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सुख-दुख

उदय सिन्हा की याद (पार्ट एक)

यशवंत सिंह-

आज उदय सिन्हा जी के गुज़रे एक साल हो गए। पिछले बरस आज के ही दिन भयानक लॉकडाउन की गड़बड़ियों-हड़बड़ियों के समय में वे चल बसे थे। उनका पुत्र नोएडा में फँसा हुआ था। बहुत कोशिशों के बाद लखनऊ जाने का पास बना। फिर कार मैनेज करने में काफ़ी मशक़्क़त हुई। जब बालक लखनऊ पहुँचा तो उदय जी के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार हुआ।

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उदय सिन्हा

उदय जी के निधन के बाद उन पर कुछ लिख न सका। जो बहुत क़रीब-अज़ीज़ होता है उस पर लिखना आसान नहीं होता। सोचना पड़ता है कहाँ से शुरू करें। इस चक्कर में कई दफे आदमी सोचता ही रह जाता है। शुरुआत नहीं कर पाता।

उदय सिन्हा तब लखनऊ में स्वतंत्र भारत और पायोनियर के संपादक थे। मैं बनारस से लखनऊ आकर Anil Kumar Yadav जी के यहाँ ठीहा जमा लिया था, पत्रकार बनने की ज़िद लिए हुए। अनिल जी ने अपने साथ मुझे ऐसे रखा जैसे कोई सगे भाई को रखता हो।

इस स्नेह का असर मुझ पर यूँ हुआ कि मैं नौकरी खोजना भूल कर नुक्कड़ नाटकों, स्वतंत्र लेखन, साहित्य-दर्शन की पढ़ाई के काम में लग गया।

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अनिल जी अमर उजाला के स्टेट ब्यूरो में हुआ करते थे। अपनी सेलरी वो दो किताबों के बीच में रख देते और रोज़ खुद सौ का एक नोट निकाल कर स्कूटर से ऑफ़िस निकल लेते। साथ ही जाते जाते मुझे भी सौ का एक नोट रोज़ खर्चने के लिए उकसा जाते। नया नया शराबखोरी सीख रहा था। हर रोज़ सौ का नोट मुझे पर्याप्त व्यस्त रखने लगा। एक नई दुनिया खुलने लगी।

अनिल की तरह मुझे लिखना सीखना था। पर वो सीधे सीधे सिखाने की बजाय आब्जर्व करने व उसे सरलतम शब्दों में लिख डालने के लिए प्रेरित करते। धीरे धीरे शुद्ध हिंदी से सहज हिंदी में लिखने की समझ हासिल होने लगी।

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इन्हीं दिनों अनिल जी ने उदय सिन्हा, गिरीश मिश्रा समेत कई वरिष्ठ पत्रकारों से मिलाया। वे मुझे खुद अख़बार के दफ़्तरों में जाकर संपादकों से मिल आने और अपना लिखा छपने के लिए दे आने को प्रेरित करते।

उदय सिन्हा जी से मिलने के बाद लगा ही नहीं कि मैं किसी इतने पड़े संपादक से मिल रहा हूँ। एकदम सहज अन्दाज़ में बतियाए। हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों का इतना बड़ा संपादक और ऑफ़िस में इतने सहज भाव से मुझसे भोजपुरी में बतिया रहा! मैं मुरीद हो गया उनका। वामपंथी छात्र राजनीति से ताज़ा ताज़ा निकला मैं नारेबाज़ी वाले विचारों के प्रवाह से भरा रहता। वही सब समसामयिक घटनाओं से जोड़कर आर्टकिल के रूप में लिख देता।

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उदय जी जेएनयू से पढ़े थे। वामपंथ की छात्र राजनीति में सक्रिय रह चुके थे। पर क़तई कट्टरपंथी न थे। हर विचार को सम्मान देते। मनुष्यता और संवेदनशीलता को सर्वोच्च स्थान देते। उनके चाहने वालों में सब थे। संघी, समाजवादी, वामी, कांग्रेसी, सत्ताधारी, विपक्षी, सब! नए लोगों को ख़ास तवज्जो देते। प्रोत्साहित करते।

मेरा लिखा स्वतंत्र भारत अख़बार में एडिट पेज पर कुलदीप नैयर के टॉप आर्टकिल के ठीक नीचे वाले सेकंड आर्टकिल के रूप में पब्लिश कर देते। यूँ छपा देखकर खुद को मैं कुलदीप नैयर से कम न समझने लगा। गिरीश मिश्रा जी दैनिक जागरण में प्रकाशित पहल कॉलम में लम्बा चौड़ा मेरा आर्टकिल छाप देते। कुल मिलाकर बिना कहीं नौकरी शुरू किए ही हम अपने को दिग्गज पत्रकार मानने लगे थे जिसका भ्रम बहुत जल्दी टूटा।

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जारी…

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