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सुख-दुख

(पार्ट तीन) मीडिया ने जिस बिजनेस माडल को चुना वह सत्ता के खिलाफ जाकर मुनाफा दिलाने में सक्षम नहीं : पुण्य प्रसून बाजपेयी

1991 के बाद राजनीतिक सत्ता ने जिस तेजी से अर्थव्यवस्था को लेकर पटरी बदली उसने झटके में उस सामाजिक बंदिशों को ही तोड़ दिया, जहां दो जून की रोटी के लिये तड़पते लोगों के बीच मर्सिर्डिज गाड़ी से घूमने पर अपराध बोध होता। बंदिशें टूटी तो सत्ता का नजरिया भी बदला और पत्रकारिता के तौर तरीके भी बदले। बंदिशें टूटी तो उस सांस्कृतिक मूल्यों पर असर पड़ा जो आम जन को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये बेचैन दिखती। लेखन पर असर पड़ा। संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के आगे नतमस्तक हुईं और झटके में सत्ता को यह एहसास होने लगा कि वही देश है। यानी चुनावी जीत ने पांच साल के लिये देश की चाबी कुछ इस तरह राजनीतिक सत्ता के हवाले कर दी कि संविधान के तहत कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका जहां एक दूसरे को संभालते वहीं आधुनिक सत्ता के छाये तले सभी एक सरीखे और एक सुर में करार दे दिये गये। इसी कड़ी में शामिल होने में मीडिया ने भी देर नहीं लगायी क्योंकि सारी जरुरते पूंजी पर टिकी। मुनाफा मूल मंत्र बन गया।

<p><img class=" size-full wp-image-15043" src="http://www.bhadas4media.com/wp-content/uploads/2014/06/images_kushal_ppb.jpg" alt="" width="826" height="444" /></p> <p>1991 के बाद राजनीतिक सत्ता ने जिस तेजी से अर्थव्यवस्था को लेकर पटरी बदली उसने झटके में उस सामाजिक बंदिशों को ही तोड़ दिया, जहां दो जून की रोटी के लिये तड़पते लोगों के बीच मर्सिर्डिज गाड़ी से घूमने पर अपराध बोध होता। बंदिशें टूटी तो सत्ता का नजरिया भी बदला और पत्रकारिता के तौर तरीके भी बदले। बंदिशें टूटी तो उस सांस्कृतिक मूल्यों पर असर पड़ा जो आम जन को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये बेचैन दिखती। लेखन पर असर पड़ा। संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के आगे नतमस्तक हुईं और झटके में सत्ता को यह एहसास होने लगा कि वही देश है। यानी चुनावी जीत ने पांच साल के लिये देश की चाबी कुछ इस तरह राजनीतिक सत्ता के हवाले कर दी कि संविधान के तहत कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका जहां एक दूसरे को संभालते वहीं आधुनिक सत्ता के छाये तले सभी एक सरीखे और एक सुर में करार दे दिये गये। इसी कड़ी में शामिल होने में मीडिया ने भी देर नहीं लगायी क्योंकि सारी जरुरते पूंजी पर टिकी। मुनाफा मूल मंत्र बन गया।</p>

1991 के बाद राजनीतिक सत्ता ने जिस तेजी से अर्थव्यवस्था को लेकर पटरी बदली उसने झटके में उस सामाजिक बंदिशों को ही तोड़ दिया, जहां दो जून की रोटी के लिये तड़पते लोगों के बीच मर्सिर्डिज गाड़ी से घूमने पर अपराध बोध होता। बंदिशें टूटी तो सत्ता का नजरिया भी बदला और पत्रकारिता के तौर तरीके भी बदले। बंदिशें टूटी तो उस सांस्कृतिक मूल्यों पर असर पड़ा जो आम जन को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये बेचैन दिखती। लेखन पर असर पड़ा। संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के आगे नतमस्तक हुईं और झटके में सत्ता को यह एहसास होने लगा कि वही देश है। यानी चुनावी जीत ने पांच साल के लिये देश की चाबी कुछ इस तरह राजनीतिक सत्ता के हवाले कर दी कि संविधान के तहत कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका जहां एक दूसरे को संभालते वहीं आधुनिक सत्ता के छाये तले सभी एक सरीखे और एक सुर में करार दे दिये गये। इसी कड़ी में शामिल होने में मीडिया ने भी देर नहीं लगायी क्योंकि सारी जरुरते पूंजी पर टिकी। मुनाफा मूल मंत्र बन गया।

 

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हर संवैधानिक संस्था को संभाले चौकीदार सत्ता के लिये बदलते दिखे। सीबीआई हो या कैग या सीवीसी। झटके में सभी दागदार या कहे सत्ता से प्रभावित दिखे। लेकिन उनकी संवैधानिक छवि ने उनकी आवाज को ही हेडलाइन बनाया। यानी सत्ता अगरखुद दागदार हुई तो उसने सिस्टम के उन्हीं आधारों को अपना ढाल बनाना शुरू किया जिन्हें सत्ता पर निगरानी रखनी थी। यानी सत्ता का कहना ही हेडलाइन बन गई। और सत्ता की हर क्षेत्र को लेकर परिभाषाये ही मीडिया की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट मान ली गई। इस सत्ता का मतलब सिर्फ दिल्ली यानी केन्द्र सरकार भर ही नहीं रहा। बल्कि चौखम्भा राज सत्ता ने राष्ट्रीय अखबारों और न्यूज चैनलों से लेकर क्षेत्रीय और जिले स्तर के अखबार और टीवी चैनलों को भी प्रभावित किया। और इसकी सबसे बड़ी वजह यही रही कि जिस भी राजनीतिक दल को सत्ता मिलती है उसके इशारे पर समूची व्यवस्था खुद ब खुद चल पड़ती है। यानी एक वक्त कल्याणकारी राज्य की बात थी जो राज्यसत्ता की जिम्मेदारी थी। लेकिन अब बाजारवाद है तो खुद का खर्चा हर संस्थानों को खुद ही निकालना चलाना है। और खर्चा निकालने-चलाने में राज्यसत्ता की जहां जहा हरी झंडी चाहिये उसके लिये सत्ता के मातहत संस्थानों के नौकरशाह, पुलिस, अधिकारी निजी संस्थानो के लिये वजीर बने बैठे हैं। लेकिन सत्ता के लिये वही प्यादे हैं जो पूंजी बनाने कमाने के लिये शह-मात का खेल बाखूबी खेलते हैं। यानी मीडिया के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह या तो सत्ता की परिभाषा बदल दे या फिर सत्ता के ही रंग में रंगा नजर आये।

समूचा तंत्र ही जब सत्ता के इशारे पर काम करने लगता है तो होता क्या है, यह भी किसी से छुपा नहीं है। गुजरात में पुलिस नरेन्द्र मोदी की हो गई था तो 2002 के दंगों ने दुनिया के सामने राजधर्म का पालन ना करने का सबसे वीभत्स चेहरा रखा। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या को बड़े वृक्ष के गिरने से हिलती जमीन को देखने की सत्ता की चाहत में खुलेआम नरसंहार हुआ। शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में शिंकजा कसा तो लाखों छात्रों की प्रतियोगी परीक्षा धंधे में बदल गई। रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में शिंकजा कसा तो आदिवासियों के हिस्से का चावल भी सत्ताधारी डकारने से नहीं चूके। उत्तर प्रदेश में तो सत्ता चलाने और चलवाने का ऐसा समाजवाद दिखा की हर संस्था का रंग सत्ता के रंग में रंग दिया गया या फिर खौफ ने रंगने को मजबूर कर दिया। कलम चली तो हत्या भी हुई। और हत्या किसने की यह सवाल सियासी बिसात पर कुछ इस तरह गायब किया गया जिससे लगे कि सवाल करने या जवाब पूछने पर आपकी भी हत्या हो सकती है। सिर्फ यूपी ही क्यों बंगाल में भी मां, माटी, मानुष का रंग लाल हो गया। पत्रकार को गायब करना या निशाने पर लेने के नये हालात पैदा हुये। मध्यप्रदेश तो रहस्यमयी तरीके से पत्रकारिता को अपने चंगुल में फांसने में लगा। इसलिये व्यापम पर रिपोर्ट तैयार करने गये दिल्ली के पत्रकार की मौत को भी रहस्य में ही उलझा दिया गया।

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मुश्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है कि पत्रकारिता और मीडिया हाउस सत्ता के लिये एक बेहतरीन हथियार बन चुके है मुश्किल यह भी है कि सत्ता कभी हथियार तो कभी ढाल के तौर पर मीडिया का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती और मीडिया के सामने मजबूरी यह हो चली है कि उसने जिस बिजनेस माडल को चुना है वह सत्ता के खिलाफ जाकर मुनाफा दिलाने में सक्षम नहीं है। वजह भी यही है कि झटके में कारपोरेट का कब्जा मीडिया पर बढ रहा है और मीडिया पर कब्जाकर कारपोरेट अपनी सौदेबाजी का दायरा सत्ता से सीधे करने वाले हालात में है। अब यहा सवाल यह उठ सकता है कि जब पत्रकार या मीडिया की साख उसकी विश्वसनीयता का आधार खबरों को लेकर इमानदारी ही है तो फिर सौदेबाजी पर टिके मीडिया हाउस को जनता देखेगी क्यों। तो इसका तो जवाब आसान है कि सभी को एक सरीखा कर दो अंतर दिखायी देंगे ही कहां। लेकिन जो सवाल मीडिया को विकसित करने के बिजनेस मॉडल के तहत दब जाता है उसमें समझना यह भी होगा कि एक वक्त के बाद संपादक भी कारपोरेट के रास्ते क्यों चल पडता है। मसलन टीवी18 जिस तरह पत्रकार मालिकों के हाथ से निकल कर कारपोरेट के पास चला गया उसमें टीवी18 की साख बिकी। न कि कोई बिल्डिंग। और पत्रकारों ने जिस मेहनत से एक मीडिया हाउस को खड़ा किया उसे कहीं ज्यादा रकम देकर अगर कोई कारपोरेट खरीद लेता है तो जिम्मेदारी होगी किसकी। यानी हमारे यहां इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि किसी मीडिया हाउस में काम कर रहे पत्रकारों की मेहनत उन्हें कंपनी के शेयर में हिस्सादारी देकर ऐसा चेक-बैलेंस खडा कर दें जिससे कोई कारपोरेट हिस्सेदारी के लिये किसी संस्थान को खरीदने निकले तो उसे सिर्फ एक या दो पत्रकार मालिकों से नहीं बल्कि पत्रकारों के ही बोर्ड से दो दो हाथ करने पड़ें। या फिर मीडिया हाउस पत्रकारों के हाथ में ठीक उसी तरह रहे जैसे खबरों को लेकर पत्रकार मेहनत कर अपने संस्थान को साख दिलाता है।

…समाप्त…

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लेखक पुण्य प्रसून बाजपेयी जाने माने पत्रकार हैं. इन दिनों आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग से साभार लिया गया है.


इसके पहले का पार्ट एक और दो पढ़ने के लिए इन शीर्षकों पर क्लिक करें:

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(पार्ट एक) क्या वाकई मीडिया की आजादी का बोलने-लिखने से कोई वास्ता है

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(पार्ट दो) सत्ता-मीडिया गठजोड़ सांगठनिक अपराध में तब्दील हो गया

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0 Comments

  1. Bidya

    August 21, 2015 at 7:04 pm

    O Gyani…khud kya kar raha hai ? Moti salary leta hai…mehngi car aur aalishan ghar men rehta hai. Chaukas life style hai aur janta ko chutia banane ke liye sarvhara ki baat karta hai. Sivay backchodi ke samaj ke liye ek bhi kaam kiya ho to bata de. Vo to tu tab aa gaya media men jab koi nahi tha nahi to aaj anchoring shuru ki hoti to kutta bhi nahi puchhta. Pehle ginti ke channel the ….tu darhi rakhta hi hai. Pehchan ban gayi nahi to tv pe ant shant bina sir pair ki lines bolta rehta hai

  2. mt

    September 5, 2015 at 3:28 pm

    मीडिया की पढ़ाई कराने वाले दुकानों में केवल बेरोजगार ही पैदा हो रहे हैं। छात्र अपने सुहरे भविष्य की तलाश में चंद गिने-चुने पत्रकारों को देख कर आ जाते हैं। किसी छात्र से पूछो मीडिया में आकर क्या बनना चाहते हो तो बच वही रटी-रटाई जवाब देते हैं कि मैं एंकर बनना चाहता हूं..या रिपोर्टर बना चाहता हूं…कहते है न की दूर के डोल सुहावने होते हैं…इन छात्रों को कौन समझाए कि बच्चे तुम गलत जगह इंट्री मारने की सोच रहे हो । कोई और पढ़ाई करलो…नहीं तो तुम्हारा जीवन संघर्षों में ही बीत जाएगा…मुझे मीडिया की पढ़ाई करने वाले कई छात्र मिलते है। मैं जब उनसे सवाल करता हूं कि क्या बनना चाहते हो तो वे वही बाते करते हैं जो उन्हें सपने दिखाए जाते हैं। लेकिन सपनों को हकीकत की कहां दरकार…हर साल लाखों की तादाग में छात्र पढ़ाई करके निकलते हैं। लेकिन इंडस्ट्री में इतनी न जगह है और न ही पुराने लोग हट रहे हैं। पहली जनरेशन के चंद माने-जाने पत्रकारों को छोड़ दें तो आज कौन बुलंदियों की उचाई पर है..ये आप ही तय करें…मैं ये नहीं कर रहा हूं कि ये फील्ड बेकार है पर दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा यहां संघर्ष बहुत ज्यादा है…अगर है आप में दम संघर्ष करने का तो आप का स्वागत हैं…रोज-रोज,सेकंड दर सेकंड सोच बदलने की क्षमता और कौशल है तो आपको मौके मिल सकते है। नौकरी मिलनी तो थोड़ा आसान होता है लेकिन उसे बचापाना आपके काबिलियत पर निर्भर करता है कि आप कितने सतर्क हैं… तो चंद पत्रकारों को देखकर अपने भविष्य का निर्णय न करें पहले खूब सोच विचार करले तभी किसी मीडिया की दुकान में जाकर अपने भविष्य को दांव लगाएं..नहीं तो जिंदगी में पस्तावा के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगने वाला…

  3. mt

    September 5, 2015 at 3:29 pm

    मीडिया की पढ़ाई कराने वाले दुकानों में केवल बेरोजगार ही पैदा हो रहे हैं। छात्र अपने सुहरे भविष्य की तलाश में चंद गिने-चुने पत्रकारों को देख कर आ जाते हैं। किसी छात्र से पूछो मीडिया में आकर क्या बनना चाहते हो तो बच वही रटी-रटाई जवाब देते हैं कि मैं एंकर बनना चाहता हूं..या रिपोर्टर बना चाहता हूं…कहते है न की दूर के डोल सुहावने होते हैं…इन छात्रों को कौन समझाए कि बच्चे तुम गलत जगह इंट्री मारने की सोच रहे हो । कोई और पढ़ाई करलो…नहीं तो तुम्हारा जीवन संघर्षों में ही बीत जाएगा…मुझे मीडिया की पढ़ाई करने वाले कई छात्र मिलते है। मैं जब उनसे सवाल करता हूं कि क्या बनना चाहते हो तो वे वही बाते करते हैं जो उन्हें सपने दिखाए जाते हैं। लेकिन सपनों को हकीकत की कहां दरकार…हर साल लाखों की तादाग में छात्र पढ़ाई करके निकलते हैं। लेकिन इंडस्ट्री में इतनी न जगह है और न ही पुराने लोग हट रहे हैं। पहली जनरेशन के चंद माने-जाने पत्रकारों को छोड़ दें तो आज कौन बुलंदियों की उचाई पर है..ये आप ही तय करें…मैं ये नहीं कर रहा हूं कि ये फील्ड बेकार है पर दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा यहां संघर्ष बहुत ज्यादा है…अगर है आप में दम संघर्ष करने का तो आप का स्वागत हैं…रोज-रोज,सेकंड दर सेकंड सोच बदलने की क्षमता और कौशल है तो आपको मौके मिल सकते है। नौकरी मिलनी तो थोड़ा आसान होता है लेकिन उसे बचापाना आपके काबिलियत पर निर्भर करता है कि आप कितने सतर्क हैं… तो चंद पत्रकारों को देखकर अपने भविष्य का निर्णय न करें पहले खूब सोच विचार करले तभी किसी मीडिया की दुकान में जाकर अपने भविष्य को दांव लगाएं..नहीं तो जिंदगी में पस्तावा के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगने वाला… 😐 😐 😐 😐 😐

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