्द कन्फर्मेशन हो जाएगा।’ वह किसी भी आगंतुक को चाय पिलाए बिना जाने न देते थे। करीब डेढ़ महीने की मोहग्रस्त स्थिति के बीच एक दिन अचानक ‘ नई दुनिया ‘,इंदौर के संपादक राजेंद्र माथुर संपादक बन कर आने की चर्चा शुरू हो गई।

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माथुर साहब हिंदी पत्रकारिता के सुपरिचित नाम थे। विद्वतापूर्ण, धारदार लेखन के लिए पूरे हिंदी जगत में उनकी धाक थी। चेयरमैन अशोक जैन से मिलवाने के बाद एक प्रबंधक उन्हें लेकर संपादक के कक्ष में आए। संयोग से मैं उस दिन सुबह की ड्यूटी पर था। माथुर साहब से औपचारिक परिचय के फौरन बाद मेरे मन में प्रतिक्रिया हुई थी-‘विद्या ददाति विनयम। ‘ सत्ता- परिवर्तन से दुखी कुछ लटके हुए चेहरे भी मुझे याद हैं। पहली स्टाफ मीटिंग में संक्षिप्त संबोधन के बाद उन्होंने प्रश्न आमंत्रित किए थे। दो साल तक लेखन बंद रहने से क्षुब्ध मैंने पूछा था- ‘ संपादकीय पेज पर लिखने की आप की नीति क्या होगी,मेरिट या वरिष्ठता ?’ उन्होंने हंसते हुए उत्तर दिया था- ‘ लेखन का पद या वरिष्ठता से कोई संबंध होता नहीं।संपादकीय पेज सबके लिए समान रूप से खुला है। ‘

जल्द ही मैंने महसूस किया कि माथुर साहब पठन-पाठन के मामले में अप्रतिम हैं। उनका रिश्ता जिन दो पेशों से रहा-उन दोनों का संबंध बौद्धिकता से था-अध्यापन और पत्रकारिता।अंग्रेजी में एमए करने के बाद वह इंदौर के एक निजी कालेज में प्रवक्ता हो गए थे। इसी बीच ‘ नई दुनिया ‘ में नियमित लेखन करने के बाद वहां बैठने भी लगे। कुछ समय पश्चात कालेज की नौकरी छोड़ पूर्णकालिक रूप से संपादक बनकर ‘ नई दुनिया ‘ में आ गए। वाया ‘ नई दुनिया ‘, वह ‘ नवभारत टाइम्स ‘ के संपादक न बनते तो हिंदी पत्रकारिता एक अनमोल रत्न से वंचित हो जाती। इंदौर में रहते हुए उन्हें वह ख्याति कतई न मिलती,जो दिल्ली आने पर उन्हें मिली और एक बड़ा क्षेत्र काम करने को मिला। प्रारंभिक दिनों में ही अंतरराष्ट्रीय विषयों में उनकी गहरी रुचि और पकड़ ने मुझे चकित किया था। लखनऊ और दिल्ली की तरह इंदौर में ब्रिटिश और अमेरिकन लाइब्रेरी नहीं थी। ‘न्यूज़ वीक ‘ और ‘टाइम ‘ को छोड़ शायद ही कोई अन्य विदेशी पत्रिका इंदौर में पहुंचती रही होगी। फारेन अफेयर्स, फारेन पॉलिसी, लंदन के ‘ टाइम्स ‘ और ‘ टेलीग्राफ ‘, ‘वाशिंगटन पोस्ट ‘ और ‘न्यूयार्क टाइम्स ‘ उपलब्ध रहते नहीं होंगे। उन्होंने मुझे बताया था कि वह लंबे वक्त से बीबीसी और वायस आफ अमेरिका रोज़ सुनते रहे हैं। यह माथुर साहब की अद्भुत दूरदृष्टि और विश्लेषण क्षमता का परिचायक है कि दो बुलेटिनों, अंग्रेजी अखबारों में छपने वाली खबरों और हद से हद ‘टाइम ‘ और ‘ न्यूजवीक ‘से प्राप्त जानकारी के आधार पर वह अंतरराष्ट्रीय विषयों पर इतना बढ़िया लेखन करते थे। जुटाई गई जानकारी और कई अखबारों में काम करने के नाते मेरा निष्कर्ष है कि उनसे पहले किसी भी हिंदी अखबार में इतना अच्छा लेखन अंतरराष्ट्रीय विषयों पर नहीं हुआ। दिल्ली आने के बाद’ टाइम्स आफ इंडिया ‘ में उनके दो लंबे लेख छपे। एक लेख था- राजनीति और गांधीवादी नैतिकता पर। नए संपादक के बौद्धिक जगत में अपनी जगह बनाने के लिए मैंने उनके सामने टिप्पणी की थी,’ टाइम्स हाउस और राष्ट्रीय राजधानी में अपना खाता खोलने का यह खूबसूरत तरीका है।‘ इस पर वह उन्मुक्त कंठ से हंसे थे। मुझसे कहा था-‘आप लिखना शुरू करिए। ‘

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अच्छी किताब या किसी नए विषय पर लेख देखकर माथुर साहब प्रसन्न होते थे। मैं अपना पहला लेख अछूते विषय पर देना चाहता था। ईरान में शिया धार्मिक नेता आयतुल्ला खुमेनी के नेतृत्व में हुई शाह- विरोधी क्रांति के बाद वहां की कम्युनिस्ट पार्टी (तूदेह) का दमन शुरू हो गया था। कई हल्कों में तूदेह की ‘कमअक्ली ‘ को रेखांकित किया जा रहा था क्योंकि अमेरिकापरस्त शाह का तख़्ता पलटने में उसने आयतुल्ला का साथ दिया था। अगले दिन मैंने इसी पर उन्हें लेख दिया था। मेरा तर्क था : ‘ जब अमेरिका का गढ़ टूट रहा हो, अबादान के तेल कारखानों के मजदूर हड़ताल में शामिल हो रहे हों और आयतुल्ला अमेरिका को शैतान (इस्लामी शब्दावली में शैतान बहुत निंदात्मक शब्द है ) घोषित कर चुके हों, तब कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी वही करती,जो तूदेह ने किया।’ वह लेख उन्हें काफी पसंद आया। उसी दिन उन्होंने लेख लगवा दिया।जर्मनी में डोएचे वेले में कार्यरत विष्णु नागर ने भारतीय दूतावास में वह लेख पढ़कर मुझे लिखा था,’वहां इस तरह का लेख तुम्हीं लिख सकते हो।‘

माथुर साहब के आने तक’ नवभारत टाइम्स ‘ में परंपरा थी कि संपादकीय पेज एक दिन पहले तय होता था। शाम छह बजे के बाद अग्रलेख लेखक दिखाई नहीं पड़ते थे। बड़ी से बड़ी घटना हो जाए, संपादकीय बदलने का विचार ही नहीं आता था।उन्होंने यथास्थिति को तोड़ा। खुद देर तक बैठते थे तो मजबूरन सहायक संपादक को भी बैठना पड़ा। महीने में कई बार दोपहर का संपादकीय शाम तक बदल दिया जाता था। प्रायः’ टाइम्स आफ इंडिया ‘ में यह नहीं होता था। उपलब्धता के अनुसार वह मुख्य लेख भी बदलवा देते।

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माथुर साहब के आने का एक परिणाम यह भी हुआ कि निर्जीव ब्यूरो में थोड़ी-थोड़ी हरकत होने लगी। कुछ नए सहयोगियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की होड़ पैदा हुई। विज्ञप्तियों और एजेंसी की खबरों के सहारे रहने के अभ्यस्त ब्यूरो में बुनियादी परिवर्तन मुमकिन नहीं था। ‘राष्ट्रीय दैनिक ‘का ब्यूरो किस प्रकार काम करता था,इसकी एक दिलचस्प मिसाल :खुशमिजाज़ मुख्य उप संपादक दीवान द्वारका खोसला जब कभी, दोपहर की ड्यूटी में होते, समाचार एजेंसियों, खासतौर की खबरें दबा देते।’ एक विशेष संवाददाता उन्हें मनाने की खूब कोशिश करते। चाय-समोसे पर समझौते के बाद एजेंसी की सामग्री उन्हें दी जाती। तुर्रम खां टाइप एक संवाददाता संपादक के बहुत नजदीक होने का आभास कराते थे। कम स्पेस वाले अखबार में उनकी कोई भी रिपोर्ट डेढ़ हज़ार शब्दों से कम न होती थी। थोड़ा भी कट जाने पर हंगामा करते। ज़ोर-ज़ोर से कहते, ‘ डेस्क के बाबुओं को खबर की समझ नहीं। ‘ अक्खड़ मुख्य उपसंपादक जयदत्त पंत यह सुनकर आपा खो बैठे। उन्होंने उसे अंग्रेजी में डांटना शुरू कर दिया। फिर मुझसे कहा,’ इसे 500 शब्दों में रिराइट कर दो।याद रखना, कोई महत्वपूर्ण बिंदु छूटने न पाए। अगले दिन दफ्तर में वह संवाददाता इतना चीखे-चिल्लाए कि भीड़ इकट्ठा हो गई। पंत जी मूल कापी संपादक को यह कहकर दे आए कि ‘ फैसला कीजिए,आप के ही पैमाने पर सही कौन सी कापी है! ‘ संपादक ने उस संवाददाता को अपने चैंबर में बुलवाया। उस दिन से वे संवाददाता पांच- छह सौ शब्दों में लिखने लगे। डेस्क से टकराव में मुंह की खाने के बाद उनका नशा हमेशा के लिए उतर गया । इस घटना के कारण मुझसे उनकी मुस्तकिल दुश्मनी हो गई।

ब्यूरो की सीमाओं का अहसास माथुर साहब को पहले महीने में ही हो गया था। इसका प्रमाण मिला तब ,जब उन्होंने असम के ऐतिहासिक आंदोलन को कवर करने के लिए मध्य प्रदेश के एक लेखक-पत्रकार को भेजा। पांच किस्तों में छपी रिपोर्ट में असम आंदोलन आवश्यक परिप्रेक्ष्य और विश्लेषण के साथ पहली बार हिंदी पाठकों के सामने आया। उससे लाभान्वित होने के बजाय कई जड़ सहयोगी रोज़ छिद्रान्वेषण किया करते। इनमें वे भी थे, जो पांच सही वाक्य तक नहीं लिखना नहीं जानते थे। इस कवरेज के लिए लेखक ने दस हज़ार रुपये का बिल पेश किया। आने-जाने, होटलों में रुकने और संवाद भेजने की दृष्टि से यह व्यय अधिक नहीं था। फिर भी वित्त विभाग ने इसे रोक लिया। उत्साही संपादक को मुंबई स्थित जनरल मैनेजर राम तरनेजा ( तब टाइम्स ग्रुप में मालिकों के बाद सबसे बड़ा पद यही होता था ) से यह बिल पास करवाना पड़ा। इब्तिदाए इश्क खराब हुई। इसके बाद माथुर साहब ने किसी बाहरी व्यक्ति को असाइनमेंट नहीं दिया।

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