Vivek Satya Mitram : प्रेस क्लब में हाल ही में जमा हुए पत्रकारों! इस मामले पर कहां जुटान है? इसका भी खुलासा हो जाए। वैसे भी ये हमला तो प्रेस क्लब के बाहर ही हुआ। एक वरिष्ठ पत्रकार पर कुछ ‘गुंडा छाप’ पत्रकारों द्वारा। फिर भी ना तो प्रेस क्लब के पदाधिकारियों को फर्क पड़ा ना ही साथी पत्रकारों को। Yashwant Singh को करीब से जानने वाले जानते होंगे कि वो पिछले एक दशक से गौरी जैसी ही निर्भीक पत्रकारिता कर रहे हैं। महज़ इसलिए कि वो इस हमले में ज़िंदा बच गए, पत्रकारों को उनके लिए न्याय नहीं चाहिए?
वाह रे क्रांतिकारी पत्रकारगण! अबे खुलके कहो ना कि तुम गौरी के लिए नहीं, किसी पत्रकार के लिए नहीं, किसी दमन के ख़िलाफ़ नहीं, राजनीति करने के लिए जमा हुए थे। और, यशवंत जैसा पत्रकार जो किसी को भी विचारधारा और गिरोहबाजी के आधार पर कोई रियायत नहीं देता उस पर हमला तुम्हारे लिए कोई महत्व नहीं रखता। सुनो, तुम्हारे सेलेक्टिव, दिखावे की क्रांति लोग समझते हैं, इसलिए सोशल मीडिया पर अपनी एक ख़ास किस्म की ब्रांडिंग करते हुए ये भी याद रखा करो कि लोग कभी तो हिसाब मांग सकते हैं तुम्हारे ढ़ोंग का। बाई द वे, मैं जानता हूं तुम पत्रकार नहीं हो!
(आजतक समेत कई न्यूज चैनलों में कार्यरत रहे और अब एक सफल उद्यमी के तौर पर स्थापित विवेक सत्य मित्रम की एफबी वॉल से.)
Praveen Jha : पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश कौन सा है? मैं टुकड़ों में ‘विश्व मीडीया विमर्श’ नामक किताब पढ़ता रहा हूँ, जिसमें पूरे विश्व के अलग-अलग देशों की मीडिया पर लिखा है। स्कैंडिनैविया के सभी देश सालों से ‘प्रेस फ्रीडम’ में टॉप 5 पर हैं। यहाँ कोई पत्रकार कभी मारा-पीटा अब तक नहीं गया। कई रिपोर्ट के अनुसार ईरीट्रिया और चीन में पत्रकारों की हालत खस्ता है। तुर्की और रूस पर भी इल्जाम लगते रहे हैं। पर वो अलोकतांत्रिक देश है।
एक लोकतंत्र में पत्रकार अमूमन सुरक्षित होता है। पर पिछले साल की CPJ की रिपोर्ट पढ़ रहा था, उसमें पत्रकारों के लिए विश्व के दस सबसे खतरनाक (डेडलिएस्ट) देशों में भारत का भी नाम है। यह पढ़ कर अजीब लगा। यह अकेला लोकतांत्रिक देश है जहाँ पत्रकारों पर हमला हो रहा है, और मृत्यु भी होती है। एक और अजीब बात है कि यह मामले अन्य हत्याओं की अपेक्षा ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। छिट-पुट मार-पीट तो दब ही जाते हैं। कई बार आपस में सुलझ जाते हैं, या ‘पार्ट ऑफ जॉब’ मान लिया जाता है।
यह कैसा ‘पार्ट ऑफ जॉब’ है? डॉक्टर पिट रहे हैं, पत्रकार पिट रहे हैं, और नेता वगैरा तो खैर पिटते ही रहे हैं। पार्ट ऑफ जॉब? मैं जब-जब इन रिपोर्ट को गलत मानता हूँ, किसी पत्रकार पर हिंसा की खबर आ जाती है। वजह जो भी हो, हिंसा को आप कैसे सही मान सकते हैं? कलम का जवाब कलम से ही दिया जा सकता है। हम रूस या चीन नहीं हैं, और कभी होंगें भी नहीं। मित्र Yashwant Singh जी पर हुए हमले के पोस्ट कुछ दिनों से देख रहा हूँ। हत्याओं पर तो काफी कुछ लिखा ही जा चुका। यह बात गले से उतर ही नहीं रही कि हमारा देश कभी पत्रकारों के लिए खतरनाक देशों में गिना जाएगा। बल्कि भारत प्रेस स्वतंत्रता के शिखर पर पहुँचे, यही कामना है।
(नार्वे में मेडिकल फील्ड में कार्यरत और सोशल मीडिया पर अपने लेखन के कारण चर्चित प्रवीण झा की एफबी वॉल से.)
प्रवीण श्रीवास्तव : कहीं किसी से सुना था कि … यशवंत सिंह जब वाराणसी संस्करण से प्रकाशित एक बड़े अखबार में थे.. उनका बाघा बॉर्डर जाना हुआ… लौटे तो “निगाहों- निगाहों में होती हैं बातें” नामक शीर्षक की ख़बर लिख डाली… कि दोनों देशों के सैनिक कैसे करते हैं बातें … उस यात्रा वृतांत में क्या था ये तो हमें नही पता… लेकिन जिसने ये बात छेड़ी थी उसके बातों से लग रहा था कि उस वृतांत के शब्दों ने कई पत्रकारों को हिला दिया था। लोग सोचने पर मजबूर हो गए कि हम भी बाघा बॉर्डर घूम आये लेकिन ऐसा भी लिखा जा सकता है दिमाग में क्यों नही आया। फिर क्या था लोग जलते गए… कारवां शिखर की तरफ बढ़ता गया… गाजीपुर का वह युवा यशवंत सिंह भड़ासी बन गया…
फिर क्या था.. संघर्षों और जीवन के उतार चढ़ाव ने भड़ासी बाबा की कलम मजबूत कर दी।
ये तो होना ही था… एक रोल मॉडल तैयार हो गया पत्रकारिता के छात्रों के लिए .. हम भी उन्हीं छात्रों में से थे… 2010 की बात है… हम पत्रकार बनने की लालसा लिए भोपाल पहुंचे… माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में दाखिला लिया.. वहां पहुंचने के बाद भड़ासी बाबा यशवंत सिंह के बारे में पता चला… हमें पूर्वांचल के होने के नाते इतना पता था कि पत्रकार होना अपने आप में भौकाली होता है…. उसपर भौकालियों की भौकाल पर नकेल कसने वाला इंसान कितना भौकाली होगा… वहीं से यशवंत सिंह से मिलने की लालसा जगी… खुशी तो तब और बढ़ गयी जब पता चला यशवंत जी हमारे पड़ोसी जिले गाजीपुर के हैं…. तमन्ना पूरी हुई कुछ सालों बाद गाज़ीपुर में पत्रकारों के एक कार्यक्रम में यशवंत जी मुख्य अतिथि थे… उनके साथ पिछले दिनों हुए वाकये के बाद भी उनकी उदार सोच ने युवा पत्रकारों में फिर से ऊर्जा भरी…
इस एक छोटी सी कथा को उन्होंने चरितार्थ किया.. कथा यूं है… “एक ब्राह्मण हर रोज मंदिर की 50 सीढियां चढ़कर पूजन को जाते थे… जैसे ही वह 25वीं सीढ़ी पर पहुंचते एक बिच्छु उन्हें डंक मार देता और वह उसे उठाकर किनारे रख देते और मंदिर में चले जाते, हर रोज ऐसा ही होता, लोगों ने एक दिन उनसे कहा बाबा आपको वो बिच्छु हर रोज काटता है और आप उसे मारने के बाजाय किनारे क्यों रख देते हैं.. इसपर ब्राह्मण ने जवाब दिया ” वो अपना धर्म निभा रहा है और मैं अपना” बिच्छु का धर्म है काटना सो वो मुझे काटता है…
(पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवा और प्रतिभाशाली पत्रकार प्रवीण श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.)
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