वीरेन दा की याद : प्रतिरोध का आलाप और विनम्रता की संगति

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अरुण आदित्य-

नब्बे का दशक। शहर खंडवा। समय मध्यरात्रि। सोते पठारी शहर को जगाने निकल पड़ा है एक कवि।

नहीं, वह ‘मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक’ गाने वाले कवि माखन लाल चतुर्वेदी नहीं थे। उन्हें तो गुजरे कई बरस हो चुके थे। ये तो उनके वारिस वीरेन डंगवाल थे, जो किशोर कुमार के ओजस्वी नगमे फुल वाल्यूम में सुनाकर खंडवावालों की नींद में खलल डाल रहे थे। वीरेन दा से यह पहली मुलाकात थी। कवि-संस्कृतिकर्मी प्रतापराव कदम Pratap Rao Kadam ने एक शानदार काव्य संध्या का आयोजन किया था, जिसमें वीरेन दा के अलावा मंगलेश डबराल, इब्बार रब्बी, लीलाधर मंडलोई Leeladhar Mandloi जैसे महत्वपूर्ण कवि थे। काव्य-गोष्ठी के बाद की गोष्ठी में खंडवा की शान किशोर कुमार का जिक्र आया तो वीरेन दा, भावुक हो गए और अलख जगाने आधी रात सड़क पर उतर पड़े।

आयोजकों में से किसी ने चिंता जाहिर की, “जरा धीरे, वीरेन जी। कोई पुलिस वाला आ जाएगा, तो बेवजह की हील-हुज्जत करनी पड़ेगी।”

पुलिस वाले का नाम सुन वीरेन दा का स्वर और ऊंचा हो गया, बोले- “किशोर कुमार के शहर में उनके गाने सुनाकर सोए हुए लोगों को जगाना कोई अपराध है क्या? आखिर हम आजाद देश के आजाद कवि हैं।”

“पर पुलिस वाले तो आज भी हमें गुलाम ही समझते हैं।” साथ चल रहे किसी दुनियादार ने अपनी समझ से समझदारी की बात की।

“पुलिस वाले तो बाद में, उनसे पहले हम-आप खुद ही अपने को गुलाम समझने लगते हैं। मैं तो पैदा होने के बाद दस दिन से ज्यादा गुलाम नहीं रहा। ग्यारहवें दिन से आजाद हूं।” कहकर वीरेन दा ने जोरदार ठहाका लगाया। बात परिहास में और रसरंजन के प्रभाव में कही गई थी, लेकिन उनका जीवन-वृत्त इस बात को सौ टका सच साबित करता है। 5 अगस्त 1947 को वीरेन दा का जन्म हुआ और दस दिन बाद 15 अगस्त को देश आजाद हो गया। और उनके जीवन को करीब से देखने-समझने वाले जानते हैं कि ताजिंदगी किसी तरह की गुलामी कभी उनके आसपास भी नहीं फटक सकी।वे खुद के साथ-साथ दूसरों को भी आजाद रहने की हिम्मत देते रहे-
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी।

…………………..

मित्रों की दशा-दिशा को लेकर वे हमेशा चिंतित रहते थे। एक शाम उनका फोन आया, “अखबार में कोई दिक्कत है क्या? मैंने कहा, नहीं दा, ऐसा कुछ नहीं है। लेकिन आप ऐसा पूछ क्यों रहे हैं ?”

वे बोले, ” दरसल अभी शुक्रवार की साहित्य वार्षिकी में तुम्हारी कविता ‘जब कोई कवि नौकरी करता है’ पढ़ रहा था। मुझे कुछ लगा। मैंने सोचा, पूछ लूं कोई दिक्कत तो नहीं है।”

मैंने कहा, “नहीं दादा, हमारा संस्थान तो देश के सबसे अच्छे संस्थानों में से एक है। मेरी कविता तो नौकरी की सामान्य दिक्कतों के बारे में है।”

“सो तो है, प्यारे। पर तुम नौकरी कहां करते हो, तुम तो अपने काम का आनंद लेते हो।” कहकर चिरपरिचित ठहाका लगाया।
……….

वर्ष 2012। फरवरी के अंतिम दिन की उजली सुबह। कुछ और उजली हो गई, जब फोन पर वीरेन दा की आवाज सुनी। मैं अमर उजाला के नोएडा मुख्यालय में सुबह का नियिमत काम कर रहा था। वीरेन दा अमर उजाला के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में थे। किसी जरूरी मीटिंग के सिलसिले में नोएडा आए थे। बोले, ” अरुण नीचे पार्किंग में आ जाओ। साथ में दिनेश श्रीनेत Dinesh Shrinet को भी ले आना। तीनों चलकर कहीं चाय की दुकान पर चाय पीते हैं, कुछ गपशप करते हैं। दफ्तर के औपचारिक माहौल में कविता-सविता की बातें कहां हो पाएंगी।” कविता-सविता सुनकर मैंने सोचा कविता के साथ सविता यानी सूर्य का क्या युग्म बैठाया है वीरेन दा ने।

हम तीनों ने पास में एक दुकान पर चाय पी, समोसे खाए और ढेर सारी बातें की – कविता की, जीवन की और और चाय समोसे के स्वाद की भी। वीरेन दा की समोसे वाली कवतिा की भी चर्चा हुई। और जलेबी की भी, जिसके बारे में उन्होंने एक कविता में लिखा है-
तपस्वी विलुप्त हो गए
घुस गए धनुर्धारी महानायकों के दौर
गांधी जी तक हलाक कर दिए गए
जलेबी मगर अकड़ी पड़ी है थाल पर
सिंक कर खिली किसी फूल जैसी
वह सुंदर और गर्मागर्म
पेचीदा सरसता।
वीरेन दा की चुनी हुई कविताओं का नया संकलन ‘कवि ने कहा’ किताबघर प्रकाशन से कुछ समय पहले ही आया था। उसकी प्रति वे हमारे लिए लाए थे। किताब भेंट करते हुए उन्होंने लिखा, ‘ आज का दिन बार-बार आए आपके जीवन में।’ उसके नीचे हस्ताक्षर किए। और हस्ताक्षर के नीचे लिखा, ‘ याने 29 फरवरी, 2012।’
वीरेन दा के जाने के बाद मैं सोचता रहा कि आज के दिन में ऐसी क्या खास बात है, जो वे कह रहे हैं कि यह दिन मेरे जीवन में बार-बार आए। काफी देर तक सोचने के बाद जब मैंने ‘आज का दिन’ का मतलब समझा तो मुस्करा उठा। हस्ताक्षर के नीचे जो ‘याने 29 फरवरी’ लिखा था, वह आज के दिन का परिचय था। 29 फरवरी चार साल में एक बार आती है। इस दिन के बार-बार आने का मतलब है कि आप दीर्घायु हों। अगर किसी के जीवन में यह दिन 25 बार आ जाए तो समझो उसकी उम्र सौ वर्ष हो गई। वाह, कवि की शुभकामना में भी कितनी कल्पनाशीलता होती है।
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दिसंबर 2012। इलाहाबाद की एक सर्द सुबह। उसी दिन मुझे इलाहाबाद में अमर उजाला के संपादक के तौर पर कार्यभार ग्रहण करना था। सुबह कान्हा श्याम होटल के कमरे में मैं रजाई में ही था कि मोबाइल पर वीरेन दा का मैसेज आ गया- “इलाहाबाद में अदृश्य सरस्वती भी बहती है। उसकी आवाज को अनसुनी मत करना।” मैं समझ गया, उनका इशारा साहित्यिक सांस्कृतिक कवरेज को समुचित महत्व देने के लिए था। धन्यवाद देने के लिए मैंने फोन लगाया तो बातों में बस इलाहाबाद और इलाहाबाद ही था। खुसरो बाग, जीटी रोड, सिविल लाइन, यूनिवर्सिटी, काफी हाउस, नाग वासुकि से लेकर कटरा-कचहरी तक इलाहाबाद ही इलाहाबाद।

जब इलाहाबाद से मेरा तबादला अलीगढ़ हुआ तो मैसेज आया, “तालीम की नगरी में खूब पढ़ो-लिखो, मौज करो।”
मैंने जवाब दिया, ” इलाहाबाद में तो सब जाने-पहचाने थे। यहां तो किसी को मैं जानता नहीं।”

उनका एक और संदेश आया, “आशुतोष कुमार Ashutosh Kumar से बात कर लो। वे बरसों अलीगढ़ में रहे हैं और आज भी अपनी स्मृति में वहीं रहते हैं।” मैंने सोचा वीरेन दा भी तो अपनी स्मृति में इलाहाबाद में ही रहते हैं।

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‘स्याही ताल’ पढऩे के बाद एक दिन मैंने उनसे कहा, ” दादा, आपकी कविताएं स्मृति, संवेदना की रोशनी में समय के अंधेरे की पड़ताल करती हैं।” वे हंस पड़े और एक वरिष्ठ आलोचक का नाम लेकर बोले, उनकी भाषा में बात मत करो, कवि की तरह बताओ। मैंने, उस समय मुझे जो सूझा, कह दिया-
शुक्र है कि शहर इलाहाबाद है
शुक्र है कि शहर नैनीताल है
दुख है कि हर शहर स्याही ताल है।

हड़बड़ी में की गई तुकबंदी थी, लेकिन इलाहाबाद और नैनीताल का नाम सुनकर वे खुश हुए और बोले, अब हुई न कोई बात। दरअसल वे बात को इस तरह कहने के आकांक्षी थे, जिस तरह से पहले उसे न कहा गया हो। यही वजह है कि उनकी कविता में एक से एक अनूठे बिम्ब मिलते हैं। उनकी एक कविता है ‘बुखार’। जरा इसका एक बिम्ब देखिए-
मेरी नींद में अपना गरम थूथन डाले
पानी पीती थी एक भैंस।

ऐसा बिम्ब कहीं और देखा है? दरअसल वीरेन दा कविता के समरूपीकरण के बरअक्स एक नई भाषा, नए कहन के पक्षधर रहे हैं। साहित्य अकादमी सम्मान समारोह में अपने वक्तव्य में उन्होंने एक जैसी कविताएं लिखे जाने के चलन के बारे में आगाह करते हुए कहा था, “बाजार से कवि की विमुखता के बावजूद उसकी शक्ति ने एक और तरह का दबाव हमारी कविता पर डाला है। उसमें एक विचित्र समरूपता आ गई है। क्योंकि बाजार सफलता को दोहराने उसकी अनुकृति बनाने को प्रेरित करता है। लिहाजा बहुतायत कवि अनजाने एक-सी भाषा में एक-सी कविता लिखते दिखाई देते हैं।”

……….

प्रतिरोध वीरेन दा की कविता का आलाप है। लेकिन विनम्रता भी एक संगतकार की तरह उनके साथ लगी रहती है। कवि शीर्षक कविता में वे कहते हैं-

उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तो मैं उनका गुस्सा हूं।
इससे इतर ‘कवि-2’ शीर्षक कविता में उनकी विनम्रता पूरे विश्वास से बोलती है-
गूदड़ कपड़ों का ढेर हूं मैं
मुझे छांटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूंगा एक दिन।

वीरेन दा को जानने वाले जानते हैं कि खुद को गूदड़ कपड़ों का ढेर कहने वाला शख्स हिंदी कविता का एक हीरा था। दुर्गम पहाड़ की चोटी पर खिला एक लाल फूल था। शोषण, विषमता और कट्टरता के कंगूरों पर लगातार बजने वाला हथौड़ा था।
उस हीरे की चमक को, उस पहाड़ी फूल की गमक को
उस हथौड़े की धमक को सलाम, सौ बार सलाम।

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One comment on “वीरेन दा की याद : प्रतिरोध का आलाप और विनम्रता की संगति”

  • अशोक कुमार शर्मा says:

    बहुत मर्मस्पर्शी और चित्रात्मक जीवंतता से भरपूर।

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