इतने महान भी नहीं थे भक्तों के सहारा श्री

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अरूण श्रीवास्तव-

सा क्यों कि, हर कोई मरने के बाद स्वर्गीय (नरकीय नहीं) हो जाता है और हर कामयाब व्यक्ति महान बन श्रद्धांजलि पाने का हकदार बन जाता है। ऐसे ही एक कामयाब व्यक्ति रहे ‘बाबा-ए-रोजगार’ सुब्रत/सुब्रतो राय। गत दिनों इनका निधन हो गया। दिनों के बजाए वर्षों हुआ होता चहुंओर उनकी कामयाबी की ही चर्चा होती। दूसरा पक्ष सामने आ ही नहीं पाता।

उनका बखान वो करें जो उपकृत हुए हो उनसे
मैं न उनसे उपकृत हुआ मैं न उनका बखान करूं

सहारा इंडिया में ऐसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है जो किसी न किसी के करीबी या करीबी के करीबी रहे हैं। जिन्होंने करीबी होने के कारण नौकरी पायी या टिके रहे उनके लिए अपने सहारा श्री का यशोगान कर एहसान का बोझ हल्का करने का सुनहरा मौका है। गुणगान करें पर उनका भी सोचें जिनकी जमा-पूंजी डूब गई है, जो नौकरी से निकाल दिये गए थे।

राष्ट्रीय सहारा (अखबार) का हिस्सा मैं भी रहा हूं। मुझे नौकरी से निकलने के लिए मजबूर नहीं किया गया और न ही तथाकथित ‘सेफ एग्जिट प्लान’ का लालच देकर बाहर का रास्ता दिखाया गया। बल्कि, मुझे बिना कारण बताए, बिना कोई आरोप लगाये, बिना आरोप की जांच कराये 24 साल की नियमित सेवा से दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल दिया गया। मुझे ही नहीं राष्ट्रीय सहारा की हर यूनिट से थोक में लोगों को नौकरी से निकाला गया, बड़ी संख्या में लोगों को मजबूर कर इस्तीफे लिखवाए गए जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं। सेवानिवृत्त होने के बाद अपनी सेवाएं दे रहे काफी लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया गया। धीरे-धीरे कर सुविधाएं समाप्त की गईं, फिर भत्ते खत्म किए गए। 2023 की दीपावली पर कर्मचारियों को बोनस भी नहीं दिया गया जबकि घाटे के बावजूद 8.3% बोनस देना अनिवार्य है। सहारा ने 2015 से सरकारी खजाने में पीएफ नहीं जमा किया। सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारियों को उनका बकाया नहीं दिया जा रहा है। दो-तीन कर्मचारी राष्ट्रीय सहारा देहरादून संस्करण में भी हैं जो सेवानिवृत्त तो हो गए पर एक दमड़ी नहीं मिली अपने उस संस्थान से जहां घंटों पसीना बहाया है, उसके मुनाफे के लिए। मार्क्स के अनुसार अपने कार्य दिवस का एक बड़ा हिस्सा कर्मचारी अपने मालिक के मुनाफे के लिए करता है।

सहारा श्री का गुणगान करने वाले बताएंगे कि उन कर्मचारियों की क्या खता थी जिनका वेतन न मिलने के कारण जान चली गई या जान दे दी? उस कर्मचारी की क्या खता जिसने लखनऊ स्थित सहारा के एक कार्यालय से कूद कर अपनी जान दे दी? ऐसे कर्मचारियों की संख्या भी कम नहीं जिनके बच्चों की पढ़ाई सालों से वेतन न मिलने के कारण बाधित हो गई।

दरअसल राष्ट्रीय सहारा एक अखबार होते हुए भी अखबार रहा नहीं या यूं कहें कि इसे अखबार रहने ही नहीं दिया गया। हमेशा इसे अपना औद्योगिक हित साधने का हिस्सा बनाए रखा गया और आज भी यह इसी काम में व्यस्त है, नहीं तो, सहारा के पास पैसे की कमी न थी और ना है कि वह समय के साथ-साथ नई-नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करता अच्छे लोगों को अखबार की कमान देता। अच्छा नायक अच्छा ही करता। पर टॉप प्रबंधन ने ऐसा नहीं किया इसलिए ‘राष्ट्रीय सहारा न एक अखबार हो पाया और न ही रचनात्मक आंदोलन।’ क्षेत्रवाद, जातिवाद और भाई-भतीजावाद से सहारा इंडिया की इकाई राष्ट्रीय सहारा भी ग्रसित थी।

शायद इन्हीं वादों का नतीज़ा था कि जहां सहारा इंडिया में गोरखपुर सहित पूर्वांचल तथा बंगाली पृष्ठभूमि के लोग भरे पड़े थे और अब भी होंगे। राष्ट्रीय सहारा में ब्राह्मणों और कायस्थों की भरमार थी। दिल्ली और लखनऊ के संपादक ब्राह्मण थे और गैर संपादकीय मुखिया श्रीवास्तव थे इसलिए ब्राह्मणों और लालाओं की पौं बारह थी। सबसे ज्यादा भर्तियां हिंदी दैनिक आज और दैनिक जागरण में काम करने वालों की हुई। सहारा मीडिया के मुखिया आज अखबार से आये थे और गोरखपुर के रहने वाले थे। दिल्ली संस्करण के संपादक माधव कांत मिश्र आज अखबार से थे तो लखनऊ संस्करण के सुनील दुबे दैनिक जागरण से आए थे। हां एक बात और राष्ट्रीय सहारा में अधिकारियों की कमी नहीं थी। मैनेजर, विज्ञापन मैनेजर, सर्कुलेशन मैनेजर, एकाउंट्स मैनेजर, एच आर मैनेजर, इन मैनेजरों के असिस्टेंट भी थे। मुख्य मैनेजर और संपादक को पीए और कार भी मिली थी मय चालक के। मैं हिंदी दैनिक आज इलाहाबाद से आया था। वहां पर एक एकाउंटेंट कम कैशियर थे। मैनेजर और संपादक किसी को गाड़ी नहीं मिली थी तब पीए और ड्राइवर सपना था। बताते चलें कि हिंदी दैनिक आज पूर्वांचल का लोकप्रिय अखबार हुआ करता था और उस समय लगभग डेढ़ दर्जन शहरों से छपता था।

दरअसल सहारा अखबार को अच्छे लोगों की जरूरत नहीं थी, जो अच्छे लोग थे उनका यहां के माहौल में दम घुटता था। हिंदी के बड़े कथाकार कमलेश्वर ने अखबार शुरू होने से पहले ही अपने आपको अलग कर लिया तो अरुण कमल, मंगलेश डबराल भी अधिक समय तक नहीं रुक पाए। जनसत्ता से आये मनोहर नायक ने भी जल्दी किनारा कर लिया यही हाल प्रमोद जोशी और नवीन जोशी का हुआ। कारण सहारा को अच्छे लोग नहीं ‘यस मैन’ चाहिए था। यही कारण है कि ब्यूरो में रिपोर्टर रहे रणविजय सिंह ने समूह संपादक तक की यात्रा तय कर ली। कमलेश्वर से शुरू हुआ दिल्ली का राष्ट्रीय सहारा आज रत्नेश मिश्रा के कंधों पर टिका है तो लखनऊ का सुनील दुबे से शुरू होकर मनमोहन के कंधों पर, कब तक टिका रहेगा कोई नहीं जानता।

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Comments on “इतने महान भी नहीं थे भक्तों के सहारा श्री

  • Mithilesh Suman says:

    एक विद्वान और सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति को चांद दिनों अथवा एक या दो महीने में ही काम करने वाले जगह के बारे में पता चल जाता है। कोई अपने जीवन के अनमोल 20 वर्ष लगा दे रहा है इसका मतलब है कि उसमे काबिलियत नहीं है। वह जाइए तैसे दिन काट रहा है। अपनी नाकामयाबी का ठीकरा दूसरे पर नहीं फोड़ना चाहिए। जातिवाद के नाम पर समाज में जहर घोलने का प्रयास करना मानसिक दिवालियापन को उजागर करता है।

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