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सुख-दुख

‘सिस्टम’ कौन है?

राकेश कायस्थ-

सिस्टम को मोदी शब्द का पर्यायवाची बनाकर प्रधानमंत्री को गाली देना बंद कीजिये। व्यक्ति सिस्टम नहीं होता है। नरेंद्र मोदी 2014 में सत्ता में आये थे। उसके बाद से वो लगातार एक सिस्टम सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। आइये देखते हैं पिछले सात साल में मोदीजी को सिस्टम बदलने में कितना संघर्ष करना पड़ा है और इसके नतीजे हुए हैं।

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  1. मोदीजी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में कदम रखते ही यह महसूस किया कि सिस्टम तभी करेगा जब इससे नेहरू की छाप खुरच-खुरच कर मिटाई जाएगी। नेहरू की बनाई गई एक संस्था थी—योजना आयोग। मोदीजी ने कहा- इसका नाम बदल दो।
    तो योजना आयोग बन गया नीति आयोग। फुल फॉर्म– National Institution for Transforming India. न्यू इंडिया बनाने के लिए मोदीजी जिन धुरंधर को लेकर आये उनका नाम था अरविंद पनगढ़िया। साल 2016 में मोदीजी ने अपना पहला मास्टर स्ट्रोक खेला और वो था—नोटबंदी। नीति आयोग के प्रमुख के तौर पर अरविंद पनगढ़िया का नाम लोगों को इसलिए याद होगा क्योंकि उन्होंने नोटबंदी के दौरान कैशलेस ट्रांजेक्शन करने वालों के लिए एक इनामी प्रतियोगिता शुरू करने का क्रांतिकारी आइडिया दिया था।

सौ-दो सौ लोगों को मरवाकर देश से काला धन हमेशा के लिए खत्म कर देना बहुत ही सस्ता सौदा था। नोटबंदी के बाद जब काला धन खत्म हो गया तो पनगढ़िया जी ने कहा– देश ट्रांसफॉर्म्ड हो चुका है। अब मैं अमेरिका जा रहा हूँ, वहाँ मेरी पक्की नौकरी है। सरकार ने रोका लेकिन पनगढ़िया नहीं रूके।

मगर आदमी के जाने से सिस्टम का सुधार थोड़े ना रूक जाता है। नीति आयोग सरकार को बताता है कि नेहरू वाली सारी कंपनियां अडानी-अंबानी को बेच दीजिये। मोदीजी बेच रहे हैं।

ऑक्सीजन की बड़ी सप्लाई सेल जैसी सरकारी कंपनियों से हो रही है। आईटी सेल अंबानी का नाम चमका कर कह रहा है– “आलोचना करना आसान है लेकिन देश के लिए महान योगदान करना मुश्किल है।“ ऑक्सीजन सप्लाई कर रही नेहरू के टाइम वाली कंपनियों के नाम सिरे से गोल हैं, सिस्टम सुधर रहा है।

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  1. सिस्टम सुधारने के लिए लाये गये ऐसे ही एक विशेषज्ञ थे अररविंद सुब्रहमण्यम। मोदीजी उन्हें अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया। सुब्रमहण्यम साहब कुछ समय दायें-बायें देखते रहे और उसके बाद कहा– अमेरिका में मेरी बहू प्रेगनेंट है। दादा बनने से ज्यादा बड़ा काम और क्या होगा। .. और अरविंद सुब्रहमण्यम भी भाग खड़े हुए। मौका देखकर बीच-बीच में आर्थिक नीतियों पर वो सरकार को गरिया देते हैं। नमकहरामी की भी हद होती है।
  2. दो चार-लोगों के भाग जाने से अगर मोदीजी हार मान जाते तो फिर वो विश्वगुरू क्यों होते? आरबीआई में उन्होंने रघुराम राजन की जगह अपने आदमी उर्जित पटेल को बिठाया। मगर कुर्सी पर बैठते ही पटेल बदल गये। वो कहने लगे कि आरबीआई तो स्वायत्त संस्था है। हर बात में सरकार के हाँ में नहीं मिला सकती है।

सरकार जी ने रिजर्व बैंक का रिजर्व मांगा तो पटेल आनाकानी करने लगे। तनाव बढ़ा और उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया। उनके पीछ-पीछे उप प्रमुख विमल आचार्य ने भी पतली गली पकड़ ली। तब मोदीजी को समझ में आया कि हावर्ड वाले बकवास करते हैं। सिस्टम हार्डवर्क वालों से चलेगा।

इसके बाद शक्तिकांत दास आरबीआई के पहले ऐसे गर्वनर बने जो अर्थशास्त्री नहीं बल्कि एम.ए. इन हिस्ट्री थे। उनके गर्वनर बनते ही सिस्टम सुधरने लगा। सरकार ने जब-जब जितना पैसा मांगा दास बाबू ने चुपचाप निकाल कर दे दिया और राष्ट्र आर्थिक प्रगति के पथ पर बुलेट ट्रेन की तरह दौड़ने लगा।

  1. सिस्टम में सुधार के लिए मोदीजी ने परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी। पिंजरे वाले तोते सीबीआई को मोदीजी मिर्ची खिलाने गये तो उस कमबख्त ने उंगली काट ली। सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा ने यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी जैसे लोगों की तरफ से राफेल पर दी गई शिकायत को स्वीकार कर लिया। बताइये कितना घटिया था, सिस्टम।

बस सरकार ने रातो-रात दिल्ली पुलिस भेजकर सीबीआई हेडक्वार्टर पर कब्जा कर लिया। आलोक वर्मा निकाल फेंके गये और रिटायरमेंट के बाद से पेंशन चालू करवाने के लिए धक्के खाते रहे। पता नहीं पेंशन अब शुरू हुई या नहीं लेकिन सीबीआई का सिस्टम सुधर गया। अब देखिये कितनी पारदर्शिता और ईमानदारी से काम कर रही रही है सीबीआई।

  1. अदालतों के सिस्टम में सुधार की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी और मोदीजी की सरकार ने इसपर सबसे ज्यादा काम किया। जब सबरीमला का मामला चल रहा था तब चाणक्य जी ने सुप्रीम कोर्ट को खुलेआम समझाया—“भइया फैसले ऐसे दो जो मानने लायक हों।“ उनकी बात बिल्कुल ठीक थी। सारे फैसले मानने लायक नहीं होते हैं।

हाईकोर्ट ने कहा—यूपी में लॉक डाउन लगा दो। सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया। जो भी फैसला सरकारों के मानने लायक नहीं होता है, उपरी अदालत उसपर फौरन रोक लगा देती है। सुधर रहा है ना सिस्टम!

पूरी दुनिया के साथ अदालत परिसरों में भी मोदीजी के नाम का डंका बज उठा। ये वहीं अदालतें थीं जो कभी देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसला देकर उन्हें पद छोड़ने पर मजबूर कर देती थीं। मगर डंका ऐसा बजा कि मिसिर जी जैसे सुप्रीम कोर्ट जज खुलेआम नमो कीर्तन करने लगे।

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ज्यूडिशियल सिस्टम में ऐसा सुधार हुआ है कि बहुत से जज अब रिटायरमेंट के अगले ही दिन से मोदीजी के सपनों का भारत बनाना चाहते हैं। कुछ ऐसे हैं जो सेवा में रहते ही बनाना चाहते हैं। चीफ जस्टिस गोगोई रिटायर होते ही बीजेपी की तरफ से राज्यसभा में पहुंच गये।

बाबरी मस्जिद की मौत को आत्महत्या बताने और आडवाणी जैसे नेताओं को क्लीन चिट देने वाले यादव जी भी रिटायर होते ही फिर से सरकार के एक नये काम में लग गये। उन्हें बड़ा ओहदा दिया गया। इसे कहते हैं.. टैलेंट की कद्र। सुधर रहा है ना सिस्टम!

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  1. चुनाव आयोग को जितना टीएन शेषन ने सुधारा था, उससे कई गुना ज्यादा मोदीजी ने सुधार दिया है। पहले कब होते थे, इतने साफ-सुथरे और पारदर्शी चुनाव। कमियां बहुत हैं लेकिन मोदीजी धीरे-धीरे ठीक कर रहे हैं। सिस्टम बेहया है, इसे मोदीजी के मानकों के हिसाब से सुधरने में अभी और टाइम लगेगा।
  2. देश में एक भारी-भरकम संस्था हुआ करती थी– सीएजी। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक। इस संस्था के प्रमुख थे विनोद राय, जिन्होंने एक अनोखे कैलकुलेशन से टू जी स्पेक्ट्रम में 1.76 लाख करोड़ रुपये के घोटाले का पर्दाफाश किया था।

मेरे पास एक मुर्गी है, वो बीस अंडे देगी, उसके चूज़े होंगे और फिर उनके अंडे फिर चूजे और फिर अंडे और इस तरह मैं पॉल्ट्री किंग बन जाउंगा। यही आधार था कैलकुलेशन का। अन्ना हज़ारे का आंदोलन इसी टू जी की थ्योरी पर हुआ। चुनाव इसी को मुद्दा बनाकर लड़ा गया।

बरसो बाद एक दिन अदालत ने कहा—ये क्या बकवास है। हम बरसों से इंतज़ार कर रहे हैं और सरकार एक भी सबूत नहीं दे पाई। .. और मामला खारिज हो गया। टू जी पर चुनाव जीतने वाले मोदीजी मजबूत हैं लेकिन सिस्टम कमज़ोर है.. वे बेचार करें तो क्या करें।

सिस्टम धीरे-धीरे सुधर रहा है। इसलिए सीएजी आराम की नींद ले रहा है। विजिलेंस कमीशन का काम सर्तक रहना है, वो सतर्क है। देश में सब मंगल है तो फिर वो क्यों कुछ बोले। बेटा की तरह डेटा भी आजकल बेवफा होता है। इसलिए विश्वगुरू की सरकार में आधे से ज्यादा डेटा आने बंद हो गये हैं। सूचना आयोग क्या कर रहा है, बाकी संस्थाएं किस तरह काम कर रही हैं ये सब सवाल बेमानी हैं क्योंकि मोदीजी हैं।

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सात साल में बहुत सुधारा है और आगे भी सुधारेंगे। इसलिए सिस्टम बताकर मोदीजी को गाली देना बंद कीजिये। पूरी दुनिया में डंका बज रहा है और आप सरकार की बजा रहे हैं। ये देशद्रोह नहीं तो और क्या है?


सरकारी दावे और हक़ीक़त!

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पिछले तीन दिन में आये सत्तापक्ष के बड़े नेताओं के बयानों पर गौर कीजिये। गृहमंत्री अमितशाह ने दावा किया है कि ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है और अस्पतालों में बेड पर्याप्त संख्या में हैं।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहा कि उनके प्रदेश में सबकुछ एकदम दुरुस्त है। राज्य कोरोना की महामारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम है। कमी किसी भी बात की नहीं है।

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अगर आप सरकार समर्थक हैं तो आपके लिए ये दोनों बयान अपार संतोष का विषय होने चाहिए। आपको इन बयानों का प्रसार जन-जन तक करना चाहिए और पुख्ता सरकारी इंतज़ामों की जानकारी देनी चाहिए।

लेकिन आप ऐसा नहीं कर रहे हैं। आप सोशल मीडिया पर घूम-घूमकर सिर्फ उन लोगों को ट्रोल कर रहे हैं, जो सरकारी तैयारियों पर सवाल उठा रहे हैं।

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आखिर आपका व्यवहार इतना विचित्र क्यों है? पहला और सबसे बड़ा कारण ये है कि आप अच्छी तरह जानते हैं कि आपके प्रिय नेता झूठ बोल रहे हैं।

दूसरा कारण ये है कि पिछले सात साल में आपकी मेंटल कंडीशनिंग इस तरह की गई है कि आपको अपने आसपास कोई ना कोई शत्रु चाहिए। आप मुसलमान खलनायक ढूंढ रहे हैं। आप ‘अर्बन नक्सल” ढूंढ रहे हैं। अगर वो नहीं मिल रहे हैं तो फिर फैमिली व्हाट्स ग्रुप में ही किसी को मुसलमान या किसी को अर्बन नक्सल बनाकर काम चला रहे हैं।

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हिंसा और नफरत के सिवा आपके पास कुछ नहीं है। जिन बंदायू वाले फूफा ने 2014 से पहले पॉलिटिक्स पर आजतक कभी एक लाइन की कोई बात नहीं की वो व्हाट्स एप मैसेज भेजकर ये समझा रहे हैं कि देशभक्ति क्या चीज़ होती है। लहजा कुछ ऐसा है कि अगर सामने पड़ जाउं तो मेरी गर्दन उतार दें।

कन्नौज वाली काकी और जौनपुर वाली जिज्जी भी इसी तरह हमलावर हैं। सबने व्हाट्स एप यूनवर्सिटी के आंगन में आँखें खोली हैं और वहीं से मिले ज्ञान को अंतिम सत्य मानकर देश के दुश्मनों की आँख में मिर्ची झोंक रही हैं।

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आप तो पाकिस्तान में प्याज़ की कीमत बढ़ने पर तालियां पीटते नहीं थकते थे। फ्रांस मुसलमानों का कोई जुलूस निकल जाये तो इस तरह मेरे पास हिसाब मांगने आते थे, जैसे वो जुलूस मैंने निकलवाया हो। अब ऑक्सीज़न का ट्रक आने पर उसे अस्पताल भेजने से पहले बैलून से सजाया जा रहा है, पार्टी का पोस्टर लगाया जा रहा है, फोटो सेशन हो रहा है और आप चाहते हैं कि इसपर कोई प्रतिक्रिया ना हो। बड़े भोले हैं आप।

.. नहीं आप इतने भोले भी नहीं हैं। आप अपने महान नेता के लिए सेफ पैसेज चाहते हैं। उनकी तरफ उठ रही उंगलियों कही और मोड़ना चाहते हैं। यही आपके जीवन का परम ध्येय है. भले ही पड़ोस में कोई मर रहा हो।

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कोरोना का वायरस प्रकृति प्रदत्त संकट है, जिसे सरकार की लापरवाही ने कई गुना बढ़ा दिया है। नफरत का वायरस आपके नेता की राजनीतिक प्रयोगशाला में तैयार किया गया है। जिसका असर ये है कि विभाजन अब सामाजिक समूहों में नहीं बल्कि हर घर में है।

ना जाने कितने ऐसे दोस्त जो उधार ले गये और कभी लौटाया नहीं। कितने ऐसे करीबी मित्र या जूनियर जिनकी नौकरियां लगवाई या अपनी क्षमता के हिसाब से यथासंभव मदद की। ऐसे रिश्तेदार जिनके लिए किराये का मकान ढूंढा या कई-कई दिन अस्पतालों के चक्कर काटे, उनमें से आधे ऐसे हैं जो मेरे भीतर अपना मुसलमान, अपना कांग्रेसी, अपना अर्बन नक्सली ढूंढ रहे हैं। कुछ ने हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ लिया और कुछ ने ऐसी बदत्तमीजियां की जिनकी वजह से मुझे खुद दरवाज़े बंद करने पड़े।

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जो लोग सरकार समर्थक रहे हैं। आरएसएस के पुराने कार्यकर्ता रहे हैं लेकिन गलती से थोड़ा पढ़-लिख गये हैं, सोशल पर रात-दिन उनकी तरफ भी पत्थर उछाले जाते हुए देख रहा हूँ, वजह सिर्फ इतनी है कि वो सरकार से सवाल पूछ रहे हैं।

हमारे आसपास गूंजने वाला सबने डरावना वाक्य है “ राम नाम सत्य है “

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सत्य अक्सर डरावने ही होते हैं। सत्य ये है कि हर रोज़ आत्मीय जनों में कोई ना कोई सड़क पर ऑक्सीजन की कमी के बिना दम तोड़ रहा है। असामयिक निधन के बाद पत्रकारिता के हमारे एक सीनियर का शव लेकर चार लोग श्मशान पहुँचे।

दिल्ली के उस श्मशान पर शवों के अंबार लगे थे। लकड़ियों के लिए परिजन एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था थे। शव जलाकर थक चुके श्मशान के कर्मचारी जा चुके थे। शव ले जाने वाले चारो लोग ( इनमें दो लड़कियां थीं) बड़ी मुश्किल से बाकी चिताओं के किनारे बची लकड़ियां इकट्ठा करके लाये। किसी ने सुझाव दिया कि घी ज्यादा डाल देने से शव आसानी से जल जाएगा। फिर एक्स्ट्रा घी जुटाया गया। शव को चिता पर रखने की बारी आई तो कुछ लोग ऐसे मारने आ गये “ ये जगह हमने पहले देखी है। आपलोग कहीं और जाइये। “

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किसी तरह श्मशान के एक कोने में शव रखा गया। उसे आग के हवाले किया गया और बिना ये देखे कि शव ठीक से चल रहा या नहीं प्रियजन बोझिल कदमों से चुपचाप वापस लौट आये, क्योंकि वो कुछ कर नहीं सकते थे। नर्क का अनुभव क्या इससे कुछ अलग होता होगा?

इन सबके बीच आपकी तरफ से निरंतर पॉजेटिव रहने का ज्ञान मिल रहा है। मैंने सोशल मीडिया पर एक भी ऐसा सरकार समर्थक व्यक्ति नहीं देखा जो लोगों की मदद करने की कोशिश कर रहा हो, वो सिर्फ ट्रोल कर रहा है और ज्ञान दे रहा है कि मदद करो राजनीति मत करो।

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कोरोना के वायरस को आज नहीं तो कल जाना ही पड़ेगा। लेकिन राजनीतिक प्रयोगशाला में बनाया गया नफरत का वायरस इतनी आसानी से नहीं जाएगा। जो लोग कोरोना से बच जाएंगे उनको इसका दंश आगे भी झेलना होगा।

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