विजय मनोहर तिवारी-
विजयदत्त श्रीधर: एक शिनाख्त
सामान्यत: किसी पत्रकार की पहचान अखबार या चैनल से होती है। अखबार या चैनल से बाहर होने के बाद नाम और चेहरे भी याद करने पड़ते हैं। हालांकि खुद को विस्मृत होने से बचाने के लिए धुरंधर पत्रकारों को यूट्यूब में अपने डेरे-डंगर जमाने के अब खूब मौके हैं। विजयदत्त श्रीधर अखबार के दौर के पत्रकार हैं। तब के, जब टीवी चैनलों का हाट नहीं लगा था। किसी अखबार में उनकी सेवा कब तक जारी रही, हमें नहीं मालूम।
मैं कहूँगा कि उनका वास्तविक परिचय किसी समाचार पत्र से है ही नहीं। वह एक धुँधली सी स्मृति है कि अमुक अखबार में वे इतने साल रहे। जबलपुर से भोपाल आकर अमुक अखबार के बाद अमुक अखबार में स्थापित हो गए। वह एक ऐसी जानकारी है, जिससे उनके कॅरिअर की केवल सतही पहचान पता चलती है। एक ऐसा निष्प्राण परिचय, जिससे किसी को कोई प्रेरणा नहीं मिलती।
अखबार की सेवाओं से मुक्त हुए भी उन्हें कई वर्ष हो गए हैं, लेकिन वे आज परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपने परिचय के लिए उन्होंने एक नया आकाश स्वयं रचा है और आज देश भर में उनकी उजली और नई पीढ़ी के लिए प्रेरक पहचान है।
विजयदत्त श्रीधर पर एकाग्र 480 पृष्ठों की एक पुस्तक मेरे सामने है, जिसका शीर्षक है-“विजयदत्त श्रीधर: एक शिनाख्त।’ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि वर्धा में जनसंचार विभाग के प्रोफेसर कृपाशंकर चौबे के संपादन में प्रकाशित यह पुस्तक मुंबई के प्रलेख प्रकाशन से छपकर आई है। भारत के आजादी का अमृतकाल जितनी ही उनकी आयु है। श्रीधरजी 75 साल के हैं।
यह पुस्तक चार खंडों में है। पहला खंड है-वरिष्ठजनों की विहंगम दृष्टि, जिसमें 14 विभूतियों ने उनके बारे में अपने विचार लिखे हैं। दूसरा खंड उनके अवदान-मूल्यांकन पर है, जिसमें 27 लेख हैं। ये सब अलग-अलग समय में किसी न किसी प्रसंग पर श्रीधरजी के प्रति सबके आदर स्मरण हैं। तीसरा खंड उनके रचना संचयन का है, जिसमें विविध विषयों और व्यक्तियों पर उनका अपना लिखा हुआ है। चौथे हिस्से में चिट्ठी-पत्री है, जिसमें देश की अनेक लब्ध-प्रतिष्ठित विभूतियों द्वारा श्रीधरजी को लिखे गए पत्रों को प्रस्तुत किया गया है। अधिकतर पत्र हस्तलिखित हैं।
यह पुस्तक एक ऐसी विभूति की शिनाख्त करती है, जिसका पत्रकारिता और समाज के लिए योगदान विलक्षण है, अद्वितीय है। उनके हाथों नियति ने कुछ ऐसा करा लिया है, जिसकी दूसरी मिसाल नहीं है। अखबारों में थे इसलिए लेखनी की कुशलता और दक्षता तो स्वभावत: अपेक्षित ही है। अच्छा या धारदार लेखन होना ही चाहिए। उसमें क्या नई बात है? लेकिन श्रीधरजी की पहचान उनके अपने परिश्रम और पुरुषार्थ से स्थापित एक समाचार पत्र संग्रहालय से है, जिसे हिंदी के मूर्धन्य पत्रकार पंडित माधवराव सप्रे के नाम पर बनाया गया। पिछले 40 सालों में उनके जीवन का सारा समय इसी एक काम में लगा है। यह उनकी दीर्घ साधना का समाज को मिला हुआ सुफल है।
जब कोई पौधा वृक्ष बनकर घना होता है तो उसे भी पता नहीं होता कि वह कितने पक्षियों का बसेरा बनेगा, कितने राह चलते लोगों को छाया देगा, कौन कहाँ से आकर उसके मीठे फल चखेगा। सप्रे संग्रहालय के बारे में समय-समय पर बहुत कुछ लिखा गया है। इस पुस्तक में भी उसके बारे में बहुत विस्तार से और अलग-अलग कोण से अनुभवी विद्वानों ने लिखा है। इस वृक्ष की छाया में पत्रकारिता और समाज से जुड़े विषयों पर निरंतर गतिविधियों की श्रृंखला अटूट है।
संग्रहालयों को हमने मृत वस्तुओं के उजाड़ कब्रस्तानों की तरह ही देखा है। सप्रे संग्रहालय एक प्राणवान परिसर अगर बन पाया है तो वह केवल और केवल श्रीधरजी के पुरुषार्थ और परिश्रम के बूते पर। ये ऐसे गुण हैं, जो किसी भी भूमि पर बो दिए जाएँ, परिणाम ऐसे ही लाते हैं। इतनी ही निष्ठा और समर्पण से कोई मीडिया में काम करे तो उसकी चमक अलग होगी, स्कूल-कॉलेज में पढ़ाता हो तो उसकी आभा दूसरों से अलग होगी और राजनीति या प्रशासन में काम कर रहा हो तो सबको पता चल जाएगा कि वह अलग मिट्टी का बना हुआ है।
कृष्णबिहारी मिश्र ने संग्रहालय में आकर उनमें एक ऐसे शख्स को देखा, जो न केवल स्वयं एक बड़े आदर्श को समर्पित है बल्कि जिनके सहयोगी मित्र भी वैसे ही साधु-संकल्प के साथ जुड़ी प्रेरणा-ऊर्जा के साथ लयबद्ध हैं। रमेशचंद्र शाह एक ऐतिहासिक तथ्य सामने रखते हैं और वो ये कि हमारे यहाँ ठोस कार्य अकेले के आत्मदान से ही संभव होते हैं। टीम स्पिरिट या सामूहिक कर्म, हमारा राष्ट्रीय गुण नहीं है। अपने इस निष्कर्ष के पक्ष में वे स्वामी विवेकानंद के एक पत्र का संदर्भ देते हैं, जिसमें स्वामीजी ने लिखा कि इस अभागे देश में तीन लोग भी इकट्ठे होकर सहयोग और सहमना संकल्प के साथ काम नहीं कर सकते। राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठते।
राम बहादुर राय ने श्रीधरजी के कृतित्व के उस छोर को विस्तार से पकड़ा है, जो दो खंडों में छपा भारतीय पत्रकारिता का इतिहास है। भारत में पत्रकारिता की 168 साल की यात्रा कथा। एक असंभव सा गहरा शोधपरक रचनाकर्म, जो संग्रहालय की संपदा के संरक्षण के समानांतर 15 वर्षों में स्वयं श्रीधरजी ने किया। नर्मदा के सौंदर्य पर अपनी अमृत जैसी लेखनी के लिए प्रसिद्ध अमृतलाल बेगड़ ने लिखा-“जिस माधवराव सप्रे को अधिकतर लोग प्राय: भुला चुके थे, उनमें उन्होंने पुन: प्रतिष्ठा की।’
अच्युतानंद मिश्र की टिप्पणी है-“यह मिथक बार-बार टूटा है कि विश्व के सभी महान कार्य इतिहास में दर्ज महापुरुषों ने ही किए हैं। अनगिनत ऐसे लोगों ने इतिहास रचा है, जो हमारे आसपास ही हैं। लेकिन अपनी अपेक्षाओं और उपेक्षाओं का शिकार बनाकर हमने उन्हें उनकी वास्तविक पहचान भी नहीं दी है। विजयदत्त श्रीधर का नाम भी इसी श्रेणी में आता है।’ कैलाशचंद्र पंत ने माधवराव सप्रे की विशेषता को रेखांकित किया-“उन्होंने मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी पत्रकारिता के शुरुआती दौर में उसे दृढ़ता प्रदान की।’ सच्चिदानंद जोशी अपने शोध के अनुभव से कहते हैं कि संग्रहालय को ऊपरी तौर पर देखने पर इसके महत्व का आभास पूरी तरह नहीं हो पाता। यह अाभास होता है जब आप किसी शोध के सिलसिले में इसका उपयोग करते हैं।
इस प्रकाशन में बीते 40 वर्षों की अथक यात्रा को निकट-दूर से देखने और अनुभव करने वाले देश के अनेक पत्रकार, लेखक, अध्यापक और विद्यार्थियों ने पत्रकारिता की एक महान विरासत के निर्माता के रूप में श्रीधरजी के प्रति शब्दांजलि प्रकट की है। वर्ना हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जिसकी दृष्टि से यह सब अछूता ही रह जाता है। आपसी राग-द्वेष और प्रतिस्पर्धा की क्षुद्र वृत्तियों के चलते हम अपने आसपास श्रेष्ठता के सम्मान की उदारता दैनंदिन कार्य व्यवहार में नहीं ला पाते। संकुचित सोच और आत्ममुग्धता के चलते समय रहते रेखांकित करने योग्य अनेक विषयों और विभूतियों के प्रति यह अन्याय निरंतर घटता रहता है।
मैं मानता हूँ कि विजयदत्त श्रीधर के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति ऐसा लगभग नहीं हुआ। देर-अबेर या गहरे-उथले रूप में उनकी विरासत को समाज ने अपनी स्मृति में बहुत आदरपूर्वक रेखांकित किया है। यह पुस्तक इसी बात का एक समग्र प्रमाण है, जो प्रेरणा के रूप में पत्रकारिता से जुड़े हरेक शख्स के संग्र्रह में होना चाहिए। ई-बुक के अलावा अमेजन और फ्लिपकार्ट पर यह ऑनलाइन उपलब्ध है। यह पठनीय और संग्रहणीय प्रेरक संकलन एक समकालीन विभूति की जीवन साधना का मीठा फल है। तत्काल मंगा लेना चाहिए।