मध्यप्रदेश में जो सियासी घमासान मचा और कमलनाथ सरकार संकट में आ गई उसमें दो किरदारों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर, जहां भाजपा का कमल थाम लिया, वहीं पार्टी में ही उनके लगातार प्रतिद्वंदी रहे दिग्विजय सिंह राज्यसभा में जाने में जहां सफल रहे, वहीं इस पूरे मामले का ठिकरा भी उन्हीं पर फोड़ा जा रहा है।
अगर इतिहास उठाकर देखा जाये तो ग्वालियर और राघोगढ़ की यह टसल 240 साल पुरानी हैं। उस दौरान अंग्रेजों ने समझौता भी कराया था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान इस मामले मेें भी असफल साबित हुआ। अब दिग्गी का कहना है कि अतिमहत्वकांक्षा के चलते ज्योतिरादित्य भाजपा में गये, वहीं राहुल गांधी ने उन्हें अपना पुराना दोस्त बताया तो सिंधिया ने भी हुंकार भरी कि उनके परिवार को जब भी ललकारा गया तो चुप नहीं बैठे।
प्रदेश की राजनीति में हमेशा दिग्गी और ज्योतिरादित्य की पटरी कभी नहीं बैठी और यही कारण है कि सिंधिया न तो प्रदेश अध्यक्ष बन सके और न ही मुख्यमंत्री।
मध्यप्रदेश में जो राजनीतिक संकट आया और अच्छी भली चल रही कमलनाथ सरकार एकाएक ढहने के कगार पर पहुंच गई है और अब कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है। भाजपा भी सिंधिया की बगावत को गुटबाजी से जोड़ते हुए मिस्टर बंटाढार यानी दिग्गी को इसका जिम्मेदार बताती है, वहीं राजनैतिक विशेषज्ञ और जनता में भी यहीं चर्चा है कि दिग्गी ने ही सरकार को डूबों दिया, हालांकि दिग्गी इन आरोपी की स्पष्ट खंडन करते हैं।
अगर इतिहास के पन्नों को खंगाला जाये तो पता चलेगा कि इन दोनों घरानों के बीच अदावत नई नहीं है, बल्कि 240 साल पुरानी हैं। 1677 में राघोगढ़ को दिग्गी के पुरखे लालसिंह खिंची ने बसाया था और 1705 में राघोगढ़ का किला बना, उधर औरंगजेब की मौत के बाद मुगलों को खदेड़ते हुए मराठा जब आगे बढ़े तो इंदौर में होलकर घराने और ग्वालियर में सिंधिया घराने ने अपनी रियासत कायम करते हुए आस-पास के छोटे और बड़े राजाओं को भी उसका हिस्सा बनाया, लेकिन राघोगढ़ से सिंधियाओं की ठनी और महादजी सिंधिया ने 1780 में दिग्विजय सिंह के पूर्वज राजा बलवंत सिंह और उनके बेटे जयसिंह को बंदी बना लिया।
नतीजतन 38 सालों तक दोनों राज घरानों में टसल चलती रही और 1818 में ठाकुर शेर सिंह ने राघोगढ़ को बर्बाद किया, ताकि सिंधियाओं के लिए उसकी कोई कीमत न बचे, जब राजा जयसिंह की मौत हुई, तब अंग्रेजों की मध्यस्थता से ग्वालियर और राघोगढ़ के बीच एक समझौता भी हुआ, जिसमें राघोगढ़ वालों को एक किला और आसपास की जमीनें मिली और तब 1.4 लाख रुपये सालाना का लगान तय किया गया और राघोगढ़ से कहा गया कि सालाना अगर 55 हजार रुपये से ज्यादा लगान की वसूली होती है तो यह राशि ग्वालियर दरबार में जमा करनी होगी और यदि 55 हजार से कम लगान मिला तो ग्वालियर रियासत राघोगढ़ की मदद करेगा, लेकिन राघोगढ़ वाले कम लगान वसूलते रहे, जिसके चलते ग्वालियर दरबार ने दी जाने वाली मदद रोक दी और सारी संपत्ती भी जब्त कर ली।
1843 में अंग्रेजों ने फिर समझौता करवाया, जिसमें राघोगढ़ को ग्वालियर रियासत के अधीन लगान वसूलने की छूट दी गई। 1780 में शुरू हुई यह जंग आज 2020 तक बदस्तूर जारी है यानी 240 साल का इतिहास गवाह है, जो ग्वालियर और राघोगढ़ की अदावत को जाहिर करता है। यही कारण है कि कभी भी सिंधिया परिवार से दिग्गी परिवार की पटरी नहीं बैठी।
मजे की बात यह है कि अंग्रेजों ने तो इन दोनों घरानों में दो बार समझौता करवाया, लेकिन कांग्रेस आलाकमान कभी भी समझौता कराने में सफल नहीं हो पाया। पूर्व के दो विधानसभा चुनावों में भी प्रदेश की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपने की मांग उठती रही और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने के साथ-साथ मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने की भी मांग होती रही, लेकिन हर बार दिल्ली दरबार से दिग्गी सहित अन्य प्रदेश के दिग्गजों जिनमें कमलनाथ, सुरेश पचौरी व अन्य गुट शामिल रहे, ने कभी भी सिंधिया को उम्मीदवार घोषित नहीं होने दिया।
यहां तक की पिछले विधानसभा चुनाव में भी उन्हें प्रचार-प्रसार का प्रमुख तो बनाया और फिर लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश भिजवा दिया, जबकि भाजपा को विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा खतरा सिंधिया के चहरे से ही था और उसने अपना प्रमुख चुनावी नारा भी यही दिया था कि… बहुत हुआ महाराज… हमारे तो शिवराज।
अब वहीं ज्योतिरादित्य कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा का कमल थाम चुके है और कल भोपाल में उनका जोरदार स्वागत हुआ और पहले जहां शिवराज ने अंग्रेजों का साथ देकर रानी झांसी को मरवाने का जिम्मेदार गद्धार बताते हुए सिंधिया पर आरोप लगाये थे, वहीं कल उन्होंने अपने घर उनके सम्मान में रात्रि भोज आयोजित किया, जहां उनकी पत्नी साधना सिंह ने अपने हाथों से शिवराज, सिंधिया, तोमर सहित अन्य भाजपा नेताओं को भोजन परोसा।
मध्यप्रदेश की राजनीति में हमेशा से तीन गुट प्रमुख रहे और विधानसभा से लेकर लोकसभा की टिकटे भी इनकी पसंद से बटती रही, लेकिन अब कमलनाथ और दिग्गी के ही दो प्रमुख गुट बच गये हैं। भोपाल आये सिंधिया ने भी कम तेवर नहीं दिखाये और पुरानी बातों को याद करते हुये कहा कि सिंधिया परिवार का खुन सहित चुनाव करता है और जब-जब इस परिवार को ललकारा गया उसका माकूल जवाब भी दिया, हालांकि भाजपा में शामिल होते ही, जहां सिंधिया भाजपा के लिए गद्धार से देशभक्त बन गये तो कांग्रेसी उन्हें गद्धार की उपमा देने में पीछे नहीं रहे और इंदौर से भोपाल तक उनका विरोध भी किया जा रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट मानना है कि सिंधिया का साथ छोडऩा कांग्रेस के लिए नुकसान दायक है और भाजपा के लिए फायदेमंद, क्योंकि उन्हीं की बदौलत 15 माह पुरानी कमलनाथ सरकार को गिराकर अब भाजपा अपनी सरकार बना सकती है और प्रदेश में भी कर्नाटक की तर्ज पर रणनीति चल रही है।
प्रोटोकॉल ने तय किया एक महाराजा तो दूसरा राजा
यह भी जानकारी बहुत कम लोगों को होंगी की आखिरकार सिंधिया को महाराजा और दिग्गी को राजा क्यों कहा जाता है? दरअसल ऐतिहासिक परम्परा के मुताबिक प्रदेश के इन दोनों राज घरानों के बीच एक प्रोटोकॉल तय किया गया था, जिसमें यह तय हुआ कि सिंधिया हमेशा महाराज कहलायेंगे और राघोगढ़ वाले राजा। यही कारण है कि अतीत से लेकर अब तक सिंधिया को राजनैतिक क्षेत्र में भी सभी कार्यकर्ताओं से लेकर नेता महाराज ही कह कर संबोधित करते है और इसी तरह दिग्गी को राजा बोला जाता है।
लंका विजय के बाद विभीषण का हुआ था राज्याभिषेक
भोपाल आये ज्योतिरादित्य का स्वागत जहां भाजपा ने धूमधाम से किया वहीं शिवराज सिंह चौहान की जुबान फिसल गई।पहले जहां विधानसभा चुनाव में विरोधी के रूप में सिंधिया को गद्धार तक कह दिया था, तो कल विभीषण बोल गये। अब सोशल मीडिया पर भी लोग चुटकी ले रहे हैं कि अगर सिंधिया को शिवराज विभीषण बता रहे है तो इसका मतलब यह हुआ कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री उनकी बजाये सिंधिया बन सकते है, जब राम ने लंका विजय की तब उन्होंने विभीषण का ही राज्याभिषेक किया और अयोध्या लौटे।
4 हजार करोड़ से ज्यादा कीमती है जय विलास पैलेस
अभी भाजपा में आये ज्योतिरादित्य पर जहां केंद्र सरकार के साथ डील करने के आरोप लग रहे है, वहीं यह भी कहा जा रहा है कि महल सहित उससे जुड़ी अरबों की संपत्तियों को बचाने के लिए उन्हें भाजपा का दामन थामना पड़ा। कल ही मुख्यमंत्री ने सिंधिया के खिलाफ चल रहे ईओडब्ल्यू के एक पुराने केस को फिर से खुलवा भी दिया, जिसमें जमीन घोटालों क आरोप उन पर लगे हैं। सिंधिया का ग्वालियर स्थित जयविलास पैलेस 150 साल पुराना है, जिसमें 400 कमरें है और दरबार हाल में अत्यंत बेशकीमती झूमर टंगे है। इस पूरे महर की कीमत 4 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा आकी जाती है, क्योंकि इसमें कई एंटिंक सामान मौजूद है। 40 कमरों का तो म्यूजियम ही है। 1874 में बने इसी पैलेस में सिंधिया परिवार रहता आया है और अभी ज्योतिरादित्य भी इसी जयविलास पैलेस में रहते हैं। इसके डायनिंग हाल में चांदी की ट्रेन से खाना परोसा जाता है।
लेखक राजेश ज्वेल वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.
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