दैनिक भास्कर ने कुछ संस्करणों में ‘जेड प्लस’ फिल्म के लेखक रामकुमार सिंह का नाम रिव्यू से हटाया

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Ajay Brahmatmaj : जयप्रकाश चौकसे के कॉलम ‘पर्दे के पीछे’ से दैनिक भास्‍कर के जयपुर समेत कुछ संस्‍करणों में फिल्म के लेखक Ramkumar Singh का नाम हटा दिया गया। पत्रकार बिरादरी की तुच्‍छता है यह। यह शर्मनाक और दुखद है। फिलहाल जयप्रकास चौकसे को पढ़ें और कल फिल्‍म देखने का फैसला करें। शेयर करें और दूसरों को पढ़ाएं।

मुंबई के वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज के फेसबुक वॉल से.

Vineet Kumar : दैनिक भास्कर ने अपने कुछ संस्करण में जेड प्लस के लेखक रामकुमार सिंह का नाम इसलिये हटा दिया क्योंकि वो उस अखबार के लिये काम करते हैं जो भास्कर का कॉम्पिटिटर है… मतलब भास्कर के पाठक को जानने का अधिकार ही नहीं है कि जेड प्लस फ़िल्म के लेखक कौन हैं? तो ऐसे चलता है आपके लोकतंत्र के चौथे खम्भे का धंधा. अब सोचिये बड़े खेलों में क्या-क्या हटाया जाता होगा?

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हमने जेड प्लस फ़िल्म देख ली लेकिन आप हम जैसों के लिखे के चक्कर में मत पड़िए.. जिस तरह हर के हिस्से का सच अलग होता है,वैसे ही स्वाद का भी. और मेरे उस स्वाद में दोस्ती से लेकर फ़ोकट की प्रेस शो में फ़िल्म का देखना भी शामिल है.आपके देख लेने के बाद इसके मीडिया एंगल को लेकर अलग से लिखूंगा..बस इतना समझ लीजिये कि इस देश के किसी भी लफंदर टीवी रिपोर्टर का नाम दीपक होगा..फ़िल्म चाहे पीपली लाइव हो या फिर जेड प्लस..मतलब दीपक अब नाम नहीं एक सिंड्रोम है, मीडिया का चुत्स्पा…और न्यूज़ चैनल मतलब आजतक के आसपास का कोई भी अंडू-झंडू

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अच्छे दिन की पंचांग- फिल्म जेड प्लस… आम आदमी जब अपने हालातों के बीच जीते हुए अचानक से सरकार की रहमोकरम पर खास हो जाता है, उसकी किस्मत सांड जैसी हो जाती है तो वो प्रशासन की नजर में बहनचो..हो जाता है, वो अपनी जिंदगी न जीकर सरकार की जिंदगी जीने लग जाता है, वो अकेले में पर-पेसाब तक नहीं कर सकता, उसकी जिंदगी में सिक्यूरिटी और सियासत इस कदर घुस आती है कि वो समाज में बलून बनकर उड़ने लग जाता है..कितना कुछ हो जाता है एक आम आदमी के साथ जिसका खास होना उसकी खुद की कोशिश का हिस्सा न होकर सत्ता और सरकार के उस बेहूदे फैसले से तय होता है जिसका किसी भी हाल में गलत करार दिए जाने का सवाल ही नहीं उठता.

वैसे तो आम आदमी की कोई कहानी नहीं होती, बस हालात होते हैं..वो जिंदगी नहीं, हालातों को जीता है लेकिन सरकार उसके बीच अचानक से एक कहानी ढूंढ लेती है जिसमे वो टू इन वन हीरो पैदा करती है. एक हीरो वो खुद और दूसरा वो आम आदमी. सरकार का हीरो होना रोजमर्रा की घटना है, उसके रोज अच्छे दिन आते हैं लेकिन आम आदमी का हीरो होना एक्सक्लूसिव है और अच्छे दिन भी सीजनल होते हैं.

फिल्म जेड प्लस जिसे मिजाज से बेहद ही स्वीट लेकिन व्यंग्य के अंदाज में बेहद ही तीखे अपने ही दोस्त रामकुमार( Ramkumar Singh) ने लिखी है, की प्रोमो पिछले कई दिनों से वर्चुअल स्पेस पर तैर रही है..आपको इन प्रोमो को देखकर हंसी आएगी, लेकिन रिप्ले करेंगे तो गुस्सा, फिर से देखना चाहेंगे तो अफसोस और अगर उसी वीडियो को एक बार और देख लिया तो लगेगा हम दरअसल किसी नाम के काल में नहीं बल्कि उस बिडंबना काल में जीने जा रहे हैं, जिसकी अभी कुछ ही किस्त चुकाई है, पहाड़ जैसी किस्त बाकी ही है की वृतांत है..इस पूरे वृतांत से तो कल ही गुजरना हो सकेगा लेकिन प्रोमो को साक्ष्य मानते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक तो अच्छे दिन आए नहीं है, विज्ञापन की चौखट से लांघने में पता नहीं कितना वक्त लग जाए और गर ये “अच्छे दिन” सचमुच में आ गए तो फिर यातना के लिए आम आदमी कौन सा शब्द ढूंढेगा. आम आदमी के जातिवाचक संज्ञा और हालात से एक्सक्लूसिव कहानी में तब्दील होने की पूरी घटना के कई छोर, कई पेंच हैं जिन्हें कि हम अपनी-अपनी हैसियत की समझदारी की स्क्रू डाइवर से कल फिल्म देखने के बाद खोलने की कोशिश करेंगे..

युवा मीडिया और फिल्म विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से.

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