आज से 35 साल पहले जब आज के ही दिन मैने अखबार की नौकरी शुरू की तो अपने इमीडिएट बॉस ने सलाह दी कि बच्चा पीएम, सीएम, डीएम और लोकल थानेदार को बचा लेना। बाकी किसी के भी भुस भरो। पर वह जमाना 1979 का था आज का होता तो कहा जाता कि लोकल कारपोरेटर, क्षेत्र के एमएलए और एमपी के खिलाफ भी बचा कर तो लिखना ही साथ में चिटफंडिए, प्रापर्टी दलाल और मंत्री पुत्र रेपिस्ट को भी बचा लेना। इसके अलावा डीएलसी, टीएलसी, आईटीसी और परचून बेचने वाले डिपार्टमेंटल स्टोर्स तथा पनवाड़ी को भी छोड़ देना साथ में पड़ोस के स्कूल को भी और टैक्सी-टैंपू यूनियनों के खिलाफ भी कुछ न लिखना। हां छापो न गुडी-गुडी टाइप की न्यूज। पास के साईं मंदिर में परसाद बटा और मां के दरबार के भजन। पत्रकारिता ने कितनी तरक्की कर ली है, साथ ही समाज ने भी। सारा का सारा समाज गुडी हो गया।
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आज बहुत दिनों बाद एनडीटीवी प्राइम टाइम में रवीश कुमार दिखे। अच्छा लगा। रवीश अपने विषय पर पूरी स्टडी करते हैं और कहीं भी नहीं लडख़ड़ाते। इसी तरह उनकी टीम भी उम्दा होती है। अभय कुमार दुबे हिंदी के उन गिने-चुने पत्रकारों में से हैं जिनकी जिनकी जमीनी समझ लाजवाब है। अभय जी के अपने कुछ पूर्वाग्रह हो सकते हैं पर इसमें कोई शक नहीं कि अभय जी राष्ट्रीय राजनीति को समझने में निष्णात हैं। वे हर जटिल से जटिल समस्या का भी ऐसा समाधान पेश कर देते हैं कि लगने लगता है अरे ऐसा तो सोचा ही नहीं था। आज भी उन्होंने महाराष्ट्र में भाजपा के ढोल की पोल खोल दी। भाजपा लगातार एक देश एक जाति एक धर्म की बात करती है जबकि भारत जैसे बहुजातीय, बहुधर्मी और बहु संस्कृति वाले देश में ऐसा नामुमकिन है। यही कारण है कि भाजपा अपनी पूरी ताकत लगाकर भी महाराष्ट्र में मोदी के व्यक्तित्व को तेज हवा में भी नहीं बदल सकी। इतने धुंआधार प्रचार के बावजूद कोई ऐसी लहर नहीं पैदा कर सकी कि बहुमत के करीब तक पहुंच पाती। उसे जो भी सीटें मिली हैं वे मोदी की सोच और तैयारी के मुकाबले बहुत कम हैं। यहां तक कि वह लोकसभा में जो सीटें जीती थी वह भी नहीं जीत पाई। नीलांजल मुखोपाध्याय और संजय कुमार भी अपनी बात ढंग से रख सके तथा भाजपा कोटे से आर बालाशंकर भी और भाजपा के प्रच्छन्न चिंतक सुधींद्र कुलकर्णी भी। आज रवीश के आने पर प्राइम टाइम देखा और उनकी टीम का वाक् कौशल सुनकर अच्छा लगा। कल से लगातार टीवी पर विश्लेषण हो रहे हैं लेकिन 50 मिनट के इस कार्यक्रम से ही पता चला कि हकीकत क्या है बाकी में तो प्रवचन ही चल रहा था।
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से.