बुद्धिजीवी होने का मतलब शुतुरमुर्ग होना नहीं है। हमेशा अपनी थ्योरी से ही चीजों का विश्लेषण मत कीजिये। क्या होता और क्या होना चाहिये से ज्यादा महत्वपूर्ण है..क्या हो रहा है। सैकड़ो वर्षों से वास्तव में क्या हो रहा है, पूरे विश्व मे क्या हो रहा है? उसको आंखों से देखा जा सकता है। उसके लिये दिमाग में उपजी किसी थ्योरी की जरूरत नही है।
आपकी नास्तिकता भी सही है। पर Organised Religion(संगठित धर्म) इस दुनिया का सत्य है और यही रहने वाला है। आपकी मानवता का सिद्धांत भी सही है। पर एक मजबूत देश और मिलिट्री इस दुनिया का सत्य है। व्यवस्था वैसे ही चलनी है। नही तो लालच, मोह, घृणा से भरे धूर्त इंसान सीधे इंसान को जीने न दे। कई महान मिलिट्री लेस शांतिप्रिय सभ्यतायें किस तरह बर्बर आक्रमणकारियों के हाथों विनाश को प्राप्त हुई, इतिहास इस बात का गवाह है।
अब जब Organised Religion(संगठित धर्म) इस दुनिया के सत्य है तो यह भी सत्य है कि अगर आप भारत और इसकी विविधता से लगाव है तो आप यह भी मानेंगे कि इसकी बहुलता-विविधता एक संगठित धर्म “हिंदुत्व” के कारण है। यह कारण इसलिये भी है कि हिंदुत्व आपको यह छूट देता है कि आप अलग अलग विचारधारा को माने, अलग अलग देवी देवताओं की पूजा करें या नास्तिक रहें, अलग अलग वेश-भूषा या संस्कृति को माने फिर भी आप हिन्दू रह सकते हैं। इधर प्रतिक्रियास्वरूप कट्टरता बढ़ने के बाद और छिटपुट घटनाओं के बाद भी बहुसंख्यक हिन्दू दूसरे धर्मों के साथ सद्भाव से एक धर्मनिरपेक्ष संविधान के नियम कानून के साथ रह सकते हैं। ईसाई या बौद्ध धर्म के लिये भी ऐसा कहा जा सकता है।
पर जब मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाएं तो उनको अपने शरिया का कानून चाहिये ही, उनको बुरका चाहिये ही। अपने लिये भी, दूसरे धर्म के लोगों के लिये भी। उनको एक धर्मनिरपेक्ष संविधान नही चाहिये। यही पाकिस्तान के केस में हुआ, बंगलादेश के केस में हुआ औऱ कश्मीर में भी हो रहा है। अब ऐसे में कोई “डोडो” बुद्धिजीवी यह सोचता है कि यह मुद्दा स्थानीय मुद्दा है तो वह बड़े मुगालते में है। घूम फिर कर वही बात..चीज़ों को देखने के लिये आपने आंखे बंद कर ली है और एक काल्पनिक थ्योरी से विश्लेषण किये जा रहे हो।
उनके जैसे कुछ यह भी कहते हैं कि क्यूँ भई, आप कश्मीर कश्मीरियों (मुसलमान पढ़े क्योंकि इसमें हिन्दू पंडित, राजपूत, गुज्जर नहीं आते) को दे क्यों नही देते। तो मैं कहूँगा कि क्यों भई, ऐसा क्यों किया जाये। बहुल्यवाद या विविधता को ही हमेशा क्यों हारना पड़े। एक उदार जीवन शैली को ही हमेशा क्यों पीछे हटना पड़े। दुनिया में मानवता के शुरुआत से ही हर जगह मौजूद बहुदेववादी प्रकृतिपूजकों को ही नए शुरू हुए कट्टर संगठित धर्मों के लिये हमेशा जमीन क्यों छोड़नी पड़े। अब तो यह पूरे विश्व से हटते हटते केवल भारत में सीमित रह गए हैं। क्या आपको इसमें अन्याय नही दिखता। यहीं आकर ज्यादातर बुद्धिजीवी शुतुरमुर्ग दिखते हैं। उनको आतताई में ही पीड़ित दिखता है और पीड़ितों में आतताई।
कश्मीर में बहुल्यवाद को बढ़ावा देना है, ये जो कट्टरता घर कर रही है उसको रोकना है, शांति कायम करना है, उसके विराट सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखना है तो धारा 370 विशेषकर उप-धारा 35A को हटाना ही होगा। यह हमारे राजनेताओं और नीति-नियंताओं को समझना होगा। यह जितना जल्दी हो जाये, समस्या उतनी ही जल्दी सुलझेगी। आखिरकार यह केवल कश्मीर घाटी का ही मसला नही है, लद्दाख का भी मसला है, जम्मू का भी मसला है। और मैं यह भी कहूंगा कि यह हमारे देश भारत की भी अवधारणा का मसला है.. जय हिंद!
ट्रेवलर, फोटोग्राफर, राइटर संतोष सिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. वे रेलवे में वरिष्ठ पद पर पदस्थ हैं.