दीपक पांडेय-
घटना जून 2011 की है, मुम्बई में दैनिक जागरण प्रकाशन समूह के अखबार मिड-डे के इंवेस्टिवगेटिव एडिटर और सिनियर क्राइम रिपोर्टर ज्योतिर्मय डे यानि जे डे की हत्या अंडरवर्ल्ड के इशारे पर कर दी जाती है.
इस केस में जिग्ना वोरा को जेल भेजा गया. जिग्ना तब एशियन एज नाम के अखबार की डिप्टी ब्यूरो चीफ और सीनियर क्राइम रिपोर्टर थीं.
जिग्ना पर आरोप था कि उनकी ज्योतिर्मोय डे के साथ आपसी रंज़िश थी. जिसकी वजह से वो 9 महीने जेल में रहीं. बाद में जिगना 2018 में सारे आरोपों से बरी कर दी गईं.
इसी कहानी पर बेस्ड है नेटफ्लिक्स की नई वेबसीरिज – स्कूप.. जहां बस फ़िल्म में पात्रों के नाम अलग कर दिए गए हैं. बाकी सब ऐज इट इज है.
इस फ़िल्म को जर्नलिज्म करने वाले और जर्नलिज्म को दिन रात कोसने वाले दोनों को देखनी चाहिए.
क्योंकि एक की हत्या इसीलिए हुई कि वह अंडरवर्ल्ड के नेक्सस की पोल खोल रहा था और दूसरे को पुलिसिया कोप के अन्याय का शिकार इसीलिए होना पड़ा, क्योंकि वह हर पुलिसिया और राजनीतिक थियरी के विपरीत असलियत जानने का प्रयास कर रही थी.
इस कहानी का इस्तेमाल देश में मीडिया के काम करने के तरीके और सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग पर प्रकाश डालने के लिए भी करती है. वो मीडिया को ग़लत या सही होने का सर्टिफिकेट नहीं देती.
बस उसके काम करने के तरीके को बहुत करीब और बारीकी से दिखाने की कोशिश करती है. और ये कहा जा सकता है कि इसमें वो काफी हद तक सफल हो जाती है.
मीडिया, पुलिस और अंडरवर्ल्ड के नेक्सस पर अब तक इंडिया में अब तक जो कुछ भी बना है, उसमें ‘स्कूप’ सबसे यकीनी लगती है. क्योंकि इस सीरीज़ को देखते हुए आपको कहीं भी ये आभास नहीं होता कि आप कोई पिक्चर या सीरीज़ देख रहे हैं. क्योंकि ये बहुत डिटेल्ड काम है. इस वजह से ये सीरीज़ कहीं भी अपनी ऑथेंटिसिटी नहीं खोती.
ये सीरीज़ बताती है कि एक ऐसा मामला है, जिसकी देशभर में चर्चा है. उस असल घटना और आम जनता तक पहुंचने वाली कहानी में कितना फर्क होता है.
मीडिया के काम में बिज़नेस का दखल. पुरुषवादी समाज में एक महिला की सफलता को उसके दिमाग की बजाय उसके शरीर से जोड़कर देखा जाना. ईमान और इनाम के बीच की लड़ाई. इन सभी मसलों पर ये सीरीज़ बात करती है. और आराम से करती है. हड़बड़ाती नहीं है. ताकि आपको हर चीज़ को देखकर समझने और उसे प्रोसेस करने का समय मिले. वो आपके सामने तथ्य पेश करती है, नतीजे नहीं बताती.
यह फ़िल्म मीडिया के असल फेस को भी दिखाता है और समझाता है कि किसी अपराधी, किसी नेता या किसी अधिकारी का कन्फेशन देववाणी नहीं हो सकता है. कन्फेशन के पीछे की राजनीति और एजेंडा भी समझा जाना चाहिए. उसे तथ्यों की कसौटी पर कसा जाना चाहिए.
कई बार अफसरों की दी सूचनाएं, टिप भी वेरिफाई की जानी चाहिए. ये भी समझना चाहिए कि इसके पीछे का एजेंडा क्या है?
सिर्फ कागज का कोई टुकड़ा, पीडीएफ खबर नहीं हो सकती. पुलिस अफसरों की आपसी राजनीति में टूल बन खबरें, सूचनाएं जुटाई जा सकती हैं, लेकिन उनका नुकसान ही होता है.
स्कूप के जागृति का चरित्र कहता है कि श्रॉफ से अपनी बेहतर संबंधों का इस्तेमाल कर वह बड़े लोगों के बीच उठने बैठने लगी, उन्हें अपने बीच का समझने लगी.
ऐसा भ्रम तो पत्रकारों के बीच कॉमन ही है. बाकी पत्रकारों की आपसी ईर्ष्या, कंपीटीशन तो फिल्म में जितनी दिखाई गई, उससे कहीं ज्यादा ही है.
सो यही बात समझने योग्य है. किसी का विरोध या किसी का समर्थन दोनों उसकी जान पर बन सकती है. पब्लिक तो वैसे भी भरी पड़ी है. आपको कई बार सही होकर भी खुद को सही साबित करने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ सकती है.
(अगर आपने फ़िल्म नहीं देखी या जेडे हत्याकांड के बारे में जानकारी नहीं है तो लेख में कही गई बहुत सारी बातें आपको समझ मे नहीं आएंगी। मैं आपसे कहूंगा थोड़ा गूगल करें इस हत्याकांड की जानकारी लेने के लिए और सम्भव हो तो फ़िल्म भी देंखे)