बड़ा मुश्किल होता है बचपन में पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद सहज जीवन जी पाना. दो बेटियां, एक बेटा और पत्नी को छोड़कर आज के ही दिन वरिष्ठ पत्रकार विनोद मिश्र अनंत यात्रा पर निकल गए. कैंसर के असमय और भयानक हमले ने उन्हें संभलने-सोचने तक का मौका न दिया. कानपुर के रहने वाले विनोद जी ने अपने पत्रकारीय करियर के दौरान मेरठ समेत कई शहरों में काम किया. वो दुनिया को अलविदा कहते वक्त हिंदुस्तान अखबार के गाजीपुर जिले के ब्यूरो चीफ थे.
ग़ाज़ीपुर मेरा जिला है. वहां जब भी जाता तो विनोदजी के साथ हर रोज बैठकी होती. मेरठ से लेकर कानपुर तक के किस्सों-कहानियों पर चर्चा होती. अतीत के पन्ने पल्टे जाते. वर्तमान जीवन के दुख-सुख बतियाये जाते. चाय पीने जब कभी उनके घर जाता तो वहां निधि भाभी और बेटियां-बेटा मिल जाते. एक भाव प्रधान घरेलू रिश्ता बन चुका था उनसे. उनका चले जाना अब भी एक न मानने लायक बात लगती है. विनोद जी के बगैर निधि भाभी और बच्चों के जीवन संघर्ष को देखना कभी अवसाद तो कभी उत्साह से भर देता. अवसाद इसलिए कि सिर से पिता का साया हटने के बाद बच्चे समय से पहले मेच्योर होने लगे. उनके भीतर का बचपना गायब होने लगा. उत्साह ये कि इनने हार न मानी, हताशा न आने दी, मुश्किलों का हल तलाशने की ज़िद न छोड़ी. सो, आज सीमित मात्रा में ही सही, बनारस में विनोद-विहीन इस कुनबे का एक व्यवस्थित जीवन है.
पिता सिर्फ एक आदमी नहीं होता. वह एक परिवार की आत्मा होता है. वह बच्चों के लिए हीरो होता है, सारे दुखों-दुश्मनों को परास्त करने वाला. वह पत्नी के लिए सुरक्षा कवच होता है, आर्थिक से लेकर पारिवारिक तक. अपने अस्तित्व की उन्मुक्तता व सहजता छीन लिए जाने के बाद बच्चों खुद में सिमटने लगे. मां को अब पिता का भी रोल करना था. मां को अब आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा देने के साथ साथ पिता वाला संरक्षण और शक्ति भी देनी थी.
निधि भाभी ने इस मुश्किल में खुद को टूटने-बिखरने न दिया. उन्हें कई मोर्चों पर एक साथ भिड़ना पड़ा. खानदान के लोग अचानक से मुंह मोड़ लिए. कुछ भी देने को राजी नहीं. तीन-तीन बच्चों को पढ़ाना-जिलाना बड़ा भारी काम था. एक परीक्षा सामने खड़ी थी. अचानक आए तूफान की चपेट से तिनका तिनका बिखर जाने का खतरा था. ऐसे में बड़ी मदद मिली हिंदुस्तान अखबार से. शशि शेखर से लेकर केके उपाध्याय तक ने अपने स्वर्गीय ब्यूरो चीफ के परिवार पर आए संकट को महसूस किया और आगे आने वाले मुश्किल वक्त से बचाने का उपाय तलाशना शुरू किया.
निधि भाभी को हिंदुस्तान अखबार के बनारस आफिस में जॉब मिल गई. बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए कई किस्म से मदद मिली. हिंदुस्तान बनारस आफिस के साथियों ने बच्चों और भाभी को बनारस में बसाने, स्कूल में नाम लिखाने में भरपूर मदद की. भड़ास के सौजन्य से आर्थिक मदद के लिए जो अभियान चलाया गया, उसने कई किस्म के खर्चों के दबाव को झेलने में मदद मिली. फिलहाल गाड़ी पटरी पर है.
फेसबुक के माध्यम से तो कभी कभार फोन पर इस कुनबे का हालचाल मिलता रहता है. विनोद जी शरीर से भले चले गए हों लेकिन लगता है वे जरूर अपने परिवार के इर्द गिर्द ही हैं, इनविजिबिल रूप में, अदृश्य उर्जा पुंज की तरह. ऐसा लगता है, वे तकलीफों, दुखों को घर के दरवाजे पर ही रोक देते हैं. ऐसा लगता है जैसे वे सकारात्मक उर्जा का एक सर्किल बनाए रखते हैं, बच्चों के इर्द-गिर्द.
बच्चों को लेकर निधि भाभी बीच बीच में छुट्टियों के दौरान घू्मने निकल जाती हैं, बनारस के इर्द-गिर्द के पर्यटक स्थलों तक. कभी विंध्याचल तो कभी सोनभद्र. सबको लेकर किसी संडे वे फिल्म दिखाने चली जाती हैं, जब उन्हें पता चलता है कि झांसी की रानी पर अच्छी फिल्म आई है.
निधि भाभी से आज फोन पर बात हुई. विनोद जी के गए आज साल बीत गया. कहती हैं- ”बच्चों के लिए पिता की जगह कभी भरी नहीं जा सकती लेकिन कोशिश करती हूं कि वे पिता का अभाव महसूस न करें, खुश रहें, इसलिए उनकी इच्छाओं को पूरा करती रहती हूं. उन्हें हरवक्त इंगेज रखने की कोशिश करती हूं, खुश रखने के जतन करती हूं ताकि पिता की याद न आए. सबसे छोटे वाला पुत्र अभी उम्र में कम है, उसे पापा की कमी खलती है अक्सर. पर बहनें उसे भरसक पिता-सा प्यार दुलार देती रहती हैं. मेरी भी कोशिश रहती है कि वे चिंता, तनाव में न पड़ सकें, अपने स्कूल के काम में लीन रहें.”
निधि भाभी धन्यवाद देती हैं हिंदुस्तान अखबार से जुड़े लोगों का. खासकर शशि शेखर जी और केके उपाध्याय जी का आभार जताती हैं जिनके चलते आज वे हिंदुस्तान अखबार में जॉब में हैं और बच्चों को पालपोस पा रही हैं.
निधि भाभी बताती हैं कि उनके लिए अगला चैलेंज एक छोटा-सा मकान हासिल करना है ताकि किराए पर जीने से मुक्ति मिल सके. इसके लिए वे प्रधानमंत्री आवास योजना से लेकर कई किस्म की आवासीय योजनाओं के बारे में पता करती रहती हैं, फार्म भरती रहती हैं. पर असल चैलेंज पैसा है. वे आशावादी हैं, कहती हैं- ”ईश्वर पर भरोसा है मुझे, किसी के साथ कभी न तो विनोद जी ने गलत किया और न मैंने. देर है, पर अंधेर नहीं. मुझे कोई जल्दबाजी नहीं है. मेरा काम है प्रयास करना. बाकी ईश्वर की मर्जी.”
विनोद जी को मुख कैंसर था. पान गुटखे के शौकीन थे. इस लत ने किसी विनोद नामक एक पत्रकार की ज़िंदगी न ली, तीन बच्चों और एक महिला की खुशी छीन ली, जीवन छीन लिया, सुरक्षा छीन ली, संरक्षण छीन लिया. वो तो विनोद जी के अच्छे करम थे और निधि भाभी का किस्मत, साल बीतते चीजें पटरी पर आ गई दिखती हैं. दुखों का अंत सुख में हो जाए तो उससे अच्छी कहानी क्या हो सकती है भला. थैंक्यू हिंदुस्तान अखबार, शुक्रिया शशि शेखर सर, धन्यवाद केके भाई! हमें अपने आसपास के उन लोगों की भी खबर कभी-कभार ले लेनी चाहिए जिन्हें वक्त के थपेड़ों ने सफर में बेपटरी कर पीछे रह जाने को मजबूर कर दिया था!
यशवंत सिंह
एडिटर, भड़ास4मीडिया डॉट कॉम
संपर्क : [email protected]
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