: अखबारों-टीवी की विज्ञापन नीति और नैतिक मापदंडों के लिए मदद करें : बड़े नाम के किसी भी अखबार और पत्रिका को उठा लीजिए, मजीठिया वेतन बोर्ड आयोग की सिफारिशों के अनुरूप पत्रकारों को वेतन देने में बहानेबाजी कर रहे अखबार मालिकों की माली हैसियत सामने आ जाएगी। लेकिन इनके अखबारों में विज्ञापनों की इतनी भरमार रहती है कि कभी तो उनमें खबरों को ढूंढना पड़ता है। लेखकों को दिए जा रहे पारिश्रमिकों की हालत यह है कि सिर्फ लेख लिखने के दम पर गुजारा करने की बात सोची नहीं जा सकती। हमारे देश में सिर्फ एक अखबार या पत्रिका में लेख या स्थायी स्तंभ लेखन के जरिए गुजारे की कल्पना करना, उसमें भी हिन्दी भाषा में, असंभव है।
मजीठिया के बहाने ही सही, कुछ पत्रकारों ने आखिर एकजुटता और अदालत के दरवाजे खटखटाने का साहस तो दिखाया। सन् 1981 की बात है। बीए ऑनर्स के द्वितीय वर्ष में था। लेखन के दम पर गुजारे को लेकर चली ऐसी ही एक चर्चा में एक प्राध्यापक ने मुझे एक सर्वे के बारे में बताया जो उन्होंने उन्हीं दिनों किसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में पढ़ा था। सर्वे में उस समय निकलने वाले धर्मयुग का भी जिक्र था। धर्मयुग के सर्क्युलेशन, छपाई, टैक्स और मालिक के अच्छे खासे मुनाफे के बाद लेखकों को उस दौर में एक पृष्ठ के लेख के आठ सौ रुपए मिलने चाहिए। 44 साल पहले एक पृष्ठ के लेख का मेहनताना आठ सौ रुपए आंका गया था। दो सवाल हैं। पहला- आज यह कितना होना चाहिए? और दूसरा- आज कितना मिल रहा है? इसी अनुपात में अगर हम विज्ञापनों की दर देखें और विज्ञापनों की भरमार देखें तो फटी आंखें बंद होना भूल जाती है।
कुछ सालों बाद जब दूरदर्शन पर इतवार की सुबह रामायण, महाभारत, बुधवार की रात आठ बजे चित्रहार और इतवार की शाम पांच बजे हिन्दी फिल्म आती थी तो इनमें विज्ञापनों की भरमार बढ़ने लगी। उन्हीं दिनों जनसत्ता या नवभारत टाइम्स में एक कार्टून छपा था। इसमें दूरदर्शन पर बढ रहे विज्ञापनों का कटााक्ष करते हुए कहा गया था, ‘इस समाचार के प्रायोजक हैं।’ दरअसल उन दिनों तक समाचार के दौरान विज्ञापन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आज हर न्यूज चैनल पर हैडलाइंस, मुख्य समाचारों, खास खबरों तक के लिए ‘ब्रॉट टू बाय’ या ‘स्पान्सर बाय’ अलग से होते हैं।
अखबारों के मुखपृष्ठ पर दोहरा मुखौटा जड़ना आम बात है। पहले पेज पर सिर्फ अखबार का बैनर या मास्टर हैड होता है। फिर पूरे पृष्ठ का विज्ञापन। तीसरा पृष्ठ उस अखबार का वास्तविक तौर पर मुखपृष्ठ होता है। यह अब हर तीसरे चौथे दिन की बात हो गई है। बाकी पेजों पर भी कई बार तो एक आध न्यूज होती है वरना आधा पृष्ठ तक के विज्ञापन आम बात हैं। पिछली दीपावली पर तो दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और दैनिक नवज्योति ने लगातार तीन-चार दिन एक ही दिन के अखबार में तीन से चार तक मास्टर हैड या बैनर लगे पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन दिए। इस बारे में न कोई नैतिकता है, ना ही मापदण्ड। आजकल किसी संस्थान के अखबार के आकार के स्पॉंसर पेज भी अखबार के साथ बांटने एक तरीका और चला है। जिसमें अखबार का नाम नही होता। जाहिर है इसे अपने अखबार के साथ बांटने के लिए विज्ञापनो जितनी ही रकम ली गई होगी। यह तो सरासर धोखाधड़ी है। कारण है कि इसे लेकर अब तक कोई कानून नजर नहीं आता। कुछ सिफारिशें जरूर बताई जाती है।
विज्ञापनों की अपनी अलग दुनिया है। कानून है, अश्लीलता अभद्रता रोकथाम के लिए। परंतु अखबार-टीवी तो इनसे आजाद नजर आते हैं। यौन दुर्बलता, यौन अक्षमता, यौन बलवर्द्धक दवाइयों और संतुष्टि के कृत्रिम संसाधनों, फ्रेंडशिप के प्रस्तावों में जो भाषा इस्तेमाल होती है अपना दावा है कि उस अखबार के संपादक, मालिक, निदेशक अपनी बहनों, बेटियों, बहुओं के सामने खुद नहीं पढ़ सकते। पैसे की चकाचौंध तो उन्हें इस बारे में की फुर्सत ही नहीं देती। क्लासिफाइड विज्ञापनों में अखबार प्रबंधन की ओर से एक छोटी सी चेतावनी होती है। इसका लब्बोलुआब यह होता है कि विज्ञापन पढने के बाद आप द्वारा किए गए किसी संव्यवहार से आपको कोई आर्थिक-शारीरिक नुकसान होता है, इसके लिए हम नहीं आप ही जिम्मेदार हैं।
सोचिए अपनी नैतिकता छोड़ गंडे-ताबीज, वशीकरण, जादू टोने आदि ऐसी कितनी चीजों को छापना तो कानूनी है। उसे पढ़कर प्रेरित या भ्रमित होकर नुकसान होना लाजिमी है। यह तथ्य भी जानते हैं परंतु अखबार की कोई जिम्मेदारी नहीं। छापकर पैसा लेने की जिम्मेदारी है, उससे होने वाले नुकसान की नहीं। अखबार मालिक जानते हैं कि समझदार तो कोई भ्रमित होगा नहीं। भ्रमित होगा दुखी, नादान, कम शिक्षित और गरीब। ऐसी बातेे हो रही है और हम आज भी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।
देश के कई भागों में ऐसा होगा परंतु राजस्थान के कुछ शहरों में तो पक्के तौर पर हॉकर आपके घर अखबार डालने के दस-पंद्रह रूपए हर महीने अलग से लेता है। एमआरपी यानि अधिकतम खुदरा मूल्य पर वह खुले आम दस रुपए महीने के लेता है। इस बारे में उनमें एकता भी है। पैसे नहीं दोगे तो कोई अखबार नहीं डालेगा जबकि उन्हें इसका कमीशन वगैरह मिलता है। अखबार प्रबंधक कहते हैं, हम कुछ नहीं कर सकते, यह हॉकर्स का मामला है।
यही हाल खबरों का है। जिसका जनाजा निकालना हो निकाल दीजिए। खबर गलत भी होगी तो एकाएक कोई पंगा लेने की हिम्मत नहीं करता। कानूनी प्रक्रिया इतनी लम्बी होती है तो मुकदमा करने वाले को ही एक स्तर पर ऐसा अहसास होने लगता है कि उसने क्या गलत कर दिया। वह प्रार्थी की जगह मुजरिम जैसी प्रताड़ना का शिकार होने लगता है। अखबार मालिक जानता है कि पहला तो वहा कानूनी प्रक्रिया मंे ही उसे थका डालेगा अगर नहीं थका और नौबत अखबार के गलत साबित होने की आ गई तो क्षमायाचना कर लेंगे। किसी आदमी पर पुलिस ने झूठा मुकदमा ही दर्ज किया हो या किसी ने गलत आरोप ही लगाए हो परंतु रोजाना ऐसे ब्रेकिंग न्यूज चलती है मानो टीवी चैनल ही उसका ट्रायल करने के लिए जिम्मेदार हो। मुकदमा दर्ज हुआ है परंतु हैडलाइंस चलती है इस मामले में सजा कितनी होगी। सजा होगी या नहीं यह सोचने कि फुर्सत उन्हें नहीं है। हो भी कैसे जिन्हें यह ज्ञान ही नहीं है कि जम्मू-कश्मीर को लेकर विवाद में रहने वाला संविधान का अनुच्छेद-370 है या धारा-370 है। मीडिया ट्रायल के बाद अब न्यूज टेªडर का इजाद ऐसी वजहों से हुआ।
आखिर कब तक चुप रहा जाए। इसलिए एक एनजीओ ने हिम्मत की है। इन सारे मामलों को हाईकोर्ट में चुनौती देने की। संभव है तब कहीं इनके बारे में कोई कानूनी नीति, नियम, कायदे कुछ बनें। कहीं तो कुछ अंकुश भी लगे। उक्त तथ्यों या इनसे जुड़े अन्य तथ्य जो आम आदमी के अधिकारों, नैतिकता से सीधे जुडे़ हैं, आप हम तक भेजें। इनके बारे में आपकी राय, सोच क्या है, इसे बताएं। सरकारी / गैर सरकारी / स्वायत्तशासी संस्थाओ की सिफारिशें, परिपत्र अगर हों तो हमें भेजें। संबंधित कानून भी आपको पता हो तो हमसे शेयर करें। अन्य देशों के नीतिगत कानून, निर्देश, आदेश भी बताएं। कुल-मिलाकर इनसे जुड़ा जो भी आपकी जानकारी में है, उसे हम तक साझा करें। उसे आप नीचे कमेंट बाक्स में या फिर शीघ्र भड़ास या नीचे दिए गए पते पर भेजें ताकि इस दिशा में हाईकोर्ट में यचिका दायर की जा सके।
पता-
राजेंद्र हाड़ा
860/8, भगवान गंज,
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लेखक राजेंद्र हाड़ा अजमरे के जाने-माने वकील और पत्रकार हैं.