मुकेश अंबानी अपने छोटे भाई अनिल अंबानी के कारोबार को लील गए!

तकनीक के तेवर रिश्तों को तहस नहस कर रहे हैं। मुकेश अंबाजी और अनिल अंबानी को ही देख लीजिए। दोनों भाई हैं। सगे भाई। धीरूभाई अंबानी के स्वर्ग सिधारते ही रिश्तों में दूरियां आ गई थी, और दोनों मन से बहुत दूर हो गए। फिर मोबाइल फोन के जिस धंधे में अनिल अंबानी थे, उसी मोबाइल की दुनिया में कदम रखते ही मुकेश अंबानी ऐसा भूचाल ले आए कि उनके स्मार्टफोन और फ्री डेटा से अनिल अंबानी की दुनिया न केवल हिलने लगी, बल्कि गश खाकर धराशायी हो गई। इन दिनों अनिल अंबानी की नींद उड़ी हुई है। वे धंधा समेटने की फिराक में है। वैसे भी वे कोई मुनाफे का धंधा नहीं कर रहे हैं। भारी कर्ज का बोझ उनके सर पर है और बहुत आसानी से इससे उबरने की फिलहाल कोई गुंजाइश नहीं है।

जिन्ना हाउस ध्वस्त होना ही चाहिए, आखिर भारत के विभाजन की निशानी है

पाकिस्तान के राष्ट्रपिता मोहम्मद अली जिन्ना ने भारत के टुकड़े करने के लिए जिस जगह का उपय़ोग किया, वह जिन्ना हाउस एक बार फिर खबरों में है। इस बार उसे ध्वस्त करने की मांग की गई है। महाराष्ट्र में बीजेपी के वरिष्ठ विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा चाहते हैं कि भारत के विभाजन की याद दिलानेवाले जिन्ना हाउस को ध्वस्त करके उसकी जगह एक कल्चरल सेंटर का बनाना चाहिए। विधायक लोढ़ा ने जिन्ना हाउस को ध्वस्त करने की यह मांग विधानसभा में की।

‘न्यू इंडिया’ के लिए राष्ट्रपति कौन… ये, वो या फिर कोई और?

निरंजन परिहार

राजनीति की रपटीली राहों पर राष्ट्रपति चुनाव की बिसात बिछनी शुरू हो गई है। पांच राज्यों में चुनाव हो गए। चार राज्यों में बीजेपी की सरकारें बन गई। दो में जोड़ तोड़ से, तो दो में ऐतिहासिक बहुमत से। यूपी में बीजेपी को मिला भारी बहुमत उसके लिए राष्ट्रपति चुनाव की राह आसान करने का साधन साबित हो गया है। लेकिन कौन बनेगा राष्ट्रपति, यह सबसे बड़ा सवाल है। दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र के इस सर्वोच्च सर्वशक्तिमान बीजेपी में बहुत सारे दावेदार हैं। सूची लंबी है। बहुत लंबी। कई केंद्रीय मंत्री भी कतार में हैं। पार्टी के बुजुर्ग नेता तो पहले से ही अपने भाग्य का छींका टूटने का इंतजार कर रहे हैं। कुछ जाने माने और प्रतिष्ठित गैर राजनीतिक लोग भी लुटियन के टीले में अपना बुढ़ापा काटने के मंसूबे पाले हुए हैं। इस सबके बावजूद, कोई नहीं जानता कि राष्ट्रपति के पद के लिए अंतिम रूप से किसके नाम पर मोहर लगेगी। मगर, इतना तय है कि राष्ट्रपति के संदर्भ में ही उपराष्ट्रपति का नाम भी लगभग निश्चित हो जाएगा।

प्रशांत किशोर की उस्तादी खतरे में, धंधा बंद होने की कगार पर

-निरंजन परिहार-

देश के राजनीतिक पटल पर चुनाव प्रबंधन के उस्ताद के रूप में अचानक प्रकट हुए प्रशांत किशोर की उस्तादी खतरे में है। उनके चुनावी फंडे फालतू साबित हुए और खाट बिछाने के बावजूद कांग्रेस की खटिया खड़ी खड़ी हो गई। आनेवाले दिन प्रशांत किशोर के लिए भारी संकट से भरे होंगे। कांग्रेस की करारी हार के बाद अब चुनावों में उन्हें कोई काम मिल जाए, तो उनकी किस्मत। 

बजट से डर नहीं लगता साहब, उसकी मार से डर लगता है!

बजट आनेवाला है। सरकार कमर कस रही है। वित्त मंत्री व्यस्त हैं। अफसर पस्त हैं। और बाजार ध्वस्त। ज्वेलर निराश हैं। गोल्ड ही नहीं डायमंड और सिल्वरवाले भी परेशान है। बाजार से ग्राहक गायब है। सेल गिर गई है। उधार आ नहीं रहा है। नया माल बिक नहीं रहा है। कारीगर भी गांव निकल गए हैं। आगे क्या होगा, कुछ भी तय नहीं है। नोटबंदी ने मार डाला। सरकार के तेवर डरा रहे हैं। ज्वेलर घर से निकलकर बाजार आता है। बाजार से निकल कर घर जाता है। आता – जाता तो वह पहले भी था, लेकिन पहले उम्मीद के साथ आता था। और खुश होकर घर लौटता था। लेकिन अब परेशानी लेकर बाजार में आता है और खाली जेब वापस जाता है।

कंगाली के पचास दिन और देश का विश्वास

-निरंजन परिहार-
लालू यादव भले ही देश को याद दिला रहे हो कि 31 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए किसी चौराहे का इंतजाम कर लीजिए। लेकिन सवाल न तो किसी चौराहे का है और ना ही प्रधानमंत्री द्वारा गोवा से देश को दिए संदेश में उनके 50 दिन में सब कुछ ठीक हो जाने के वचन का। बल्कि सवाल यह है कि आखिर 30 दिसंबर को नोटबंदी के पचास दिन पूरे होने के बाद देश के सामने आखिर रास्ता होगा क्या। पचास दिन होने को है। नोट अब तक छप ही रहे हैं। बैंक अभी भी नोटों के इंतजार में हैं। एटीएम के बाहर खाली जेब लोगों की लंबी लंबी कतारें लगातार बढ़ती जा रही हैं। और जनता अभी भी परेशान हैं।

राहुल गांधी की ‘पप्पू’ छवि बनाने वाली भाषण कला के माहिर खिलाड़ी हैं मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में कभी मजाकिया लहजे में तो कभी आक्रामक अंदाज में राहुल गांधी को हमेशा निशाने पर रखते हैं। दरअसल, राहुल गांधी के मामले में अपने भाषणों में मोदी इन दिनों बहुत आक्रामक दिख रहे हैं। मतलब साफ है कि माफ करना उनकी फितरत में नहीं है। और बात जब कांग्रेस और राहुल गांधी की हो, तो वे कुछ ज्यादा ही सख्त हो जाते हैं।

तो अब प्रियंका गांधी के सहारे राहुल मजबूत होंगे?

कांग्रेस अब बदलाव की तैयारी में है। अपने 131वें स्थापना दिवस से पहले कांग्रेस प्रियंका गांदी को पार्टी में पद पर लाकर राहुल गांधी को मजबूत करने की कोशिश कर सकती है। इससे पार्टी से युवा तो जुडेंगे ही, महिलाएं भी मजबूती से जुड़ेगी। जो, कि बीते दस साल में पार्टी से दूर होते गए हैं। मगर, ऐसा नहीं हुआ, तो फिर कांग्रेस की दशा और दिशा किधर जा रही होगी, यह सबसे बड़ा सवाल है। मतलब साफ है कि नियुक्ति करे तो भी और नहीं करे तो भी, कांग्रेस फिलहाल सवालों के घेरे में है। वैसे, राजनीति अपने आप में एक सवाल के अलावा और है ही क्या?

तो क्या राहुल गांधी ठिकाने लगा देंगे वरिष्ठ नेताओं को?

-निरंजन परिहार-
कांग्रेस के बड़े नेता भीतर ही भीतर भुनभुना रहे हैं। ये सब मान रहे है कि नोटबंदी के बाद राहुल गांधी की राजनीति तो चमकी हैं, लेकिन उन्हें यह भी लगने लगा है कि जल्दबाजी में राहुल गांधी नई आफत भी मोल लेते जा रहे हैं। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता राहुल के ताजा राजनीतिक रवैये से खुश नहीं हैं। मजबूरी यह है कि वे नाराजगी जाहिर नहीं नहीं सकते। अगर कर दें, तो राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध भूचाल भले ही नहीं ला पाए, मगर राहुल के विरुद्ध पार्टी में भूकंप जरूर आ जाएगा। माना जा रहा है कि सही समय पर ये वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी से इस मामले पर बात करेंगे। ये सारे पार्टी के बड़े नेता हैं, सो बाहर बोलें भी, तो बोलें कैसे। क्योंकि उनका यह आचरण पार्टी लाइन के विरुद्ध काम होगा।

तकदीर के तिराहे पर नवजोत सिंह सिद्धू : …क्योंकि राजनीति कोई चुटकला नहीं है

-निरंजन परिहार-

वे क्रिकेटर हैं। राजनेता हैं। कमेंटेंटर हैं। कवि हैं। समां बांधनेवाले वक्ता है। दिखने में सुदर्शन हैं। टीवी एंकर भी हैं। और कलाकार तो वे हैं ही। एक आदमी सिर्फ एक ही जनम में आखिर जो कुछ हो सकता है, नवजोत सिंह सिद्धू उससे कहीं ज्यादा हैं। उनको बहुत नजदीक से जानने वालों को यह कहने का हक है कि जीवन में वे अब अगर और कुछ भी नहीं कर पाए, तो भी उनका चुटीला कविताई अंदाज उन्हें बेराजगारी से तो बचा ही लेगा। लेकिन फिर भी पता नहीं सिद्धू के बारे में ऐसा क्यों लग रहा है कि भस्मासुर के कलयुगी अवतार में आने की वजह से वे जीते जी मोक्ष को प्राप्त होनेवाले हैं। पंद्रह साल के राजनीतिक जीवन में पहली बार नवजोत सिंह सिद्धू को राजनीति के मैदान में अपने खडे होने लायक जगह तलाशनी पड़ रही है।

एक महिला मुख्यमंत्री की बीमारी पर इतना बवाल… !

जयललिता बीमार हैं। वे अब 68 साल की हैं और यह नहीं पता कि आप जब यह पढ़ रहे होंगे, तब वे बीमारी से निजात पाकर अस्पताल से अपने घर आ चुकी होंगी या वहीं इलाज करा रही होंगी। लेकिन उनकी बीमारी को लेकर तमिलनाड़ु में ही नहीं, देश भर में जो कोहराम मचा हुआ है वह इससे पहले भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में कभी किसी ने नहीं देखा। एक सीएम के बीमार होने को किसी राष्ट्रीय संकट के सात्विक स्वरूप में देश के सामने खड़ा कर दिए जाने की संभवतया यह पहली घटना है। बाहर क्या घट रहा है, इससे बिल्कुल नावाकिफ जयललिता अस्पताल में जिस अवस्था में हैं, उसके बारे में डाक्टर ही बेहतर बता सकते हैं। लेकिन एक लौहमहिला के शुभचिंतक और अशुभचिंतक दोनों ही इस बार कुछ ज्यादा ही चिंतित है।