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सुख-दुख

कोरोना पर केंद्रित सुशोभित की ये चार पठनीय पोस्ट जरूर पढ़ें

सुशोभित

पोस्ट 1- जैसे नियमित व्यायाम नहीं करने से मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, वैसे ही बुद्धि भी नियमित व्यायाम नहीं करने से रूढ़ हो जाती है। बुद्धि को प्रश्नों और जिज्ञासाओं से चुनौती मिलती है। बुद्धि के परिमार्जन के लिए विमुक्ति का वह अनुभव आवश्यक है। किंतु इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक बीस सालों में, ऐसा मालूम होता है, हमने बुद्धि के बजाय जड़ता का अभ्यास अधिक किया है। उसी के परिणाम आज देखने को मिल रहे हैं, जब एक वैश्विक महामारी मुंह बाए खड़ी है और हमारी बुद्धि उसे उसके वैश्विक और मानवीय आयामों में देखने में समर्थ ही नहीं हो पा रही है। हमारे औज़ार भोथरे साबित हो रहे हैं।

बुद्धि की जड़ता से ही इस तरह की बातें कही जाती हैं कि आज संसार हाथ मिलाने के बजाय नमस्कार करने को विवश हो गया है, यह भारतीय संस्कृति का गौरव है। जैसे कि विषाणु भारतीयों को संक्रमित करने से बख़्श देगा? या यह कि केंद्र सरकार ने मेरी कॉलर ट्यून कैसे बदल दी, यह मेरी निजता में हनन है! कोई मुझे फ़ोन लगाए तो खांसने-खंखारने की आवाज़ उसे क्यूँ सुनाई देती है? जैसे कि यह संसार एक जलसाघर है, जिसमें आपकी अभिरुचि से बड़ा कोई चिंतन मनुष्य के सामने नहीं? या आपकी राजनीतिक निष्ठा ही सर्वोपरि है?

बौद्धिक जड़ता की मिसाल तब मिली जब उन्होंने कहा, यह विषाणु चीन को ईश्वर का शाप है, क्योंकि उसने शिनशियांग में अत्याचार किए थे। फिर वैसा कहने वाले स्वयं विषाणु से संक्रमित हो गए। यक़ीनन, उनके ईश्वर उनसे भी बहुत ज़्यादा प्रसन्न नहीं मालूम होते थे। एक जड़ता ने कहा, तुम्हारा धर्मस्थल तो रिक्त हो गया, हमारे धर्मस्थल में देखो, कैसा रंग-गुलाल है। दूसरी जड़ता ने कहा, डैमोक्रेट्स होते तो बीमारी नहीं फैलती, रिपब्लिकन्स और उनका मंदबुद्धि नेता इस आपातकाल के लिए ज़िम्मेदार है। तीसरी जड़ता बोली, चमकी बुख़ार से इतने बच्चे मर गए, तब तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। शायद बीमारियों के भी स्टेटस होते हैं। चौथी जड़ता बड़े आत्मविश्वास से बोली, यह रोग किसी ज्वर से अधिक नहीं, किंतु नक़ाबों की बिक्री के लिए झूठ रचा गया!

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जब मनुष्य की बुद्धि, जो कि इस सृष्टि का सबसे बड़ा कौतूहल है, किसी वस्तु या घटना का आमने-सामने, उन्मुक्त साक्षात् नहीं करके उसे किसी चश्मे से देखने की अभ्यस्त हो जाती है, तब वो इस तरह की बातें करती है। यह बुद्धि स्वयं को किन्हीं जातीय-सामुदायिक-राजनीतिक पहचानों के अनुक्रम में देखने की इतनी आदी हो चुकी होती है कि एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में स्वयं को पाकर सहसा किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। उसकी स्थिति उस विदूषक की तरह हो जाती है, जिसे एक शोकसभा में व्याख्यान देने के लिए खड़ा कर दिया गया है, किंतु उसको केवल लोगों को हंसाना ही आता है। अब वह क्या कहेगा, कैसे कहेगा, चुप ही क्यूं न रह जाएगा?

किंतु विषाणु तो समस्त भ्रमों से मुक्त है। वह आपको जानता तक नहीं। आप उसके लिए एक माध्यम हैं। लिविंग सेल्स का एक संगठन, जो उसके प्रसार के लिए उपयोगी है। जैसे मनुष्य प्रोटीन की प्राप्ति के लिए नि:शंक होकर पशुओं की हत्या करता है और उनके शुभ का एकबारगी चिंतन नहीं करता, उसी तरह यह विषाणु अपने री-प्रोडक्शन के लिए आपके जैविक-तंत्र का विघटन करेगा। वह प्रकृति के नियमों के अधीन है। और प्रकृति स्वयंसिद्ध है!

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और, अलबत्ता, प्रखर बुद्धि वाले की जान बख़्शी नहीं जाएगी, फिर भी मनुष्य को अपनी बुद्धि का अभ्यास करते रहना चाहिए। क्योंकि वह मनुष्य है। क्योंकि उसका समूचा इतिहास ही अपनी बुद्धि के परिमार्जन का रहा है। यही उसका अभिमान भी है। अब इतनी लम्बी यात्रा करने के बाद वह पीछे नहीं हट सकता। इंटरनेट पर स्वयं को जड़बुद्धि की तरह प्रस्तुत करके वह संतोष से नहीं भर सकता।

वैश्विक महामारी सम्मुख हो या न हो, केवल ये ही प्रश्न पूछे जाने जैसे हैं- क्या सच में ही कहीं पर कोई ईश्वर है? जिस भूखण्ड पर मेरा जन्म हुआ, क्या मैंने उसका सचेत चयन किया था? जिन रीतियों का मेरे पुरखे पालन करते रहे, क्यों वो मेरे माध्यम से स्वयं को जिलाए रखेंगी? मैं कौन हूं? जन्म से पूर्व मैं कहां था, मृत्यु के बाद कहां जाऊंगा? इस धरती पर मेरे होने का क्या प्रयोजन है?

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हमें अब भी धर्म, जाति, राष्ट्र, समुदाय, राजनीति के चश्मे से देखकर स्वयं को “एम्बैरेस” नहीं करना चाहिए। वुहान से विकसे विषाणु के समक्ष यह, आख़िरकार, मनुष्य की अस्मिता का प्रश्न भी है!


पोस्ट 2- कोरोना वायरस का केंद्र पश्चिम दिशा में खिसक रहा है. चीन कह रहा है कि हम सबसे बुरा दौर देख चुके हैं! किंतु अब यूरोप दुनिया में कोरोना का एपिसेंटर बन चुका है. वुहान से वेनिस तक की यात्रा पूरी कर ली गई है! इटली में हज़ार मृत्युओं के बाद कम्प्लीट लॉकडाउन की स्थिति है और लोगों ने ख़ुद को अपने-अपने घरों में क़ैद कर लिया है. अमेरिका ने 50 मौतों के बाद नेशनल इमरजेंसी घोषित कर दी है. भारत में अभी खाता खुला ही है, किंतु जैसे-जैसे संख्या बढ़ेगी, सामूहिक सम्भ्रम और वाइड स्प्रेड पैनिक का दृश्य निर्मित होगा.

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कोरोना के बारे में तमाम मालूमात हासिल करने के बाद दुनिया के लोग इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि अगर हम स्वयं को सबसे अलग कर लेंगे और घरों में क़ैद हो जाएंगे तो हम संक्रमण से सुरक्षित रहेंगे. तकनीकी रूप से यह तर्क ठीक मालूम होता है, किंतु अगर आधुनिक मनुष्य की समस्याएं इतनी ही सरल होतीं तो बात क्या थी. युवल नोआ हरारी का कहना है कि अगर आप फिर से पाषाण युग में जाने को तैयार हैं तो स्वयं को बंद कर लीजिए. किंतु आधुनिक वैश्वीकृत मनुष्य को तो घर से निकलना ही होगा.

इटली में उन्होंने चौदह दिनों का क्वारेन्ताइन तय कर लिया है. कि चौदह दिन हम घर से नहीं निकलेंगे. वहां सड़कों पर भुतहा सन्नाटा व्याप्त हो गया है. इससे सरकार यह मान सकती है कि संक्रमितों की संख्या अब एक बिंदु पर आकर फ्रीज़ हो जाना चाहिए. पहले आपात स्थिति से निबटें. चौदह दिन के निर्वासन के बाद शेष की समस्या सुनी जाएगी.

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अगर भारत भी इस डगर पर चला तो यह निश्चय है कि सेवा क्षेत्र में “वर्क फ्रॉम होम” की कार्य संस्कृति सुदृढ़ होने जा रही है. पहले ही इसका व्यवहार असंगठित रूप से किया जा रहा था. लैपटॉप और इंटरनेट से घर बैठे काम करने वाला एम्प्लायी ड्राइव करके दफ़्तर जाने और ख़ुद को वायरस के लिए एक्सपोज़ करने की तैयारी नहीं ही दिखाएगा. मरण तो रोज़ कुआ खोदकर पानी पीने वाले दिहाड़ी मज़दूर का है.

कोरोना पर वैश्विक चिंता के केंद्र में केवल लोक-स्वास्थ्य ही नहीं है. धड़कते दिल से दुनिया अर्थव्यवस्था पर नज़र जमाए है और उसे धीरे धीरे ध्वस्त होते देख रही है. पहले ही ग्लोबल इकोनॉमी बहुत अच्छी हालत में नहीं थी. 2020 को सुधार का साल होना था, किंतु यह 2008 के बाद सबसे बड़ी चुनौती की तरह सामने आया है. कौन जाने, यह भूमण्डलीकरण के तीस साल के इतिहास का सबसे बड़ा संकट सिद्ध हो.

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जब लोग ख़ुद को हफ्ता-पखवाड़े के लिए घर में क़ैद करने की तैयारी करेंगे तो वो “सीज-मेंटेलिटी” में सरक जाएंगे. पुराने वक़्तों में जब शहर की घेराबंदी होती थी तो अवाम चौमासे की रसद लेकर क़िले में चली जाती थी. मौजूदा दौर में यह सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बनने जा रहा है. लोग तालाबंदी करेंगे तो जमाख़ोरी को बढ़ावा मिलेगा. जितना मैं भारत देश को समझता हूँ, जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी पहले ही शुरू हो चुकी होगी. ज़रूरत की चीज़ों के दाम तेज़ी से बढ़ेंगे. बाज़ार में अप्रत्याशित मांग का सामना फ़र्ज़ी क़िल्लत से होगा. वॉर प्राफ़िटीयरिंग की तर्ज़ पर आपदा से मुनाफ़ा कमाने वाली ताक़तें सक्रिय हो चुकी होंगी. क्या सरकार इसके प्रति सजग है?

अनेक मित्रों ने चिंता जताई है कि कोरोना पर इतना हाहाकार क्यूँ? वो कह रहे हैं कि जिस देश में दंगों, सड़क हादसों, बुख़ार से लाखों लोग मर जाते हैं, उसमें विदेशी विषाणु पर हायतौबा क्यूँ मचाई जा रही है. पता नहीं वो महामारी शब्द का अर्थ समझते हैं या नहीं. कोई भी आपदा अपने स्वरूप में बाहरी संकट प्रस्तुत करती है, जबकि महामारियां एक जटिल, अंदरूनी, साभ्यतिक मसला हैं और संक्रमण की प्रविधि आणविक विस्फोट से कम नहीं होती.

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मनुष्य का मनोविज्ञान यह है कि नगर में हादसा हो तो वह अपने परिजनों की कुशलक्षेम के लिए अकुलाता है. वो सकुशल घर लौट आएं तो निश्चिंत हो जाता है. फिर वह भले ही कितनी चिंता औरों के लिए जताता रहे, उसका दायरा मैं और मेरा परिवार तक सीमित रहता है. संक्रामक महामारियां इस निश्चिंतता में सेंध लगाती हैं. यह चार दिन चलकर रुकने वाला दंगा या बलवा नहीं है, यह नित्यप्रति अपने प्राणों की रक्षा करने की चुनौती है.

इससे पहले आख़िरी बार कब एक वैश्विक महामारी ने दुनिया को अपनी गिरफ़्त में लिया था? बीसवीं सदी के आरम्भ का स्पैनिश फ़्लू? इक्कीसवी सदी का स्वाइन फ़्लू? यक़ीन मानिए, नॉवल-कोरोनावायरस इनसे आगे की चीज़ है. आज ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा, यह विषाणु ऊष्ण मौसम में भी पनप सकता है. तिस पर किसी ने अंदेशा जताया, तब तो हो ना हो यह एक मैन्युफ़ैक्चर्ड वायरस है, इसका कार्य-व्यवहार सर्वथा नया और अप्रत्याशित है. तो क्या चीन के पीले दैत्य ने दुनिया को एक घोर संकट में धकेल दिया है?

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यह तो समय ही बताएगा. किंतु तब तक सतर्कता की लाठी थामकर ही सबने इस डगर पर चलना है!


पोस्ट 3- कोरोना वायरस पर युवल नोआ हरारी ने सर्वथा भिन्न दृष्टि प्रस्तुत की है। हरारी ने कहा है कि अगर आप सोचते हैं स्वयं को सबसे अलग-थलग करके इससे बच जाएंगे, तो यह आपकी भारी भूल है। चौदहवीं सदी में, जब न रेलगाड़ियां थीं, न हवाई जहाज़, एशिया से शुरू हुआ प्लेग यूरोप तक फैल गया था और इसने साढ़े सात करोड़ लोगों की जान ले ली थी। इसे इतिहास में ब्लैक डेथ के नाम से जाना जाता है। जब साल 1330-1350 में यह स्थिति थी, तो आज इक्कीसवीं सदी की भूमण्डलीकृत दुनिया में भूल ही जाइये कि आप सबसे कटकर बच जाएंगे।

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हरारी का कहना है कि वास्तव में ज़रूरत इससे ठीक विपरीत की है। हमें बंद होने की नहीं, अधिक से अधिक खुलने की आवश्यकता है। मनुष्यता को स्वयं को एक जाति मानना ही होगा, पूरी दुनिया को मिलकर इसका हल खोजना होगा, एक-दूसरे से निरंतर संवाद करना होगा, तभी इसका बेहतर ढंग से सामना किया जा सकता है। सरकारों पर बड़ी ज़िम्मेदारी है।

निश्चय ही, जब हरारी यह कह रहे थे, तो वे इस पर विश्वास नहीं कर रहे थे। कोई भी नहीं कर सकता। यह राजनीति की अग्निपरीक्षा है, और राजनीति ऐसी परीक्षाओं में विफल रहती है। आज दुनिया अनेक राष्ट्रों में बंटी हुई है, उन सभी की अपनी-अपनी सरकारें हैं, उन सरकारों के अपने निजी हित और न्यस्त स्वार्थ हैं। मानव-संयोजन में ये सरकारें अत्यंत विफल सिद्ध होती हैं, वास्तव में वे विघटन की दृष्टि से सोचती हैं और मनुष्यता के निकृष्ट आयामों का आह्वान करके अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं। आज तो उलटे संरक्षणवादी प्रवृत्तियां प्रबल हो चुकी हैं, और सभी राष्ट्र अपना हित पहले सोचते हैं। इंडिया फ़र्स्ट और अमेरिका फ़र्स्ट के इस दौर में यह वैश्विक संकट सामने आया है, जबकि राजनेता अपनी सरकार बचाने की फ़िराक़ में रहते हैं और कोई भी आपदा सामने आने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया उसके वजूद से इनकार करने की होती है।

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ईरान में यही हुआ है। कोरोना वायरस का पता चलने के बावजूद वहां की सरकार लम्बे समय तक चुप रही। और अब वहां हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं। इटली में वे युवाओं को बचाने के लिए बूढ़ों को मर जाने दे रहे हैं। यह नात्सी-विचार की वापसी है, जिसमें ऑश्वित्ज़ के रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर सिलेक्शन-प्रक्रिया के दौरान कहा जाता था कि बूढ़ों को गैस चेम्बर में भेज दो और नौजवानों को काम पर लगाओ। उपयोगिता का सिद्धांत ऐसे ही काम करता है। उपयोगिता के सिद्धांत के कारण ही चीन, जो कि इस पूरी बीमारी की जड़ है, से यह ख़बर आई थी कि कोरोना संक्रमण से ग्रस्त मनुष्यों को मार देने की तैयारी की जा रही है, ताकि रोग आगे न फैले। और फिर, जैविक-हथियारों के प्रयोग की कॉन्स्पिरेसी थ्योरी तो है ही।

दुनिया की सरकारें अंदरूनी मोर्चों पर प्रतिद्वंद्वी से राजनीतिक लड़ाइयों में मुब्तिला रहती हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसके भू-राजनीतिक हितों से संचालित गुट होते हैं। अमेरिका चीन से आने वाली किसी भी ख़बर पर भरोसा नहीं करता। ग्लोबल वॉर्मिंग को वह उसकी अर्थव्यवस्था को नष्ट करने की साज़िश बतलाता है और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं कॉर्बन उत्सर्जन की अनिवार्यता के इस तर्क में उसका साथ देती हैं। 16 साल की क्लाइमेट चेंज एक्टिविस्ट ग्रेटा थुनबर्ग ने कोरोना वायरस के चलते सभी सार्वजनिक प्रतिरोधों को निरस्त करके डिजिटल स्ट्राइक की बात कही है। उसने यह भी कहा है कि आज हमें विज्ञान के साथ मिलकर खड़े होना है। किंतु राजनीति स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय-हितों की बात करती है, वह सार्वभौमिक हितों की बात करके चुनाव नहीं जीतती। राजनीति का सम्बंध विज्ञान से नहीं विभ्रम से है। तब वैश्विक महामारियों का सामना करने में भूमण्डलीकरण के साथ ही आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का स्वरूप भी एक बाधा बन जाता है।

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राजनीति से ऐसे अवसर पर कोई उम्मीद रखना बेकार है। धर्म की तब बात ही क्या करें। ईश्वर, जो कि कहीं नहीं है, की परिकल्पना मनबहलाव के लिए ठीक है, किंतु आपदाओं में वह मनुष्य की कोई मदद नहीं कर सकता। अतीत में उसने कभी नहीं की है और आगे भी नहीं करेगा। इस विराट सृष्टि में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे मनुष्य का सामान्य-बोध ही इकलौती उम्मीद है। इंटरनेट इसमें उसकी मदद कर सकता है, बशर्ते उसका उपयोग विवेक से किया जाए। मनुष्यता को तोड़ने के लिए नहीं, जोड़ने के लिए उसे बरता जाए। धर्म और राष्ट्र, जाति और समुदाय काल्पनिक परिघटनाएं हैं, मनुष्य ही वास्तविक है। उसका हित ही सर्वोपरि होना चाहिए।

मनुष्यता का इतिहास महामारियों का इतिहास रहा है। इतिहास में रोगों ने इतने लोगों की जान ली है, जितनी किसी और विपदा ने नहीं ली- दोनों विश्वयुद्धों ने भी नहीं। हैजा और चेचक, कोढ़ और तपेदिक, प्लेग और बुख़ार, सिफ़लिस और एड्स, भांति-भांति के फ़्लू, और हाल के सालों में उभरकर सामने आए इबोला, ज़ीका और अब कोरोना जैसे विषाणु- सर्वनाश की जितनी भी थ्योरियां प्रचलित हैं, उनमें अभी तक सबसे कारगर ये रोग और महामारियां ही साबित हुए हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग और आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस के ख़तरे भविष्य के गर्भ में हैं। एलीयन्स अभी तक धरती पर आए नहीं हैं। ज्वालामुखी लम्बे समय से सुषुप्त हैं। धरती से डायनोसोरों का ख़ात्मा कर देने वाले एस्टेरॉइड की जोड़ का अंतरिक्ष-पिण्ड फिर लौटकर नहीं आया है, पांच बार प्रलय होने के बावजूद। अभी तक के ज्ञात-इतिहास में महामारियां ही मनुष्य की सबसे बड़ी हत्यारिनी साबित हुई हैं।

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हमारे सामने एपिडेमिक और पेन्डिमिक का भेद है। संक्रामक रोग और वैश्विक महामारी। एक तरफ़ इबोला है, जो इतनी तेज़ी से मनुष्य की हत्या करता है कि रोग को लम्बी दूरी तक फैलने का अवसर ही नहीं मिलता। दूसरी तरफ़ मीज़ल्स हैं, जिनकी संक्रामक-क्षमता अत्यंत व्यापक है, किंतु इनका वैक्सीन सरलता से उपलब्ध है। और फिर कोरोना जैसे वायरस हैं, जो परस्पर-सम्पर्क से प्रसारित होते हैं, उजागर होने में समय लेते हैं और अनुकूल स्थिति प्राप्त होने पर दस प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से रोगियों का ख़ात्मा करते हैं। ग्लोबल अवेयरनेस सिस्टम ही इससे बचाव में काम आ सकता है। शुक्र है कि हमारे पास सूचना-प्रौद्योगिकी है, इसका विवेकपूर्वक उपयोग कीजिये। और आपकी सरकारें क्या कह रही हैं, इससे ज़्यादा विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी किए जा रहे अधिकृत प्रतिवेदनों और अपडेट्स पर भरोसा कीजिये।


पोस्ट 4- कोरोना वायरस को लेकर आज की तारीख़ के दो अपडेट हैं- एक ये कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है। दूसरा ये कि इसके कारण इटली एक कम्प्लीट लॉकडाउन में चला गया है।

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अगर हम कोरोना वायरस को एक वैश्विक महामारी की तरह देखते हैं और उससे चिंतित हैं तो हमें चीन नहीं इटली की स्थिति पर ध्यान देना चाहिए। चीन में वह स्थानीय बीमारी थी, इटली में वह वैश्विक रोग है। मेरे सामने विश्व स्वास्थ्य संगठन की 11 मार्च की रिपोर्ट है, जो बतला रही है कि कोरोना वायरस से चीन में अब तक 3162 मौतें हुई हैं और इसके बाद इटली का नम्बर आता है, जहां अब तक इससे 631 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। यह एक दिन पुराना आंकड़ा है। 12 मार्च की रिपोर्ट इटली में मृत्युओं का आंकड़ा 31 प्रतिशत की नाटकीय बढ़ोतरी के साथ 827 बतला रही है। यह विनाश की चक्रवृद्धि गति है। यह किसी भी ग़ैर-चीनी, ग़ैर-एशियाई देश के लिए बहुत बड़ा आंकड़ा है। तीसरे नम्बर पर ईरान है, जहां 290 मृत्युएं हुई हैं।

जब पहले-पहल हमने कोरोना वायरस का नाम सुना था, तो इसे वुहान-विषाणु कहकर पुकारा था। यह चीन के एक प्रांत में फैल रहा था। हमने इसके लिए चीन की खानपान की आदतों को दोषी ठहराया था। मेरी टाइमलाइन पर 31 जनवरी को लिखी गई पोस्ट है, जिसे ख़ूब पढ़ा गया। किंतु हमें स्वीकार करना होगा कि 31 जनवरी को हममें से कोई भी यह सोच नहीं रहा था कि यह महामारी इतनी तेज़ी से फैलेगी। हम स्वयं को सुरक्षित मान रहे थे।

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कल विश्व स्वास्थ्य संगठन के महासचिव ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित करते हुए जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने कहा है कि आज की तारीख़ में दुनिया के 118 देशों के 1 लाख 25 हज़ार लोग इस विषाणु से ग्रस्त हैं। अच्छी ख़बर यह है कि अभी भी 77 देश ऐसे हैं, जहां से कोरोना के संक्रमण की कोई सूचना अभी तक नहीं मिली है। किंतु वे कब तक इससे बचे रहेंगे? अगर वे वैश्वीकरण के समक्ष लाचार हैं तो देर-अबेर यह विषाणु उन्हें जकड़ लेगा। अगर यह विषाणु पहले ही वहां पहुंच चुका है तो कौन जाने इसे कितने लोगों तक सीमित रखने में सफलता मिलेगी।

जब मैंने देखा कि इटली में 827 लोग कोरोना वायरस से दम तोड़ चुके हैं, जो कि चीन में हुई मृत्युओं का एक-चौथाई है, तो भूमण्डलीकरण के इस अंधेरे पहलू ने मुझको निराशा से भर दिया। कोरोना से अब जाकर मैं सर्वाधिक चिंतित हुआ हूं। ये सच है कि इटली शीत-प्रधान देश है, भारत वैसा नहीं है, फिर भी यह दु:खद है कि जो बीमारी एक गांव से दूसरे गांव नहीं पहुंचना चाहिए थी, वो आज वैश्वीकरण की कृपा से दुनिया में फैल रही है और कोई इसे रोक नहीं पा रहा है। हम वैश्वीकरण के सामने लाचार हो चुके हैं। वैश्वीकरण का एक आयाम ग्लोबल मार्केट भी है और आज पूरी दुनिया के बाज़ार में आप शॉक-वेव्ज़ महसूस कर सकते हैं। महामारी अपने साथ महामंदी को लेकर आएगी। मृत्युबोध, नैराश्य, व्यामोह और असहायता- जो कि आधुनिक मनुष्य के चार बुनियादी गुण हैं- (अगर आप भारतीय हैं तो इसमें पांचवां गुण जोड़ लीजिये- मसखरी) – इस महामारी के सामने मुंह बाए खड़े होने पर अपनी पूरी आदिम त्वरा से उभरकर सामने आ रहे हैं।

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प्राणघातक विषाणु चीन से इटली कैसे पहुंचा? द गार्डियन बतलाता है जनवरी के अंत में इटली में कोराना वायरस के तीन मामले पाए गए थे। इनमें से दो चीनी पर्यटक थे, जो चीन-देश से अपने साथ यह तोहफ़ा लेकर यूरोप पहुंचे थे। रोकथाम की जो कोशिशें इटली में तब की जा सकती थीं, की गईं, किंतु फ़रवरी के महीने में उत्तरी इटली में रोग चुपचाप फैलता रहा। 18 फ़रवरी को इटली के कोन्डोंग्या में 38 वर्ष के एक स्वस्थ व्यक्ति में कोराना के लक्षण दिखलाई दिए। उसका चीन से कोई वास्ता नहीं था। आज उसे इतालवी मीडिया के द्वारा पेशेंट-वन कहकर पुकारा जा रहा है। वह 36 घंटे बिना इलाज के रहा। इससे भी बढ़कर, वह इस अवधि में सार्वजनिक सम्पर्क में रहा और अनजाने ही अपने से मिलने वाले लोगों को संक्रमित करता रहा। आज एक महीने से भी कम समय के बाद इटली में 10 हज़ार से ज़्यादा लोग संक्रमित हैं और 800 से अधिक की मृत्यु हो चुकी है। चीन से कहीं अधिक ठंडा मुल्क होने के कारण वहां पर कोरोना का स्ट्राइक रेट 10 फ़ीसद की घातक दर को छू रहा है। मात्र दो टूरिस्टों ने चीन से हज़ारों किलोमीटर दूर मौजूद यूरोप को सहसा एक वैश्विक महामारी के सामने एक्सपोज़ कर दिया।

भारत देश में यह विषाणु 30 जनवरी को पहुंचा। बतलाने की आवश्यकता नहीं- चीन से। केरल में वुहान विश्वविद्यालय के एक छात्र के साथ इसकी आमद हुई। केरल के बाहर पहला मामला दूसरी मार्च को पाया गया। यह, ज़ाहिर है, इटली से लौटे एक व्यक्ति में था। फिर जयपुर, हैदराबाद और बेंगलुरु में मामले सामने आए। दुनिया में जिन तीन देशों में कोरोना का प्रकोप सबसे अधिक है- चीन, इटली और ईरान- अब वे शेष विश्व के लिए कोरोना के निर्यातक बन चुके हैं। एक से दो, दस से हज़ार, हज़ार से असंख्य की यह मल्टीप्लाइंग चेन-रिएक्शन है। आज दुनिया की आबादी 7.7 अरब है और सवा लाख संक्रमित लोग आबादी का बड़ा छोटा प्रतिशत हैं, किंतु महज़ तीन माह पूर्व तक यह केवल चीन-देश के एक प्रांत की फेफड़ाजनित बीमारी भर थी। वैश्विक सम्पर्क के इस कालखण्ड में आणविक विस्फोट की तरह इसका प्रसार हो सकता है। मुसीबत यह है कि जब आप घबड़ाकर तालाबंदी पर आमादा हो जाते हैं, जैसे कि इटली में हुआ है, तो इससे ग्लोबल इकोनॉमी, जो कि अत्यंत क्षणभंगुर परिघटना है, तीव्रगति से विषाद में चली जाती है। और सेवा क्षेत्र का फुगावा फूटने लगता है।

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हज़ार तरह की कॉन्स्पिरेसी थ्योरियां भी चलन में हैं। यह कि चीन-देश जैविक हथियारों का प्रयोग कर रहा था और उसके विफल रहने का यह दुष्परिणाम है। यह कि यह सब झूठ है (ग्लोबल वॉर्मिंग की तरह?) और इसके पीछे मास्क और सेनिटाइज़र का बाज़ार है। यह कि ज़ुकाम-नज़ला जितने लोगों को मारता हे, कोरोना की भी वही मारक क्षमता है। किंतु इटली के आंकड़े मुझको चिंतित कर रहे हैं। खेल-आयोजनों पर इसकी मार दिखने लगी है। शायद जब भारत में आईपीएल पर इसकी मार पड़ेगी, तभी जाकर यहां के लोगों को इसकी गम्भीरता का अहसास होगा। चीज़ों को समझने के भारत के अपने मानदण्ड हैं।

जब हमें भोजपुरी गीतों, सस्ते चुटकुलों, गंदे खानपान-रहनसहन पर गर्व और त्योहार की हुड़दंग से फ़ुरसत मिले, तब शायद हम सतर्कता को गम्भीरता से लेंगे। हर चीज़ में मसखरी भली बात नहीं है। चुटकुला-प्रधान देश अगर महामारी को लेकर थोड़ा-सा अधिक सचेत हो जाएगा तो दुनिया में उसकी नाक नहीं कट जावैगी।

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सुशोभित समकालीन दौर के सशक्त गद्यकार हैं. वे इन दिनों भास्कर समूह में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं.

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