Chanchal Bhu : सिंधिया राजपूत है. जिसका राज उसी का पूत. सुराज के बाद भी इनकी सल्तनत बनी हुई है. इन पर आरोप नही हैं, सच्चाई है या उसे उस काल खंड पर इनकी रणनीति कह सकते हैं कि इन लोंगो ने अंग्रेजी निजाम का साथ दिया.
इसी बात को अक्सर इतिहासकार बहुत सपाट बयानी करते हैं कि आजादी की लड़ाई में जितने भी राजा, महाराजा, जमींदार रहे सब ने अंग्रेजो का साथ दिया. यह गलत है.
कम से कम दो बड़ी ‘हुकूमतों’ का जिक्र करना जरूरी है, सम्भव है और होंगी लेकिन हम यहां महज दो का इतिहास उठा रहे हैं. एक महाराजा दरभंगा और दूसरे महाराजा काला कांकर. इन दोनों स्थापित और पूर्ण व्यवस्थित जमींदारों ने खुल कर कांग्रेस का साथ दिया. दस्तावेज अब बाहर आ रहे हैं.
गांधी जी चंपारण पहुंचने के पहले ही महाराजा दरभंगा से जुड़ चुके थे. काला कांकर खुल कर आजादी के जंग में कांग्रेस के साथ था. आज दोनों ‘स्थापित संस्थान’ दरभंगा और कालाकांकर को उजाड़ कर रख दिया गया है.
इतिहास को खोदना जरूरी होता है जिससे वर्तमान पर पड़ी राख को हटाया जा सके और भविष्य की दिशा समझा जाये.
कई उजाड़ भवन कई उजाड़ इमारतें हैं जो केवल दरभंगा या बिहार में ही नहीं हैं बल्कि देश के कई हिस्से में लापरवाह पड़ी हैं. दरभंगा के कई घर जीते जागते, तन कर भी खड़े हैं, लेकिन वहां दरभंगा चुपचाप खामोश है. इसी में से एक है – काशी विश्व विद्यालय.
Shambhu Nath Shukla : झाँसी और ग्वालियर के बीच एक रियासत थी, दतिया। उसके महाराजा भी सिंधिया राजा की तरह अंग्रेजों के भक्त थे। उनको क्रिकेट खेलने का शौक़ लगा, लेकिन राजा दतिया पदते नहीं थे, सिर्फ़ पदाते थे। यानी फ़ील्डिंग नहीं बैटिंग ही करते थे। और रन लेने के लिए वे नहीं, उनकी प्रजा भागती थी।
एक बार सागर छावनी से अंग्रेज सैन्य अधिकारी आए और तय हुआ, कि राजा दतिया के साथ क्रिकेट मैच होगा। टॉस अंग्रेजों ने जीता। उन्होंने पहले तो बैटिंग शुरू की। राजा दतिया की प्रजा फ़ील्डिंग के लिए तैयार थी। शुरू हो गया मैच। दो दिन तक अंग्रेजों ने धुआँधार बैटिंग की और प्रजा खूब पदी। अब बारी राजा दतिया की टीम की आई। राजा साहब सज-धज कर बैटिंग करने निकले, लेकिन यह क्या!
पहली ही बाल में विकेटकीपर ने गेंद लपकी और स्टंप्स पर मारी, मगर गेंद स्टंप्स को लगी नहीं और राजा साहब के प्यादों ने इस स्टंप्स से उस स्टंप्स तक दौड़ना शुरू किया। प्यादे दौड़ते रहे, रन बनते रहे।
अंग्रेज हैरान कि यह क्या हो गया! गेंद ढूँढी जाने लगी। अंत में गेंद राजा साहब के पृष्ठ भाग में धँसी हुई मिली। इतने तंदुरुस्त थे महाराजा! ये राजाओं के सच्चे क़िस्से हैं।
हर स्टेट के बूढ़ों से बतियाते हुए ऐसे क़िस्से राजाओं के प्रीविपर्स बंद होने तक खूब सुनने को मिलते थे। अब तो न राजा रहे न रानी। न ही वे बूढ़े! मगर मुझे तो उन बूढ़ों की बातें याद हैं.
वरिष्ठ पत्रकार द्वय चंचल और शंभूनाथ शुक्ल की एफबी वॉल से.
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