Vineet Kumar : आज यानी 11 नवम्बर को मौलादा अबुल कलाम आजाद की जयंती है. इस मौके पर मेनस्ट्रीम मीडिया ने तो कोई स्टोरी की और न ही इसे खास महत्व दिया. इसके ठीक उलट अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके ना से जो लाइब्रेरी है, उससे जुड़ी दो साल पुरानी बासी स्टोरी गरम करके हम दर्शकों के आगे न्यूज चैनलों ने परोस दिया. विश्वविद्यालय के दो साल पहले के एक समारोह में दिए गए बयान को शामिल करते हुए ये बताया गया कि इस लाइब्रेरी में लड़कियों की सदस्यता दिए जाने की मनाही है. हालांकि वीसी साहब ने जिस अंदाज में इसके पीछे वाहियात तर्क दिए हैं, उसे सुनकर कोई भी अपना सिर पीट लेगा. लेकिन क्या ठीक मौलाना आजाद की जयंती के मौके पर इस स्टोरी को गरम करके परोसना मेनस्ट्रीम मीडिया की रोचमर्रा की रिपोर्टिंग और कार्यक्रम का हिस्सा है या फिर अच्छे दिनवाली सरकार की उस रणनीति की ही एक्सटेंशन है जिसमे बरक्स की राजनीति अपने चरम पर है. देश को एक ऐसा प्रधानसेवक मिल गया है जो कपड़ों का नहीं, इतिहास का दर्जी है. उसकी कलाकारी उस दर्जी के रूप में है कि वो भले ही पाजामी तक सिलने न जानता हो लेकिन दुनियाभर के ब्रांड की ट्राउजर की आल्टरेशन कर सकता है. वो एक को दूसरे के बरक्स खड़ी करके उसे अपनी सुविधानुसार छोटा कर सकता है. मेनस्ट्रीम मीडिया की ट्रेंनिंग कहीं इस कलाकारी से प्रेरित तो नहीं है?
मीडिया के पास इस बात का तर्क हो सकता है कि ऐसे मौके पर अगर मौलादा आजाद के नाम की लाइब्रेरी का सूरत-ए-हाल लिया जाता है तो इसमें बुराई क्या है ? तब तो उन्हें सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर पिछले दिनों जब देश ने एकता दिवस मनाया तो मेनस्ट्रीम मीडिया को ये बात प्रमुखता से शामिल की जानी चाहिए थी कि जो शख्स आकाशवाणी से मिराशियों को इस बिना पर गाने से रोक दिए जाने के आदेश देता है कि इससे समाज पर बुरा असर पड़ेगा, आखिर उसके नाम पर एकता दिवस कैसे मनाया जा सकता है ? मीडिया इतिहास और वर्तमान के तार जोड़ने में अगर इतना ही माहिर है तो फिर उसके तार एक के लिए जुड़कर राग मालकोश क्यों फूटते हैं और दूसरे के लिए कर्कश क्या पूरी तरह तार ही टूट जाते हैं.
मेरी ही एफबी स्टेटस पर टिप्पणी करते हुए( Animesh Mukharje) ने हमें ध्यान दिलाया है कि एएमयू के वीसी के बयान और लाइब्रेरी में लड़की-छात्र के साथ भेदभाव मामले को लेकर हंगामा मचा हुआ है, इस पर निधि कुलपति ने बहुत पहले स्टोरी की थी लेकिन किसी ने इसे सीरियली नहीं लिया.. अनिमेश एक तरह से बता रहे हैं कि हम दर्शकों की यादाश्त कई बार चैनलों से ज्यादा होती है.
Vineet Kumar : दो साल बाद मीडिया ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वीसी के बयान को जिस तरह यूट्यूब से खोदकर निकाला है, ये उस बयान को ऐसे दौर में इस्तेमाल करने की कोशिश है जिससे पूरे देश को ये संदेश दिया जा सके कि देखो मुसलमानों के नाम का ये मशहूर विश्वविद्यालय जिस पर खामखां आप गर्व करते रहे, लड़कियों को लेकर क्या रवैया रखता है ? नहीं तो वीसी साहब के इस बयान पर आज से दो साल पहले जब सभागार में तालियां पिटी थी, उस वक्त मीडिया क्या सुंदरकांड का पाठ कर रहा था ? तब यूपीए की सरकार थी और इस पर ज्यादा बात करने का मतलब था- सेकुलर राजनीति पर चोट करना लेकिन अब ? बाकी ऐसी बातें क्या मुस्लिम क्या हिन्दू संस्थान, कुढ़मगजी क्या जाति और संप्रदाय देखकर पनपती है?
Vineet Kumar : देश के हिन्दू शैक्षणिक संस्थानों में सब मामला ठीक है न ? मतलब वहां तो लड़कियों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है कि हवन-पूजन स्थल पर रजस्वला( पीरियड्स) के दौरान यहां गमन करना मना है..इसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वीसी के अंग्रेजी में दिए गए बयान की बायनरी मत समझ लीजिएगा, बस ये है कि हमें इन संस्थानों को लिंग-भेद रहित संस्थान करार देने की बेचैनी है.
Vineet Kumar : आपको निजी संस्थान स्वर्ण मुकुट से नवाजेंगे एमयू के वीसी साहब… आप देश के किसी भी निजी शिक्षण संस्थान चाहे वो मेडिकल, इंजीनियरिंग, मीडिया, एमबीए,बीएड या सामान्य कोर्स के कॉलेज, यूनिवर्सिटी हों, के विज्ञापन, होर्डिंग्स, पोस्टर पर एक नजर मार लें.. आप पाएंगे कि लैब में मेंढ़क का चीरा लड़की लगा रही है, ताम्रपत्र की तरह एक्सेल सीट लड़की फैलाकर आंख गड़ाए हुई है, स्केल-फीते से वो नाप-जोख का काम कर रही है.वही कैमरे से शूट कर रही है, उसी के हाथ में चैनल की माइक है. कुछ संस्थानों में तो कोएड होने के बावजूद सिरे से लड़के ऐसे गायब होते हैं कि एकबारगी तो आपको “सिर्फ लड़कियों के लिए” होने का भ्रम पैदा हो जाए…सवाल है, ये सब किसलिए और किसके लिए ? स्वाभाविक है संस्थान की ब्रांड पोजिशनिंग इस तरह से करने के लिए कि लड़के एडमिशन लेकर चट न जाएं. अंडरटोन यही होती है कि यहां वो खुलापन है, उस दोस्ती की गुंजाईश है जिसकी उम्मीद में आप कॉलेज-संस्थान जाते हो..फर्क सिर्फ इतना है कि सलून और जिम अलग से यूनिसेक्स लिख देते हैं और ये इसके लिए कोएड या सहशिक्षा शब्द का प्रयोग करते हैं.. ग्लैमरस बनाने के लिए और दूसरी तरफ लगे हाथ लड़कियों को भी ये भी बताने के लिए जहां पहले से आपकी इतनी सीनियर्स और दीदीयां पढ़ती आयीं हैं, वहां आप बिल्कुल सुरक्षित हो. गार्जियन को ये कन्विंस करने के लिए कि जो संस्थान लड़कियों को ये सब करने की छूट दे रहा है वो भला ऐेंवे टाइप का संस्थान कैसे हो सकता है ? कुल मिलाकर इन निजी संस्थान को बाजार की गहरी समझ है. उन्हें पता है कि छात्रनुमा ग्राहक सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों से किस बात का मारा है, किस बात से चट चुका है और किस चीज पर लट्टू होता है ? लड़कियों की तस्वीरें थोक में लगाने के पीछे उनकी ये बिजनेस स्ट्रैटजी काम करती है. वो ऐसा करके एक ही साथ बाजार को भी साध लेता है, उस तथाकथित प्रोग्रेसिव समाज को भी जिसे और बंदिशें नहीं चाहिए और सार्वजनिक संस्थानों का बाप बनकर भी खड़ा हो जाता है. नहीं तो इन तस्वीरों के पीछे जाकर देखिए, क्या आप दावा कर सकते हैं कि इन निजी संस्थानों में लड़कियों के साथ किसी तरह के भेदभाव नहीं किए जाते, शोषण नहीं होता. इधर सार्वजनिक संस्थान, ताजा मामला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति के उस बेहूदा बयान और रवैये को ही लें जिसे पिछले दो साल से मीडिया अंडे की तरह सेवता रहा और अब यूटीवी की खान से खोदकर लाया है- लड़कियों को लेकर बिल्कुल उलट रवैया..उसके लिए कम से कम जगह..एक तरह से अघोषित रुप से ये कहने की कोशिश-यहां लड़कियां न ही आएं तो अच्छा..अब देखिए इसकी मीडिया में आलोचना..जमकर, धुंआधार..और हो भी क्यों न..एक तो महावाहियात बात और दूसरा कि हर तीसरे चैनल का प्रायोजक अमेटी इन्टरनेशनल, मानव रचना, गलगोटिया जैसे निजी संस्थान हों..ऐसे कुलपति तो उनके सपूत बनकर काम कर रहे हैं. लेकिन गंभीरता से सोचें तो क्या ये अपने आप में सवाल नहीं है कि जब निजी संस्थान अपने बाजार से रग-रग वाकिफ है तो क्या सार्वजनिक संस्थानों को अपने समाज को इसका आधा भी वाकिफ नहीं होना चाहिए ? कुलपति का ये बयान ये बताने के लिए काफी है कि वो न तो अपने इस बदलते समाज को समझ रहे हैं, न समाज की जरूरत को और लड़कियों के शिक्षित होने के महत्व..खैर, इसे तो रहने ही दीजिए..लाइब्रेरी में वैसे ही पहले से जानेवालों की संख्या तेजी से घटी है, वो जल्द ही किताबों की कब्रगाह बनकर रह जाए, आप जैसे महाशय देते रहिए ऐसे बयान.
युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से.
Samar Anarya : कई तथ्य गड़बड़ हो गए हैं विनीत. जैसे कि यह 2 साल पुराना बयान नहीं बल्कि परसों का है. बाकी यह रहे.
1. यह मामला मीडिया ने किसी साजिश में नहीं उछाला है. वीसी साहब का एएमयू छात्रसंघ के उद्घाटन के वक्त अपना बयान है. यह बयान उन्होंने वीमेंस कॉलेज छात्रसंघ की माँग के जवाब में दिया है, और कॉलेज की प्रिंसिपल बयान/फैसले के समर्थन में हैं.
2. वीसी साहब ने कहा है कि लड़कियाँ आयीं तो लाइब्रेरी में चार गुना ज्यादा लड़के आएंगे, जगह नहीं बचेगी। यह वह नुक्ता है जिसको सारे ‘सेकुलर’ भूले बैठे हैं. इस बयान की अपनी मिसाजाइनी, औरतों से नफ़रत, पर उनका कोई ध्यान नहीं है.
3. तीसरा तर्क कि मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में पोस्टग्रेजुएट (परास्नातक) लडकियों को पढ़ने की इजाजत है इसीलिए यह मीडिया साजिश है. इस बयान का नुक्ता यह है कि इसी लाइब्रेरी में अंडरग्रेजुएट लड़कों को भी पढ़ने की इजाजत है. जगह नहीं है तो किसी के लिए न होगी, लड़कों के लिए है लड़कियों के लिए नहीं? इस पर सोचने का वक़्त कट्टर सेकुलरों के पास नहीं है. (यह बात पता न हो यह मानना जरा मुश्किल है).
4. वीमेंस कॉलेज छात्रसंघ की सदर गुलफिज़ां खान ने कहा था कि जगह की दिक्कत हो तो किताबें इश्यू की जायें वह इस पर भी तैयार हैं, यह मसला भी बहस से खारिज है. तमाम लोग दूरी का तर्क दे रहे हैं, वीमेंस कैम्पस लाइब्रेरी से 3 किलोमीटर दूर है, वहाँ तक आने में लड़कियों को दिक्कत होगी। पर फिर केवल अंडरग्रेजुएट लड़कियों को? पोस्टग्रेजुएट लड़कियाँ कैसे पँहुच जाती हैं?
5. एक और तर्क है कि यह कैम्पस के भीतर के एक तबके की साजिश है. दिक्कत यह कि यह तर्क बहुत पुराना है. एक लड़की का दुपट्टा खींचने के आरोपों के बीच जेएनयू तक में हुई तीखी लड़ाइयों के दौर से दिया जा रहा तर्क। तब के जनरल सेक्रेटरी ने बाकायदा बयान दिया था कि दुपट्टा खींचा भी गया हो तो दुपट्टा खींचना कोई सेक्सुअल हरैसमेंट नहीं है. उस दौर में जिन कुछ एएमयू वालों से हाथापाई तक की नौबत आ गयी थी, लोगों ने बड़ी मुश्किल से अलग किया था वह अब अच्छे दोस्त हैं. जैसे Shadan Khan, Khalid Sharfuddin… इनसे भी इस नुक्ते की दरयाफ़्त की जा सकती है. इसकी भी कि एएमयू को बदनाम करने की साजिश वाला तर्क भी तभी से चला आ रहा है.
6. अंत में यह कि जनाब दुनिया के किसी ठीक ठीक शहर में अलीग बोल देने पर तमाम आँखों में चमक भर देने वाला एएमयू किसी इमाम बुखारी का इस्लाम या किसी तोगड़िया का हिन्दू धर्म नहीं है जो किसी वीसी की मर्दवादी सोच के विरोध से, उसकी मुखालफत से खतरे में पड़ जाए.
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारवादी समर अनार्या के फेसबुक वॉल से.