Piyush Babele : गुलामों के जिस्म का मोल होता है, जिंदगी का नहीं… पत्रकार तरुण सिसोदिया की असामयिक मौत की खबर मिली. हम और वो कभी एक ही दफ्तर में काम करते थे. मुझे उस दफ्तर को छोड़े अब लंबा वक्त हो चुका है. लेकिन आज उसके जाने की खबर से उसके होने की कुछ स्मृतियां याद आ गईं. मेरी उसकी बहुत ही कम बात हुई होगी, सर नमस्कार, तक ही शायद. उसे अक्सर अपने कंप्यूटर पर नजरें गड़ाए काम करते हुए ही देखा था. खैर, अभी तक यही लग रहा है कि उसने देश के सबसे बड़े अस्पताल की चौथी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. वह और उसका पूरा परिवार कोरोना पॉजिटिव था. अभी अभी उसके साथ काम कर रहे लोगों ने लिखा है कि उसकी नौकरी गई नहीं थी, लेकिन उतनी सुरक्षित भी नहीं थी. यह भी पता चला कि उसे ब्रेन ट्यूमर भी था.
कोरोनाकाल में मेरे किसी करीबी की यह दूसरी आत्महत्या है. इससे पहले कोरोना शुरू होते ही मेरे ममेरे भाई ने खुदकुशी कर ली थी. मैं तो आज तक अपने ननिहाल फेरा करने भी नहीं जा सका. वहां से भी यही पता चला था कि उसकी नौकरी पर खतरा था. वह मुझसे साल छह महीने छोटा था. बचपन का संगी एक झटके में चला गया.
उससे कुछ महीने पहले हमारे एक पुराने साथी कौशलेंद्र प्रपन्ना की हार्ट अटैक से मौत की खबर आई थी. प्रपन्ना के बारे में भी यही पता चला था कि उसने एक अखबार में शिक्षा व्यवस्था पर सामान्य सा लेख लिखा था, जिसे व्यवस्था विरोधी माना गया और उसकी कंपनी ने उसे नौकरी से तो निकाला ही, जलील भी काफी किया. कोमल हृदय प्रपन्न इस अपमान को झेल नहीं पाया.
इन तीन मौतों का जिक्र जो मैंने ऊपर किया, उन तीनों में एक समानता और है कि ये तीनों लोग अपने पीछे पत्नी के अलावा बहुत छोटे बच्चे छोड़ गए हैं. ये बच्चे इतने छोटे हैं कि उनकी स्मृति में पिता का कोई चित्र बचेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकता.
मैं यह सब बातें क्यों कह रहा हूं. क्या कोरी भावुकता से, या अपने मन में उमड़ रही निजी पीड़ा से या सिर्फ इसलिए कि कुछ साल पहले मैं अपने सगे छोटे भाई की लाश भी इसी तरह कंधे पर उठा चुका हूं. उसकी मृत देह के माथे को जब मैंने अंतिम बार छुआ था, तो मुझे पहली बार पता चला था कि लाश की तरह ठंडा पड़ जाना किसे कहते हैं. उसकी छरहरी, खूबसूरत काया पोस्टमार्टम टेबल पर पड़ी थी और चेहरा एकदम शांत था. पीछे मेरे मां बाप जीते जी मरे जा रहे थे और आज तक अधमरे से हैं. फिर भी मैंने उसे अंतिम विदा देते हुए यही कामना की थी कि प्रभु इसे अंतिम शांति देना.
इन भाइयों की मौत हो या मेरे सगे भाई की मौत, मैंने हमेशा यही कहा कि आत्महत्या के साथ सहानुभूति दिखाने की जरूरत नहीं है. बल्कि मैं तो इसके पीछे एक धिक्कार-भाव का ही समर्थन करता हूं. वजह साफ है कि हमारी कोई चेष्टा किसी और को आत्महत्या के लिए बहाना न दे जाए.
लेकिन आज बात इन चार लोगों की मौत तक सीमित नहीं है. आत्महत्या के कारण निजी जरूर होते हैं, लेकिन पूरी तरह निजी नहीं होते. ठीक वैसे ही जैसे सड़क दुर्घटना का कारण सिर्फ ड्राइवर की लापरवाही नहीं होती, सड़क का खराब होना भी होती है. ट्रैफिक नियमों का अज्ञान भी होता है. गाडि़यों पर बेतहाशा लदी हुई सवारियां या माल का ओवरलोड भी होता है. यानी आदमी सड़क पर अपनी लापरवाही से जितना मरता है, उतना ही वह खराब ट्रैफिक व्यवस्था से भी मरता है.
आत्महत्या के मामले में व्यवस्था को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता. भारत आज भयानक मंदी के दौर में है. इस मंदी का सिलसिला नोटबंदी के साथ शुरू हुआ था, जो बढ़ता ही गया. आंकड़ों और खबरों की दुनिया रंगीन या गुलाबी हो सकती है, लेकिन हम सब अपनी जेबों में हाथ डालें तो पाएंगे कि वहां माल कम ही होता जा रहा है. कोरोना आने से पहले ही अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी थी और फिर कोरोना के आघात से इसे सन्निपात हो गया.
कितने बड़े पैमाने पर मजदूर वर्ग और मध्यम वर्ग की नौकरियां गई हैं, उसका कोई हिसाब हमारे पास नहीं है. प्राइवेट सेक्टर में कितने कर्मचारी बचे हैं, जिनका वेतन न कटा हो. मजदूर पैदल चल दिए अपने गांवों की ओर. राशन की दुकान के बाहर पहली बार भिखारियों का जमावड़ा शुरू हुआ. यह फर्स्ट जनरेशन भिखारी हैं क्योंकि इसके पहले वे मजदूर थे. लेकिन इन्हें ठीक ढंग से भीख भी नहीं मिल रही, क्योंकि भीख देने वालों के पास भी दाम नहीं हैं. इसी अवस्था को शास्त्रों में दुर्भिक्ष कहा गया है. दुर्भिक्ष: यानी वह समय जब भिक्षा मिलना भी दूभर हो जाए.
लेकिन आमदनी में इस कटौती के साथ खर्चे बहुत ज्यादा नहीं काटे जा सकते. मकानों के लोन जो बैंक से लिए गए हैं, वह चुकाने ही हैं. यानी हाल कार लोन का है. इसी तरह बच्चों के स्कूल की फीस है. अगर आदमी बेघर होता है तो बदनामी है, उसकी कार बैंक वाले उठा ले जाएं तो बदनामी है और बच्चों का नाम स्कूल से कटा दिया तब तो वह अपनी ही नजरों में गिर जाएगा. मेडिकल इमरजेंसी आ जाए, जो कि आती ही है, तो उसका क्या होगा. क्योंकि नौकरी जाने के साथ उससे जुड़ा हेल्थ बीमा भी गया.
यह मध्यमवर्ग के वे सीधे सरल आर्थिक हालात हैं, जिनके लिए कोई व्यक्ति निजी तौर पर दोषी नहीं है. यह एक ऐसा समय है जिसमें वह कितनी भी मेहनत कर ले, लेकिन इससे उसकी नौकरी बचे रहने की कोई गारंटी नहीं है. यह आर्थिक आपातकाल है.
ऐसे ही आर्थिक आपातकाल यानी 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी में अमेरिका में एक उपन्यास लिखा गया था: डेथ ऑफ ऐ सेल्समैन. उस उपन्यास का सार यही था कि सुनहरे भविष्य और आर्थिक तेजी की मनोदशा में जो लोग कामकाज में लगे थे और उसी हिसाब से जिन्होंने अपने आर्थिक गुणा भाग किए थे, वे मंदी में मारे जाते हैं. वे न खुद भीख मांग सकते हैं और न इस बात की कल्पना कर पाते हैं कि उनके बच्चे उनकी नजरों के सामने दर दर की ठोकरें खाएंगे. उनकी सारी प्रतिभा बाजार के मुनाफे की मोहताज है, मजदूरी उन्हें आती नहीं. वे मजदूर या ब्लूकॉलर लोग नहीं होते, वे मध्यमवर्गीय लोग होते हैं. ऐसी मंदी उन्हें मौत के मुंह में धकेलती है. वे खुदकुशी या सदमे से मरते हैं, लेकिन उनकी खुदकुशी में व्यवस्था का पूरा हाथ होता है. एक तरह से व्यवस्था उनकी हत्या करती है. ठीक वैसे ही जैसे काम निकल जाने के बाद कमजोर पशुओं को बूचड़खाने में कटने के लिए भेज दिया जाता है.
मनुष्य हमेशा से यही उम्मीद करता आया है कि यह या वह क्रांति उसे इस बूचड़खाने के नरक से आजाद करा देगी. लेकिन बूचड़खाना इतना चतुर है कि वह राज्य से खुद का ही कल्याण करवाता रहता है. इसीलिए उसने कल्याण की परिभाषा कर दी है ब्याज, कर्ज और मुनाफा. उसने बड़ी चतुराई से शोषण को मेहनत और विलासिता को ईश्वर की कृपा घोषित कर दिया है. इस व्यवस्था की चरम परिणिति यह है कि हर वंचित आदमी अपनी वंचना के लिए खुद को दोषी समझता है. उसके साथी उसी को निकम्मा या अभागा समझते हुए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहते हैं. खामोशी से अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहना ही गुलामी है. हम सब गुलाम हैं. गुलामों के जिस्म का मोल होता है, जिंदगी का नहीं.
पत्रकार पीयूष बबेले की एफबी वॉल से.
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