मुकेश कुमार-
रोहित सरदाना का जाना उसी तरह से दुखद है जैसे किसी और का जाना। हालाँकि ये अफ़सोस मैं बहुत पहले फेसबुक पर ही ज़ाहिर कर चुका हूँ कि मैंने उन्हें पहचानने में चूक की और सहारा में बतौर ऐंकर चुना।
रोहित ऊर्जा से भरपूर और एक टीम के रूप में काम करने वाले पत्रकार थे। अपने साथी ऐंकरों की मदद करते उन्हें देखा जा सकता था।
सहारा में रहते हुए उन्होंने कभी उस तरह की ज़हरीली बकवास नहीं की जैसी वे ज़ी और आज तक पर कर रहे थे। कभी इस तरह का संदेह भी नहीं हुआ कि उनके अंदर एक फासिस्ट बैठा हुआ है या वे अवसर पाने पर इस तरह की पत्रकारिता करेंगे जो बेहद डरावनी और पत्रकारिता को कलंकित करने वाली होगी।
शायद इन चैनलों और उनके संपादकों ने भी उन्हें ऐसा बनने को प्रेरित किया होगा।
लेकिन आदमी जीवित रहता है तो उसके बदलने तथा प्रायश्चित करने की संभावना बनी रहती है। उनकी मृत्यु के साथ वह संभावना भी मर गई। रोहित के परिजनों को मेरी शोक संवेदनाएं।
ये पत्रकार नही, इंफ्लुएंसर्स हैं!
मनीष सिंह-
आपको मोक्ष मिले। मैं सिर्फ रोहित नही, उस पूरी जमात के बारे में कर रहा हूँ जो बेहतरीन सूट में कैमरों की चकाचौंध के बीच ओपिनियन बनाते हैं। घर घर मे पहचाने जाते हैं। बहसों को ‘दंगल’ और ‘ताल ठोक के’ क़बीलाई युध्द में बदल देते हैं।
ऊंचा सुर, सिकुड़ी भौहें, कुटिल मुस्कान, एड्रीनलीन रश, जहालत भरा पैनल.. सिर्फ राजीव त्यागी नही, इनकी गिराई लाशों की सूची लम्बी है। जिम्मेदार पदों पर आसीन राक्षसों से डरे सहमे ये भांड, निरापद मरे हुए विपक्ष को लतिया कर दंगलबाज बने हैं।
सरदाना को नापसन्द करने वालों को छोड़िये। उनके मुरीद से ही पूछ लीजिये, वो कैसे पत्रकार हैं। उसकी मुस्कान बताएगी – “सरदाना हमारी तरफ का पत्रकार है”
पर ये उनके भी पत्रकार नही। ये हवा के साथ बहने वाले पत्रकार हैं। हवा के साथ बहने को ही सकारात्मकता कहते है। जो पत्रकारीय धर्म चिर विपक्ष का होता है। ये सकारात्मकता की आड़ में सरकारात्मक हो गए।
और आखिर उसी का शिकार हो गए जिसे छुपाने दबाने में अपने कैरियर, अपने जीवन और अपने फोरम का गोल्डन टाइम बरबाद किया। नाकामी, बदइंतजामी, फ़ेवरिटिज्म, डिनायल…
सरदाना चले गए, देर सवेर बाकी भी जायंगे। और लेगेसी छोड़ जाएंगे, यू टयूब पर बिखरे वीडियो, सेंसेशन, भौंडा शोर। इनके बेटे बेटी कल को अगर जर्नलिस्ट बने, तो मास कम्युजिनिकेशन और जर्नलिज्म की पढ़ाई के वक्त इन वीडियोज को एवॉइड करेंगे। क्योंकि कम समझ का व्यक्ति भी जानता है, कि ये जर्नलिज्म नही है। कुछ और ही है।
ये पत्रकार नही, इंफ्लुएंसर्स हैं जो खास विचार को खबर बनाकर परोस रहे हैं। तराश रहे हैं। इन सबको सद्बुद्धि की प्रार्थना बेकार है। इन्हें सद्गति मिले। सुना है मोक्ष पाने वाला दोबारा मृत्यलोक में नही लौटता। सरदाना को मोक्ष मिले।
रेस्ट इन पीस सरदाना। प्लीज डोंट कम बैक!
कोरोना काल में भी सरकार से सवाल न करने की भारतीय मीडिया की रवायत के वे प्रमुख चेहरा बने रहे!
दिलीप खान-
कुछ लोगों की चिंताएं बड़ी misplaced होती हैं. रोहित सरदाना की कोविड से मौत हुई, तो कई लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंता ये हो गई कि आज तक पर ये ख़बर क्यों नहीं चल रही है. थोड़ी ही देर बाद आज तक ने रोहित सरदाना पर एक पूरा श्रद्धांजलि शो कर दिया. असल में, ऐसी चिंताएं हमें मूल कारणों से दूर ले जाती हैं और ख़ुद को ग़लत साबित करवाने का सबसे आसान ज़रिया बन जाती हैं.
मसलन, रोहित सरदाना की मूल चिंता के विषय थे- मुसलमान, पाकिस्तान, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वामपंथी, उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष, विपक्षी दल, आदि.
शिक्षा, स्वास्थ्य, बराबरी, सौहार्द्र उनकी मूल चिंता कभी नहीं बन पाए. कोरोना के इस भीषण काल में भी सरकार से सवाल न करने की भारतीय मीडिया की रवायत के वे प्रमुख चेहरा बने रहें.
अगर उनकी मूल चिंता स्वास्थ्य होती, अगर वे स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकार से सवाल करते, अगर वे जनता के बुनियादी मसलों को उठाते रहते, तो देश भी बचता और वे भी बचते. उनकी misplaced (असल में भाजपाई) चिंताएं उनके ही ख़िलाफ़ चली गईं.
मीडिया के लोगों के लिए ये अलार्मिंग मोमेंट है. दूसरों का घर जलाते-जलाते अपना घर जलने लगा है. वक़्त है कि सही प्राधिकरण से सही सवाल करें. ज़िम्मेदार व्यक्ति की ज़िम्मेदारी तय की जाए. जो काम अंतरराष्ट्रीय मीडिया कर रहा है, वह असल में हमारा काम था/है.
कोरोना चौतरफ़ा शिकार कर रहा है. बहुत ख़राब दौर है. रोहित के घर-परिवार की तस्वीरें देख रहा हूं. छोटी बच्चियों को देखकर बुरा लग रहा है.
Prashant
April 30, 2021 at 4:56 pm
Mukesh Kumar …………. aap khud kya hai jara apane andar jhank kar dekh liziye………..Sahara me shayad hi koi aisa ho jo appko ………….
baki jo aapne aise samay par likha…..to ……… jiski jaisi soch.