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बिहार

सलाम मांझी! सलाम कंवल भारती!

दलित-पिछड़ों यानी मूलनिवासी की वकालत को द्विज पचा नहीं पा रहे हैं। सामाजिक मंच पर वंचित हाषिये पर तो हैं ही, अब राजनीतिक और साहित्यिक मंच पर भी खुल कर विरोध में द्विज आ रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के आर्यों के विदेशी होने के बयान से उच्च जाति वर्ग पार्टी और विचार धारा से ऊपर जाकर बौखलाहट और तीखा विरोध के साथ सामने आया तो वहीं लखनउ में कथाक्रम की संगोष्ठी ‘लेखक आलोचक, पाठक सहमति, असहमति के आधार और आयाम’, में लेखक कंवल भारती के यह कहने पर कि ‘साहित्य और इतिहास दलित विरोधी है। ब्राह्मण दृष्टि असहमति स्वीकार नहीं करती।

<p>दलित-पिछड़ों यानी मूलनिवासी की वकालत को द्विज पचा नहीं पा रहे हैं। सामाजिक मंच पर वंचित हाषिये पर तो हैं ही, अब राजनीतिक और साहित्यिक मंच पर भी खुल कर विरोध में द्विज आ रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के आर्यों के विदेशी होने के बयान से उच्च जाति वर्ग पार्टी और विचार धारा से ऊपर जाकर बौखलाहट और तीखा विरोध के साथ सामने आया तो वहीं लखनउ में कथाक्रम की संगोष्ठी ‘लेखक आलोचक, पाठक सहमति, असहमति के आधार और आयाम’, में लेखक कंवल भारती के यह कहने पर कि ‘साहित्य और इतिहास दलित विरोधी है। ब्राह्मण दृष्टि असहमति स्वीकार नहीं करती।</p>

दलित-पिछड़ों यानी मूलनिवासी की वकालत को द्विज पचा नहीं पा रहे हैं। सामाजिक मंच पर वंचित हाषिये पर तो हैं ही, अब राजनीतिक और साहित्यिक मंच पर भी खुल कर विरोध में द्विज आ रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के आर्यों के विदेशी होने के बयान से उच्च जाति वर्ग पार्टी और विचार धारा से ऊपर जाकर बौखलाहट और तीखा विरोध के साथ सामने आया तो वहीं लखनउ में कथाक्रम की संगोष्ठी ‘लेखक आलोचक, पाठक सहमति, असहमति के आधार और आयाम’, में लेखक कंवल भारती के यह कहने पर कि ‘साहित्य और इतिहास दलित विरोधी है। ब्राह्मण दृष्टि असहमति स्वीकार नहीं करती।

सत्ता में बदलाव और संघ परिवार के मजबूत होने से दलित साहित्य के ज्यादा बुरे दिन आने वाले हैं।’ बस इतना ही कहना था कि संगोष्ठी में मौजूद द्विजों ने कंवल पर मुद्दे को भटकाने का आरोप लगाते हुए हमला बोल दिया। साहित्यिक माहौल में द्विजों का एक दलित लेखक पर उसकी अभिव्यक्ति पर हमला, साबित करता है कि राजनीतिक और सामाजिक मंच की तरह साहित्यिक मंच भी जातिवादी जड़ता से बाहर नहीं आ पाया है। जातिवादी जड़ता पूरी मजबूती से कायम है। तथाकथित जातिवादी नहीं होने का जो मुखौटा दिखता है वह नकली है।

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जीतन राम मांझी के आर्यों के विदेशी होने के बयान पर द्विजों की बौखलाहट और तीखा विरोध से एक बात बिलकुल साफ है कि उच्च जाति वर्ग के बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और कार्यकर्ताओं में पार्टी और विचार धारा से ऊपर जाकर उच्च जाति के मुद्दे पर एक एकता है। पीएमएआरसी के अध्यक्ष और दलित चिंतक अरूण खोटे मानते हैं कि उन सबके बीच इस बात की भी आम सहमति है कि सत्ता व्यवस्था पर चाहें कोई भी दल, व्यक्ति या विचाधारा का कब्जा हो लेकिन वह पूर्णरूप से उच्च जाति वर्ग के अधीन हो और जो उच्च जाति की वर्चास्यता को चुनौती न दे सके वहीं दलित और पिछड़े वर्ग के नेता और बुद्धिजीवी अपनी पार्टी, नेता और विचारधारा को अपने वर्ग से ज्यादा महत्त्व देते हैं बल्कि अनेक अवसरों पर अपने वर्गीय हितों के खिलाफ होने वाली गोलबंदी के समथन में भी खड़े हो जाते हैं। सच भी है मांझी के बयान से सभी द्विज गोलबंद हो गये। हिन्दूवादी मीडिया भी मांझी के बयान के विपक्ष में खड़ा दिखा। सोषल मीडिया पर जीतन राम मांझी के ज़ज्बे को सलाम किया गया। सत्ता व व्यवस्था के शिखर पर पहुंच कर जिस तरह से मांझी ने वंचित वर्ग की अस्मिता, पहचान और हक-हूक के सवाल को पूरी ताकत के साथ रखा है वह काबिले तारीफ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जीतन राम मांझी ने अपने बयान में दलित, आदिवासी और पिछड़ों को एक पहचान दिलाने की भरपूर कोषिष की। मूल निवासियों के हक की बात की। वह भी व्यवस्था के उच्च पद से।

मूल निवासी की बात को लेकर मुख्यधारा की मीडिया कभी सामने नहीं आयी। सोशल मीडिया में मूल निवासी की अवधारणा पर बहस करने वालों को इस बहस को आगे बढ़ाने में बल मिलेगा। साथ ही जीतनराम मांझी के समर्थन में मजबूती से साथ खड़ा सार्थक भूमिका होगी। जीतन राम मांझी  और कंवल भारती के बयान से बौखलाये द्विजों की प्रतिक्रिया ने बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और सामाजिक कार्यकत्ताओं के चेहरे से नकाब हटा दिया है। बल्कि खुद ही उनके असली और नकली होने का प्रमाण दे दिया। थोड़ी देर के लिए राजनीतिक मंच को छोड़ दिया जाये और साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों को देखा जाये तो, जो कुछ कथाक्रम की संगोष्ठी में दलित मुद्दे की बात कहने पर घटित हुई वह द्विजों के लिए अक्षम है। संस्कृति की राह दिखाने वाले खुद जब अपसंस्कृति की राह पकड़ ले तो इसे क्या कहा जाये?

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इस हंगामे पर प्रो रमेश दीक्षित कहते हैं, कंवल भारती बढि़या बोल रहे थे। किसी को कोई दिक्कत थी, तो उसके लिए मंच था। वैचारिक स्वतंत्रता है, देश में अभी फासीवाद नहीं आया। वहीं जलेस के नलिन रंजन सिंह मानते हैं कि लोकतंत्र में अपनी बात कहने का हक है। ऐसे में कंवल भारती का विरोध करना गलत था। उनसे असहमति रखने के बाद भी उनके बोलने के अधिकार पर रोक का विरोध करता हूं। लेखक पंकज प्रसून कहते हैं, कंवल भारती तय करके के आए थे कि उनको क्या बोलना है। ऐसा कई बार लोग लोकप्रियता के लिए भी करते हैं। वे मुद्दों पर रहते तो विवाद नहीं होता। साहित्य में विवाद न हो तो संवाद नहीं होगा। विरोध पर कंवल भारती कहते हैं, ऐसा विरोध मेरे लिए नया नहीं है। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता रहता है मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपनी बात तो कहूंगा ही आप असहमत हैं तो अपना पक्ष रख सकते हैं।

द्विजों ने मूल निवासी पर मांझी को एवं साहित्य-इतिहास दलित विरोधी पर कंवल भारती को जिस तरह से धेरा वह सवाल खड़ा करता है। क्या कोई दलित-पिछड़ा (वंचित वर्ग) अपनी बात नहीं कह सकता? मांझी या फिर कंवल भारती ने कौन सी गलत बात कर दी? जब किसी वंचित को सत्ता-व्यवस्था में उच्च स्थान मिलता है तो उसे उसकी जाति से जोड़ कर क्यों देखा जाता है? सवाल उठाया जाता है। मुद्दों-बयानों में धेरा जाता है और साबित करने की कोषिष की जाती है कि दलित-पिछड़े-आदिवासी है इसलिये मोरचे पर असफल हैं! जबकि द्विजों पर यह हमला दलित-पिछड़े-आदिवासी की ओर से नहीं होता है। बहरहाल, दलित-पिछड़े-आदिवासी की आवाज को बुलंद करने के लिये जीतन राम मांझी और कंवल भारती को सलाम!

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लेखक संजय कुमार बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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