मीडिया को इतनी भी आज़ादी नहीं होनी चाहिए!

हर पल सनसनी और उन्माद बेचता मीडिया ग़ुलाम है या ज़रूरत से ज़्यादा स्वतंत्र? एक चैनल ने “ख़ुलासा” किया है कि लोग आतंकवादियों को अधिक, शहीदों को कम जानते हैं। सवाल है कि जब आप दिन रात आतंकवादियों और अपराधियों की कहानियां दिखाएंगे, तो जनता किसे जानेगी? इसी तरह 15 अगस्त और 26 जनवरी पर सभी चैनलों के बीच एक होड़-सी लग जाती है कवि-सम्मेलन और सैनिकों के बीच कार्यक्रम कराने की। लेकिन इन सभी कार्यक्रमों का प्रधान स्वर होता है- पाकिस्तान को गरियाना और लड़वाने-कटवाने वाली कविताओं का पाठ कराना।

गुलामी का दूसरा नाम है कर्ज

ग्रीस एक बेहद खूबसूरत देश है। कई मायनों में स्विट्जरलैंड से भी ज्यादा खूबसूरत और दिलकश। दुनिया भर के सैलानियों की पसंदीदा सैरगाह। इसके अलावा भी दुनिया के नक्शे में ग्रीस एक ऐसा मुल्क है जिसका अपना एक गौरवशाली इतिहास है और असाधारण उपलब्धियों का जखीरा है। सिकंदर महान (एलेक्जेंडर दी ग्रेट) का जिक्र छोड़ भी दिया जाए तो गणित फिलोस्फी और हुनर में ग्रीस का योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। 

हमे मीडिया हरा देता है, इससे आजाद हो ताजा हवा में सांस लेना चाहते हैं : अमिताभ बच्चन

मुंबई : बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्‍चन का कहना है कि आप मीडिया से कभी नहीं जीत सकते. हाल ही में अमिताभ फिल्‍म ‘पीकू’ से दर्शकों से काफी वाहवाही लूट चुके हैं. फिल्‍म 100 करोड़ के कल्‍ब में शामिल हो गई है. फिल्‍म में दीपिका पादुकोण और इरफान खान भी थे.

मीडिया की स्वतंत्रता से और बेहतर होगा लोकतंत्र

गया: एपीआइ भवन में रोटरी, गया सिटी की ओर से प्रेस दिवस समारोह मनाया गया. इस मौके पर रोटरी व मीडिया से जुड़े लोगों ने राष्ट्रगान के साथ कार्यक्रम की शुरुआत की. कार्यक्रम की अध्यक्षता रोटरी सिटी के अध्यक्ष श्याम प्रकाश सरावगी ने की. डॉ रामसेवक प्रसाद ने स्वागत भाषण दिया. रोटरी की डॉ माहजबीन निशात अंजुम ने प्रेस दिवस के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि इसी महीने अंतरराष्ट्रीय प्रेस की स्वतंत्रता का दिवस भी है. 

गदर पार्टी के संस्थापक शहीद करतार सिंह सराभा की 99वीं पुण्यतिथि 16 नवम्बर पर

१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद में ब्रिटिश सरकार ने सत्ता पर सीधा नियंत्रण कर एक ओर उत्पीड़न तो दूसरी ओर भारत में औपनिवेशिक व्यवस्था का निर्माण शुरू किया। क्योंकि खुद ब्रिटेन में लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, इसलिए म्युनिसपैलिटी आदि संस्थाओं का निर्माण भी किया गया, लेकिन भारत का आर्थिक दोहन अधिक से अधिक हो, इसलिए यहां के देशी उद्योगों को नष्ट करके यहां से कच्चा माल इंग्लैंड भेजा जाना शुरू किया गया। साथ ही पूरे देश में रेलवे का जाल बिछाया जाना शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार ने भारत के सामंतों को अपना सहयोगी बना कर किसानों का भयानक उत्पीड़न शुरू किया। नतीजतन उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते देश के अनेक भागों में छिटपुट विद्रोह होने लगे। महाराष्ट्र और बंगाल तो इसके केंद्र बने ही, पंजाब में भी किसानों की दशा पूरी तरह खराब होने लगी। परिणामतः बीसवीं सदी के आरंभ में ही पंजाब के किसान कनाडा, अमेरिका की ओर मज़दूरी की तलाश में देश से बाहर जाने लगे। मध्यवर्गीय छात्र भी शिक्षा-प्राप्ति हेतु इंग्लैंड, अमेरिका वे यूरोप के देशों में जाने लगे थे।