SP Singh Rajput : दिवाकर जी आपके संघर्ष में देश आपके साथ है। पत्रकारिता में बड़ा नाम होने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, उसको अपने पत्रकारिता धर्म से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं मिल जाती। आपने बखूबी कहा कि नेताओं की निष्ठा और ईमानदारी पर हमेशा सवाल उठाने वाले पत्रकारों भी अपने गिरेबान में …
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पुण्य प्रसून प्रायोजित खबरें चलाना चाहते थे, विरोध किया तो इस्तीफा देना पड़ा : दिवाकर विक्रम सिंह
सूर्या समाचार चैनल में एक नया विवाद खड़ा हो गया है. एडिटर इन चीफ पुण्य प्रसून बाजपेयी पर गंभीर आरोप लगाते हुए एक्जीक्यूटिव एडिटर दिवाकर विक्रम सिंह ने इस्तीफा दे दिया है. दिवाकर ने भड़ास4मीडिया से बातचीत में कहा कि पुण्य प्रसून मोदी सरकार के खिलाफ कुछ प्रायोजित खबरें और सर्वे प्लांट कर रहे थे …
पुण्य प्रसून की ‘सूर्या समाचार’ संग आज शुरू हुई ये पारी कब तक चलेगी?
एन. त्रिपाठी- छह महीने बेरोजगार रहने के बाद पुण्य प्रसून बाजपेयी एक बार फिर आज से सूर्या चैनल के साथ अपनी नई पारी का आगाज़ करेंगे. पत्रकारिता में पुण्य के करियर ग्राफ पर नजर डाला जाए तो आज उनकी नई शुरुआत से पता चलता है कि वे अर्श से फर्श पर आ गिरे हैं. तो …
पुण्य प्रसून बाजपेयी सूर्या समाचार के एडिटर इन चीफ बने!
एक बड़ी खबर सूर्या समाचार न्यूज चैनल से आ रही है. चर्चा है कि दो-दो न्यूज चैनलों से हटने को मजबूर हुए पुण्य प्रसून बाजपेयी का नया ठिकाना सूर्या समाचार बन गया है. इस बात की पुष्टि चैनल के अंदर-बाहर के कई सोर्सेज ने की है.
लोकमत समूह का हिंदी न्यूज चैनल लांच कराएंगे पुण्य प्रसून बाजपेयी!
चर्चा है कि वरिष्ठ पत्रकार और जाने माने एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी लोकमत समूह का न्यूज चैनल लांच कराने की तैयारी कर रहे हैं. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले चैनल लांच करो अभियान के तहत एक के बाद एक धड़ाधड़ हिंदी चैनल्स लांच हो रहे हैं. स्वराज एक्सप्रेसर, टीवी9 हिंदी, रिपब्लिक भारत के बाद अब …
अब सिर्फ वे ही न्यूज चैनल चलेंगे जो साहेब को खुश रख सकें या फिर हिन्दू मुस्लिम दंगा करा सकें!
Sheetal P Singh : साहेब को TV पर एब्सोल्यूट कब्जा मांगता. सिर्फ वे ही चैनल चलेंगे जो हिन्दू मुस्लिम दंगा करा सकें. ABP news में बड़े फेरबदल की खबर है. संपादक मिलिंद खांडेकर हटाये गए. चर्चित एंकर अभिसार शर्मा के ऑफ एयर होने की खबरें. कहा जा रहा है कि PMO असंतुष्ट है. स्वाति चतुर्वेदी …
एबीपी न्यूज से पुण्य प्रसून बाजपेयी और अभिसार शर्मा भी हटा दिए गए!
Qamar Waheed Naqvi एबीपी न्यूज़ में पिछले 24 घंटों में जो कुछ हो गया, वह भयानक है. और उससे भी भयानक है वह चुप्पी जो फ़ेसबुक और ट्विटर पर छायी हुई है. भयानक है वह चुप्पी जो मीडिया संगठनों में छायी हुई है. मीडिया की नाक में नकेल डाले जाने का जो सिलसिला पिछले कुछ …
बाबा रामदेव से मुश्किल सवाल पूछने के कारण पुण्य प्रसून बाजपेयी की नौकरी गई
मीडिया मालिकों द्वारा मोदी भक्ति में लीन होते जाने के इस दौर में खरी बात कहना-पूछना भी गुनाह बन गया है. खबर है कि पुण्य प्रसून बाजपेयी की आजतक न्यूज चैनल से इसलिए छुट्टी कर दी गई क्योंकि उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान बाबा रामदेव से कुछ मुश्किल सवाल पूछ लिए थे. इस सवाल से रामदेव भड़क गए थे. सूत्रों का कहना है बाद में बाबा ने आजतक के मालिकों से संपर्क साधा और चैनल को दिए जाने वाले सारे विज्ञापन बंद करने की धमकी देते हुए पुण्य प्रसून बाजपेयी को सबक सिखाने हेतु दबाव बनाया.
पुण्य प्रसून बाजपेयी ने उठाया सवाल- एक करोड़ खाली पड़े सरकारी पदों पर भर्ती क्यों नहीं?
रोजगार ना होने का संकट या बेरोजगारी की त्रासदी से जुझते देश का असल संकट ये भी है केन्द्र और राज्य सरकारों ने स्वीकृत पदो पर भी नियुक्ति नहीं की हैं। एक जानकारी के मुताबिक करीब एक करोड़ से ज्यादा पद देश में खाली पड़े हैं। जी ये सरकारी पद हैं। जो देश के अलग अलग विभागों से जुड़े हैं । दो महीने पहले ही जब राज्यसभा में सवाल उठा तो कैबिनेट राज्य मंत्री जितेन्द्र प्रसाद ने जवाब दिया। केन्द्र सरकार के कुल 4,20,547 पद खाली पड़े हैं। और महत्वपूर्ण ये भी है केन्द्र के जिन विभागो में पद खाली पड़े हैं, उनमें 55,000 पद सेना से जुड़े हैं। जिसमें करीब 10 हजार पद आफिसर्स कैटेगरी के हैं। इसी तरह सीबीआई में 22 फीसदी पद खाली हैं। तो प्रत्यर्पण विभाग यानी ईडी में 64 फीसदी पद खाली हैं। इतना ही नहीं शिक्षा और स्वास्थ्य सरीखे आम लोगो की जरुरतों से जुडे विभागों में 20 ले 50 फीसदी तक पद खाली हैं। तो क्या सरकार पद खाली इसलिये रखे हुये हैं कि काबिल लोग नहीं मिल रहे। या फिर वेतन देने की दिक्कत है। या फिर नियुक्ति का सिस्टम फेल है।
यूपी के नये सीएम के एलान के साथ कई थ्योरियों ने जन्म ले लिया है : पुण्य प्रसून बाजपेयी
Punya Prasun Bajpai : शाह को शह देकर योगी के आसरे संघ का राजनीतिक प्रयोग…. ये बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को संघ की शह-मात है। ये नरेन्द्र मोदी की कट्टर हिन्दुत्व को शह-मात है। ये मुस्लिम तुष्टीकरण राजनीति में फंसी सेक्यूलर राजनीति को संघ की सियासी समझ की शह-मात है। ये मोदी का हिन्दुत्व राजनीति के एसिड टेस्ट का एलान है। ये संघ का भगवा के आसरे विकास करने के एसिट टेस्ट का एलान है। ये हिन्दुत्व सोच तले कांग्रेस को शह मात का खेल है, जिसमें जिसमें योगी आदित्यनाथ के जरीये विकास और करप्शन फ्री हालात पैदा कर चुनौती देने का एलान है कि विपक्ष खुद को हिन्दू विरोधी माने या फिर संघ के हिन्दुत्व को मान्यता दे।
मोदी सरकार के वर्तमान इकनॉमिक मॉडल में रोजगार रहित विकास : पुण्य प्रूसन बाजपेयी
गुजरात में पाटीदारों ने आरक्षण के लिए जो हंगामा मचाया, जो तबाही मचायी, राज्य में सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति स्वाहा कर दी उसका फल उन्हें मिल गया। सरकार ने सामान्य वर्ग में पाटीदारों समेत आर्थिक रुप से पिछड़े लोगों के लिए दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी। तो विकास की मार में जमीन गंवाते पटेल समाज के लिये यह राहत की बात है कि जिनकी कमाई हर दिन पौने दो हजार की है उन्हें भी आरक्षण मिल गया। यानी सरकारी नौकरी का एक ऐसा आसरा जिसमें नौकरी कम सियासत ज्यादा है। यानी आरक्षण देकर जो सियासी राजनीतिक बिसात अब बीजेपी बिछायेगी उसमें उसे लगने लगा है कि अगले बरस गुजरात में अब उसकी हार नहीं होगी।
पुण्य प्रसून बाजपेयी का विश्लेषण : दो साल में देश को बर्बादी की ओर ले गए मोदी राज में देशद्रोह देशद्रोह खेला जा रहा है!
मोदी जी, इस बार पीएम नहीं देश फेल होगा
दो दिन बाद संसद के बजट सत्र की शुरुआत राष्ट्रपति के अभिभाषण से होगी। इस पर संसद की ही नहीं बल्कि देश की नजर होगी। आखिर मोदी सरकार की किन उपलब्धियों का जिक्र राष्ट्रपति करते हैं और किन मुद्दों पर चिंता जताते हैं। पहली बार जाति या धर्म से इतर राष्ट्रवाद ही राजनीतिक बिसात पर मोहरा बनता दिख रहा है। पहली बार आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फूलते हाथ पांव हर किसी को दिखायी भी दे रहे हैं। साथ ही संघ परिवार के भीतर भी मोदी के विकास मंत्र को लेकर कसमसाहट पैदा हो चली है। यानी 2014 के लोकसभा चुनाव के दौर के तेवर 2016 के बजट सत्र के दौरान कैसे बुखार में बदल रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है।
पुण्य प्रूसन बाजपेयी का विश्लेषण : बीजेपी के भीतर नरेंद्र मोदी और अमित शाह को मुश्किल होने वाली है…
बीजेपी का यह भ्रम भी टूट गया कि कि बिना उसे नीतीश कुमार जीत नहीं सकते हैं। और नीतिश कुमार की यह विचारधारा भी जीत गई कि नरेन्द्र मोदी के साथ खड़े होने पर उनकी सियासत ही धीरे धीरे खत्म हो जाती। तो क्या बिहार के वोटरों ने पहली बार चुनावी राजनीति में उस मिथ को तोड़ दिया है, जहां विचारधारा पर टिकी राजनीति खत्म हो रही है।
पुण्य प्रसून बाजपेयी का विश्लेषण- मीडिया हाउसों की साख खबरों से इतर टर्न ओवर पर टिक गई है!
: सत्ता से दो दो हाथ करते करते मीडिया कैसे सत्ता के साथ खडा हो गया : अमेरिका में रुपर्ट मर्डोक प्रधानमंत्री मोदी से मिले तो मड्रोक ने मोदी को आजादी के बाद से भारत का सबसे शानदार पीएम करार दे दिया। मड्रोक अब अमेरिकी राजनीति को भी प्रभावित कर रहे है। ओबामा पर अश्वेत प्रेसीडेंट न मानने के मड्रोक के बयान पर बवाल मचा ही हुआ है। अमेरिका में अपने न्यूज़ चैनल को चलाने के लिये मड्रोक आस्ट्रेलियाई नागरिकता छोड़ अमेरिकी नागरिक बन चुके है, तो क्या मीडिया टाइकून इस भूमिका में आ चुके हैं कि वह सीधे सरकार और सियासत को प्रभावित कर सके या कहे राजनीतिक तौर पर सक्रिय ना होते हुये भी राजनीतिक खिलाडियों के लिये काम कर सके।
पुण्य प्रसून बाजपेयी का विश्लेषण- आखिर मुनव्वर राणा को लेकर संघ परेशान क्यों है?
: मुनव्वर राणा का दर्द और संघ परिवार की मुश्किल : ”आप सम्मान वापस लौटाने के अपने एलान को वापस तो लीजिये। एक संवाद तो बनाइये। सरकार की तरफ से मैं आपसे कह रहा हूं कि आप सम्मान लौटाने को वापस लीजिये, देश में एक अच्छे माहौल की दिशा में यह बड़ा कदम होगा। आप पहले सम्मान लौटाने को वापस तो लीजिये। यहीं न्यूज चैनल की बहस के बीच में आप कह दीजिये। देश में बहुत सारे लोग देख रहे हैं। आप कहिए इससे देश में अच्छा माहौल बनेगा।” 19 अक्टूबर को आजतक पर हो रही बहस के बीच में जब संघ विचारक राकेश सिन्हा ने उर्दू के मशहू शायर मुनव्वर राणा से अकादमी सम्मान वापस लौटाने के एलान को वापस लेने की गुहार बार बार लगायी तब हो सकता है जो भी देख रहा हो उसके जहन में मेरी तरह ही यह सवाल जरूर उठा होगा कि चौबीस घंटे पहले ही तो मुनव्वर राणा ने एक दूसरे न्यूज चैनल एबीपी न्यूज पर बीच बहस में अकादमी सम्मान लौटाने का एलान किया था तो यही संघ विचारक बाकायदा पिल पड़े थे। ना जाने कैसे कैसे आरोप किस किस तरह जड़ दिये।
मोदी और केजरी स्टाइल का ‘आदर्श’ मीडिया… जो पक्ष में लिखे-बोले वही सच्चा पत्रकार!
: मीडिया समझ ले, सत्ता ही है पूर्ण लोकतंत्र और पूर्ण स्वराज! : मौजूदा दौर में मीडिया हर धंधे का सिरमौर है। चाहे वह धंधा सियासत ही क्यों न हो। सत्ता जब जनता के भरोसे पर चूकने लगे तो उसे भरोसा प्रचार के भोंपू तंत्र पर होता है। प्रचार का भोंपू तंत्र कभी एक राह नहीं देखता। वह ललचाता है। डराता है। साथ खड़े होने को कहता है। साथ खड़े होकर सहलाता है और सिय़ासत की उन तमाम चालों को भी चलता है, जिससे समाज में यह संदेश जाये कि जनता तो हर पांच बरस के बाद सत्ता बदल सकती है। लेकिन मीडिया को कौन बदलेगा? तो अगर मीडिया की इतनी ही साख है तो वह भी चुनाव लड़ ले… राजनीतिक सत्ता से जनता के बीच दो-दो हाथ कर ले… जो जीतेगा, उसी की जनता मानेगी!
(पार्ट तीन) मीडिया ने जिस बिजनेस माडल को चुना वह सत्ता के खिलाफ जाकर मुनाफा दिलाने में सक्षम नहीं : पुण्य प्रसून बाजपेयी
1991 के बाद राजनीतिक सत्ता ने जिस तेजी से अर्थव्यवस्था को लेकर पटरी बदली उसने झटके में उस सामाजिक बंदिशों को ही तोड़ दिया, जहां दो जून की रोटी के लिये तड़पते लोगों के बीच मर्सिर्डिज गाड़ी से घूमने पर अपराध बोध होता। बंदिशें टूटी तो सत्ता का नजरिया भी बदला और पत्रकारिता के तौर तरीके भी बदले। बंदिशें टूटी तो उस सांस्कृतिक मूल्यों पर असर पड़ा जो आम जन को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये बेचैन दिखती। लेखन पर असर पड़ा। संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के आगे नतमस्तक हुईं और झटके में सत्ता को यह एहसास होने लगा कि वही देश है। यानी चुनावी जीत ने पांच साल के लिये देश की चाबी कुछ इस तरह राजनीतिक सत्ता के हवाले कर दी कि संविधान के तहत कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका जहां एक दूसरे को संभालते वहीं आधुनिक सत्ता के छाये तले सभी एक सरीखे और एक सुर में करार दे दिये गये। इसी कड़ी में शामिल होने में मीडिया ने भी देर नहीं लगायी क्योंकि सारी जरुरते पूंजी पर टिकी। मुनाफा मूल मंत्र बन गया।
(पार्ट दो) सत्ता-मीडिया गठजोड़ सांगठनिक अपराध में तब्दील हो गया : पुण्य प्रसून बाजपेयी
आजादी के तुरंत बाद देश को किसी पार्टी की सरकार नहीं बल्कि राष्ट्रीय सरकार मिली थी। इसीलिये नेहरु के मंत्रिमंडल में वह सभी चेहरे थे जिन चेहरों के आसरे आज राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिये टकराते हैं। यानी 68 बरस पहले 1947 में सवाल देश का था तो नेहरु की अगुवाई में देश के कानून मंत्री बीआर आंबेडकर थे। गृह मंत्री सरदार पटेल थे। तो शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और इंडस्ट्री-सप्लाई मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। इसी तर्ज पर अठारह कैबिनेट मंत्री अलग अलग जाति-सप्रदाय-धर्म-भाषा-सूबे के थे। जो मिलकर देश को दिशा देने निकले। तो पत्रकारिता भी देश को ले कर ही सीधे सवाल नेहरु की सत्ता से करने की हिम्मत रखती थी।
(पार्ट एक) क्या वाकई मीडिया की आजादी का बोलने-लिखने से कोई वास्ता है : पुण्य प्रसून बाजपेयी
आजादी के 68 बरस बाद यह सोचना कि मीडिया कितना स्वतंत्र है, अपने आप में कम त्रासद नहीं है। खासकर तब जबकि सत्ता और मीडिया की साठगांठ खुले तौर पर या तो खुशहाल जिन्दगी जीने और परोसने का नाटक कर रही हो या फिर कभी विकास के नाम पर तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर मीडिया को धंधे में बदलने की बिसात को ही चौथा स्तंम्भ करार देने नहीं चूक रही हो। तो क्या सियासी बिसात पर मीडिया भी अब एक प्यादा है। और प्यादा बनकर खुद को वजीर बनाने का हुनर ही पत्रकारिता हो चली है। जाहिर है यह ऐसे सवाल है जिनका जवाब कौन देगा, यह कहना मुश्किल है लेकिन सवालों की परतों पर परत उघाडें तो मीडिया का सच डरा भी सकता है और आजादी का जश्न सत्ता से मोहभंग कर भी सकता है। क्योंकि माना यही जाता है कि मीडिया के सामने सबसे बडी चुनौती आपातकाल में आई। तब दिखायी दे रहा था कि आपातकाल का मतलब ही बोलने-लिखने की आजादी पर प्रतिबंध है। लेकिन यह एहसास 1991 के आर्थिक सुधार के बाद धीरे धीरे काफूर होता चला गया कि आपातकाल सरीखा कुछ अब देश में लग सकता है जहां सेंसरशिप या प्रतिबंध का खुल्लम खुल्ला एलान हो।
सत्ता की ताकत तले ढहते संस्थान : हर संस्थान के बोर्ड में संघ के पंसदीदा की नियुक्ती होने लगी….
याद कीजिये तो एक वक्त सीबीआई, सीवीसी और सीएजी सरीखे संवैधानिक संस्थानों की साख को लेकर आवाज उठी थी। वह दौर मनमोहन सिंह का था और आवाज उठाने वाले बीजेपी के वही नेता थे जो आज सत्ता में हैं। और अब प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता के आगे नतमस्तक होते तमाम संस्थानों की साख को लेकर कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष ही सवाल उठा रहा है। तो क्या आपातकाल के चालीस बरस बाद संस्थानों के ढहने और राजनीतिक सत्ता की आकूत ताकत के आगे लोकतंत्र की परिभाषा भी बदल रही है। यानी आपातकाल के चालीस बरस बाद यह सवाल बड़ा होने लगा है कि देश में राजनीतिक सत्ता की अकूत ताकत के आगे क्यों कोई संस्था काम कर नहीं सकती या फिर राजनीतिक सत्ता में लोकतंत्र के हर पाये को मान लिया जा रहा है। क्योंकि इसी दौर में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर संसद की स्टैंन्डिग कमेटी बेमानी साबित की जानी लगी। राज्य सभा की जरुरत को लेकर सवाल उठने लगे। और ऊपरी सदन को सरकार के कामकाज में बाधा माना जाने लगा।
केजरीवाल : चेहरा या मुखौटा?
किसी को इंदिरा गांधी का सिडिंकेट से लड़कर मजबूत नेता के तौर पर उभरना याद आ रहा है तो किसी को प्रफुल्ल महंत का असम में सिमटना और फूकन को बाहर का रास्ता दिखा कर एक क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर सिमट कर रह जाना याद आ रहा है। किसी को दिल्ली का चुनावी बदशाह दिल्ली में जीत का ठग लग रहा है तो कोई दिल्ली सल्तनत को अपनी बौद्दिकता से ठगकर गिराने की साजिश देख रहा है। कोई लोकतंत्र की हत्या करार दे रहा है तो कोई जनतंत्र पर हावी सत्ताधारी राजनीति को आईना दिखाने वाली राजनीति का पटाक्षेप देख रहा है। एकतरफा निर्णय सुनाने की ताकत किसी में नहीं है। कोई इतिहास के पन्नों को पलटकर निर्णय सुनाने से बचना चाह रहा है तो कोई अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिये राजनीति के बदलते मिजाज को देखना चाह रहा है। लेकिन सीधे सीधे यह कोई नहीं कह रहा है कि आम आदमी पार्टी का प्रयोग तो राजनीतिक विचारधाराओं को तिलांजलि देकर पनपा है। जहां राजनेता तो हैं ही नहीं। जहा समाजवादी-वामपंथी या राइट-लेफ्ट की सोच है ही नहीं। जहां राजनीतिक धाराओं को दिशा देने की सोच है ही नहीं। जहां सामाजिक-आर्थिक अंतर्रविरोध को लेकर पूंजीवाद से लड़ने या आवारा पूंजी को संभालने की कोई थ्योरी है ही नहीं। यहा तो शुद्द रुप से अपना घर ठीक करने की सोच है।
दिल्ली की हार, दस लाख का कोट और संघ की हैरानी
गुजरात के सीएम मोदी बदले तो लोकसभा की जीत ने इतिहास रच दिया और प्रधानमंत्री मोदी बदले तो दिल्ली ने बीजेपी को अर्स से फर्श पर ला दिया। दिल्ली की हार से कही ज्यादा हार की वजहों ने संघ परिवार को अंदर से हिला दिया है। संघ उग्र हिन्दुत्व पर नकेल ना कस पाने से भी परेशान है और प्रधानमंत्री के दस लाख के कोट के पहनने से भी हैरान है। संघ के भीतर चुनाव के दौर में बीजेपी कार्यकर्ता और कैडर को अनदेखा कर लीडरशीप के अहंकार को भी सवाल उठ रहे हैं और नकारात्मक प्रचार के जरीये केजरीवाल को निशाना बनाने के तौर तरीके भी संघ बीजेपी के अनुकुल नहीं मान रहा है।
एक दूसरे के लिए “सरकार” हैं मोदी और भागवत!
संघ परिवार से जो गलती वाजपेयी सरकार के दौर में हुई, वह गलती मोदी सरकार के दौर में नहीं होगी। जिन आर्थिक नीतियो को लेकर वाजपेयी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया, उनसे कई कदम आगे मोदी सरकार बढ़ रही है लेकिन उसे कठघरे में खड़ा नहीं किया जायेगा। लेकिन मोदी सरकार का विरोध होगा। नीतियां राष्ट्रीय स्तर पर नहीं राज्य दर राज्य के तौर पर लागू होंगी। यानी सरकार और संघ परिवार के विरोधाभास को नियंत्रण करना ही आरएसएस का काम होगा। तो क्या मोदी सरकार के लिये संघ परिवार खुद को बदल रहा है। यह सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के भीतर के उन कार्यकर्ताओ का भी है, जिन्हें अभी तक लगता रहा कि आगे बढने का नियम सभी के लिये एक सरीखा होता है। एक तरफ संघ की विचारधारा दूसरी तरफ बीजेपी की राजनीतिक जीत और दोनों के बीच खड़े प्रधानमंत्री मोदी। और सवाल सिर्फ इतना कि राजनीतिक जीत जहां थमी वहां बीजेपी के भीतर के उबाल को थामेगा कौन। और जहां आर्थिक नीतियों ने संघ के संगठनों का जनाधार खत्म करना शुरु किया, वहां संघ की फिलासफी यानी “रबर को इतना मत खींचो की वह टूट जाये”, यह समझेगा कौन।
बजट के महीने में देश का वित्त मंत्री दिल्ली चुनाव के लिये बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठने को क्यों है मजबूर
: दिल्ली फतह की इतनी बेताबी क्यों है? : बजट के महीने में देश के वित्त मंत्री को अगर दिल्ली चुनाव के लिये दिल्ली बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठना पड़े… केन्द्र के दर्जन भर कैबिनेट मंत्रियों को दिल्ली की सड़कों पर चुनावी प्रचार की खाक छाननी पड़े… सरकार की नीतियां चकाचौंध भारत के सपनों को उड़ान देने लगे… और चुनावी प्रचार की जमीन, पानी सड़क बिजली से आगे बढ़ नहीं पा रही हो तो संकेत साफ हैं, उपभोक्ताओं का भारत दुनिया को ललचा रहा है और न्यूनतम की जरूरत का संघर्ष सत्ता को चुनाव में बहका रहा है।
दीपक सरीखे पत्रकारों को सोशल मीडिया की गलियों में खोना नहीं है : पुण्य प्रसून बाजपेयी
: “पंडित जी, बीपीएल या बीएमडब्ल्यू… चुनना तो एक को ही पड़ेगा” : धारदार पत्रकारिता से मात तो मीडिया को ही देनी है दीपक शर्मा! : बीपीएल या बीएमडब्ल्यू। रास्ता तो एक ही है। फिर यह सवाल पहले नहीं था। था लेकिन पहले मीडिया की धार न तो इतनी पैनी थी और न ही इतनी भोथरी। पैनी और भोथरी। दोनों एक साथ कैसे। पहले सोशल मीडिया नहीं था। पहले प्रतिक्रिया का विस्तार इतना नहीं था। पहले बेलगाम विचार नहीं थे। पहले सिर्फ मीडिया था। जो अपने कंचुल में ही खुद को सर्वव्यापी माने बैठा था। वही मुख्यधारा थी और वही नैतिकता के पैमाने तय करने वाला माध्यम। पहले सूचना का माध्यम भी वही था और सूचना से समाज को प्रभावित करने वाला माध्यम भी वही था। तो ईमानदारी के पैमाने में चौथा खम्भा पक़ड़े लोग ही खुद को ईमानदार कह सकते थे और किसी को भी बेईमानी का तमगा देकर खुद को बचाने के लिये अपने माध्यम का उपयोग खुले तौर पर करते ही रहते थे।
पूंजीपतियों की पक्षधरता के मामले में कांग्रेसी ममो के बाप निकले भाजपाई नमो!
: इसीलिए संघ और सरकार ने मिलजुल कर खेला है आक्रामक धर्म और कड़े आर्थिक सुधार का खेल : जनविरोधी और पूंजीपतियों की पक्षधर आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू कराने के लिए धर्म पर बहस को केंद्रित कराने की रणनीति ताकि जनता इसी में उलझ कर रह जाए : सुधार की रफ्तार मनमोहन सरकार से कही ज्यादा तेज है। संघ के तेवर वाजपेयी सरकार के दौर से कहीं ज्यादा तीखे है । तो क्या मोदी सरकार के दौर में दोनों रास्ते एक दूसरे को साध रहे हैं या फिर पूर्ण सत्ता का सुख एक दूसरे को इसका एहसास करा रहा है कि पहले उसका विस्तार हो जाये फिर एक दूसरे को देख लेंगे।
संघ की उड़ान को थामना सोनिया-राहुल के बस में नहीं : पुण्य प्रसून बाजपेयी
जिस सियासी राजनीतिक का राग नरेन्द्र मोदी ने छेड़ा है और जिस हिन्दुत्व की ढपली आरएसएस बजा रही है, कांग्रेस ना तो उसे समझ पायेगी और ना ही कांग्रेस के पास मौजूदा वक्त में मोदी के राग और संघ की ढपली का कोई काट है। दरअसल, पहली बार सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राजनीतिक समझ नरेन्द्र मोदी की सियासत के जादू को समझ पाने में नाकाम साबित हो रही है तो इसकी बडी वजह मोदी नहीं आरएसएस है। और इसे ना तो सोनिया-राहुल समझ पा रहे है और ना ही कांग्रेस का कोई धुरंधर। अहमद पटेल से लेकर जनार्दन द्विवेदी और एंटनी से लेकर चिदबरंम तक सत्ता में रहते हुये हिन्दु इथोस को समझ नहीं पाये। और ना ही संघ की उस ताकत को समझ पाये जिसे इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी ने बाखूबी समझा।
16 मई के बाद कितना और कैसे बदला मीडिया (पार्ट-3)
: जन-आंकाक्षाओं तले मीडिया की बंधी पोटली के मायने : बीते सात महीनों में एक सवाल तो हर जहन में है कि देश में मोदी का राजनीतिक विकल्प है ही नहीं। यानी जनादेश के सात महीने बाद ही अगर मोदी सरकार की आलोचना करने की ताकत कांग्रेस में आयी है या क्षत्रपों को अपने अपने किले बचाने के लिये जनता परिवार का राग गाना पड़ रहा है तो भी प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प यह हो नहीं सकते। राहुल गांधी हो या क्षत्रपों के नायक मुलायम, नीतिश या लालू ।
क्या 16 मई के बाद मीडिया बदल गया? (पार्ट-1)
16 मई 2014 की तारीख के बाद क्या भारतीय मीडिया पूंजी और खौफ तले दफ्न हो गया। यह सवाल सीधा है लेकिन इसका जवाब किश्तों में है। मसलन कांग्रेस की एकाकी सत्ता के तीस बरस बाद जैसे ही नरेन्द्र मोदी की एकाकी सत्ता जनादेश से निकली वैसे ही मीडिया हतप्रभ हो गया। क्योंकि तीस बरस के दौर में दिल्ली में सडा गला लोकतंत्र था। जो वोट पाने के बाद सत्ता में बने रहने के लिये बिना रीढ़ के होने और दिखने को ही सफल करार देता था। इस लोकतंत्र ने किसी को आरक्षण की सुविधा दिया। इस लोकतंत्र ने किसी में हिन्दुत्व का राग जगाया । इस लोकतंत्र में कोई तबका सत्ता का पसंदीदा हो गया तो किसी ने पसंदीदा तबके की आजादी पर ही सवालिया निशान लगाया। इसी लोकतंत्र ने कारपोरेट को लूट के हर हथियार दे दिये। इसी लोकतंत्र ने मीडिया को भी दलाल बना दिया। पूंजी और मुनाफा इसी लोकतंत्र की सबसे पसंदीदा तालिम हो गयी। इसी लोकतंत्र में पीने के पानी से लेकर पढ़ाई और इलाज से लेकर नौकरी तक से जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया। इसी लोकतंत्र ने नागरिकों को नागरिक से उपभोक्ता बने तबके के सामने गुलाम बना दिया।
रही सही कसर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने पूरी कर दी, आर या पार करके!
Abhishek Srivastava : हिंदू राष्ट्र संबंधी बयानबाज़ी ने फ्रांसिस डिसूज़ा से लेकर नज़मा हेपतुल्ला तक वाया मोहन भागवत लंबा सफ़र तय कर लिया, लेकिन इसमें एक कसर बाकी रह गई थी जिसे आज पुण्य प्रसून वाजपेयी ने पूरा कर दिया। प्रसूनजी बोले कि इतने बयान आ रहे हैं, आरएसएस की विचाधारा को फैलाया जा रहा है, तो क्यों नहीं सरकार इस संबंध में संविधान में एक संशोधन कर देती है?