Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

मीडिया विमर्श 4 – पत्रकारिता का मग-बाल्टी युग… मार्केटिंग के इस नए भंवर ने अखबार में कंटेंट की भूमिका सीमित कर दी!

अनिल भास्कर-

1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण ने बाजार को विस्तार दिया तो इस विस्तार ने मीडिया हाउसों की ऊंची उड़ान के लिए आसमान खोल दिया। अपरिमित संभावनाओं से भरे इस नवयुग ने हिंदी और अन्य भाषाई (वर्नाकुलर) अखबारों के स्थानीय संस्करणों की जमीन तैयार की। धीरे-धीरे जिलों तक के विशेष संस्करण निकलने लगे। इससे सुदूर ग्रामीण इलाकों तक अखबार जा पहुंचे। विज्ञापन के टॉनिक ने अखबार मोटे कर दिए तो तकनीकी तरक्की इसमें रंग भरने लगी। लेकिन इन संस्करणों के लिए गुणवत्तापूर्ण सामग्री जुटाना तब भी बड़ी चुनौती थी, आज भी है।

मीडिया हाउसों ने इस चुनौती की गंभीरता तो समझी मगर कभी गंभीरता से लिया नहीं। दरअसल इसे गंभीरता से लेना उनके आर्थिक हितों के अनुकूल नहीं था। वे कम खर्च में ज्यादा मुनाफे के गणित पर बढ़ रहे थे। लिहाज़ा स्थानीय समाचार संकलन के लिए जो नेटवर्क गढ़े गए वे न तो गुणवत्ता की कसौटी पर खरे उतरने वाले थे, न ही प्रामाणिकता की। अफसोसनाक यह कि सम्पादकों ने भी इस तरफ देखना गवारा नहीं किया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस व्यवस्था ने आंचलिक खबरों की परिभाषा ही बदल दी। ये खबरें अब अखबार में विज्ञापन से बचे स्थान को भरने की सामग्री मात्र थी। अखबारों का लगभग एक तिहाई हिस्सा उन खबरों से भरा जाने लगा जो संवाददाताओं की ग़ैरपेशेवर और अप्रशिक्षित टीम जुटा रही थी। दूसरी पायदान के प्रकाशनों को छोड़िए, प्रथम पंक्ति के अखबार भी प्रामाणिकता की गारंटी वाली व्यवस्था नहीं बना सके, या बनाने की जरूरत नहीं समझी। लिहाज़ा खबरें तो गली-मोहल्लों तक से रिपोर्ट होने लगीं, लेकिन सत्य और मिथ्य के बीच झूलती हुई। बड़ी घटनाओं तक की रिपोर्टिंग में कारण, कारक से लेकर परिणाम तक अनेक मूल तथ्य अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग मिलने लगे। स्थानीय और क्षेत्रीय नेताओं से लेकर अधिकारियों तक निजी संबंधों का समीकरण खबरों की सतह पर तैरने लगा। नतीजा; पाठकों का विश्वास दरकने लगा और साख का यह संकट निरंतर गहराता चला गया।

अब पूरी ताकत सिर्फ स्कीम के जरिये अखबारों की बिक्री बढ़ाने और बढ़ी हुई प्रसार संख्या के बूते ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरने में लग गई। पाठक और पठनीयता बढ़ाने की जगह बिक्री के आंकड़े बढ़ाने की कवायद चलती रही। इस कवायद में कई बार संपादकीय टीम के कारकुन भी लगाए गए, लेकिन कंटेंट की लड़ाई कहीं नहीं दिखी। हां, विशेष अवसरों पर कुछ अलग करने-दिखने या अधिक से अधिक सामग्री परोसने की होड़ जरूर रही।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कुल मिलाकर अंतिम लड़ाई सर्कुलेशन के लिए जिम्मेदार सेल्स टीम के कंधों पर लड़ी जाने लगी। और जैसा कि सुनते आए हैं, जंग और मोहब्बत में हर दांव, हर पैतरा जायज है, सेल्स टीम पाठकों को संपादकीय गुणवत्ता की बजाय बाल्टी-मग के श्योर गिफ्ट से लेकर लकी ड्रा की स्कीम पर रिझाने-ललचाने में जुट गए। दुर्भाग्य से पाठक भी अखबार की सामग्री की बजाय बाल्टी-मग की गुणवत्ता पर रीझने लगे। अखबार पढ़ने से ज्यादा संजीदा कूपन काटकर चिपकाने में दिखे। मार्केटिंग के इस नए भंवर ने अखबार में कंटेंट की भूमिका सीमित कर दी और सम्पादकीय गुणवत्ता को पार्श्व में धकेल दिया। या यों कहिये कि गर्त में दे फेंका।

जारी…

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement